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गीता अध्याय - 13 भाग - 02

क्षेत्र  - क्षेत्रज्ञ  गीता श्लोक - 13.1 , 13.2 ,  13.3 , प्रभु के बचन  क्षेत्र यह देह है जो विकारों से परिपूर्ण है और जो इसे समझता है , वह है , क्षेत्रज्ञ / गीता श्लोक - 13.2 के माध्यम  से प्रभु कह रहे हैं ----- क्षेत्र में क्षेत्रज्ञ , मैं हूँ ,  और ..... क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ का बोध ही ज्ञान है  क्षेत्र की रचना के सम्बन्ध में आप आगे देख सकते हैं , यहाँ आज मात्रा ध्यान का बिषय है ..... क्षेत्र  आदि गुरु शंकराचार्य जी अपनें भारत जागरण यात्रा के दौरान काशी पहुंचे जिसे ज्ञान - विज्ञान का केंद्र कहा जा ताहै और जो क्षेत्र ज्योतिर्लिंगम का क्षेत्र भी है तथा जहाँ शक्ति पीठ भी है / आदि गुरु गंगा स्नान के बाद जब श्री विश्वनाथ जी की गली से गुजर रहे थे तब उनको एक ऐसा ब्यक्त मिला जो कुछ कुत्तों को अपनें साथ रखा था और अपनी मस्ती में सैर करता हुआ जा रहा था / आदि गुरु उस ब्यक्ति को एक अपवित्र ब्यक्ति समझा और बोल पड़े ---- तूं अपवित्र ब्यक्ति मुझे छू दिया अब मुझे पुनः स्नान करना पडेगा /   आदि गुरु की बात सुन कर वह ब्यक्ति रो पड़ा और बोला ,   गुरूजी ! आप कुछ दिनों से काशी में हैं और

गीता अध्याय - 13 भाग - 01

गीता अध्याय - 13 में कुल 34 श्लोक हैं और इन श्लोकों के माश्यम से प्रभु श्री कृष्ण अर्जुन को निम्न बाते बता रहे हैं :  क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ  ज्ञान - ज्ञानी के लक्षण  क्षेत्र की रचना  निराकार ब्रह्म  प्रकृति  कार्य - करण  पुरुष  ध्यान , सांख्य , कर्म से ब्रह्म की अनुभूति  क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ का योग = जीव [ प्राणी का निर्माण ]  निर्गुण आत्मा  अब्यय परमात्मा  गीता बुद्धि - योग का आदि गुरु है जिसकी ऊर्जा क्षेत्र में आया हुआ खोजी कभीं भी इसकी ऊर्जा क्षेत्र से बहार नहीं निकल सकता / निर्गुण , निराकार अचिंत्य , असोच्य , अब्यक्त आत्मा , ब्रह्म , पुरुष , परमेश्वर सभीं जीव के ह्रदय में स्थित हैं लेकिन जीवों में बुद्धि जीवी मनुष्य इस सम्बन्ध में अबोध बन कर रहता है /  आत्मा , जीवात्मा , परमेश्वर , ब्रह्म , पुरुष क्या ये सब अलग - अलग हैं ?  मनुष्य के दृदय में ये सभी हैं  मनुष्य के ह्रदय में ईश्वर है  मनुष्य के ह्रदय में महेश्वर है  मनुष्य के ह्रदय से सभी भाव निकलते हैं  मनुष्य के ह्रदय में प्यार धडकता है  यह बातें मैं नहीं गीत में श्रो प्रभु कृष्ण

गीता श्लोक - 6.4

यदा हि न इंद्रिय अर्थेषु न कार्मेषु अनुषज्जते / सर्वसंकल्प संन्यासी योगारूढ़ : तदा उच्यते      / जिस समय मनुष्य की इन्द्रियाँ न अपनें बिषयों से आकर्षित हों और न ही कोई कर्म से आकर्षित हों , उस काल में वह ब्यक्ति :----- [क] संकल्प रहित होता है .... [ख] योग में होता है // If senses donot cling with their objects and also when no work attracks them , then at that particular moment that man is said to be ascended in Yoga . गीता में प्रभु श्री कृष्ण अर्जुन को स्पष्ट कर रहे हैं कि योगी कौन होता है / अर्जुन युद्ध न करनें के लिए सभीं बुद्धि स्तर पर प्रयाश करते हैं लेकिन बुद्धि - योगी परम श्री कृष्ण उनको उनकी द्वारा कही गयी बातों को और निर्मल करके उनको ही वापिस देते हैं ; इस बात को समझना होगा / प्रभु अर्जुन को यहाँ योगी के सम्बन्ध में क्यों बता रहे हैं ? इस प्रश्न को समझते हैं : गीता का अध्याय - 06 अर्जुन के उस प्रश्न से सम्बंधित है जिसको वे अध्याय - 05 के प्रारम्भ में पूछते हैं , प्रश्न कुछ इस प्रकार से है : ----- अर्जुन कहते है ----- हे प्रभु ! आप कभीं कर्म संन्यास की प्रशंस

गीता के चार सूत्र

सूत्र - 2.58 , 2.59 , 2.60 , 3.6 , 3.7  गीता के ये सूत्र कह रहे हैं - - - - -  आसक्त इन्डिय मन को गुलाम्म बना कर रखती है  आसक्त मन प्रज्ञा को गुलाम बना कर रखता है  हठ से इंद्रियों पर नियंत्रण रखने वाला दम्भी होता है  बीसी से इंद्रिय को दूर रखने से क्या होगा , मन तो उस बिषय पर ही टिका रहेगा  इंद्रियों पर नियंत्रण ऐसा होना चाहिए  जैसे कछुआ अपने अंगों पर नियंत्रण रखता है  मन से इंद्रियों को  नियंत्रित करने का अभ्यास ही अभ्यास योग है  ===== ओम् ======

गीता में झांको

गीता में प्रभु अर्जुन को बता  रहे हैं : ----- गीता श्लोक - 7.12 + 10.4 + 10.5  "नाना प्रकार के सभीं भाव मुझ से हैं , गुण आधारित सभीं भाव मुझ से हैं लेकिन उन भावों में मैं नहीं " गीता श्लोक - 7.13  "तीन गुणों के भावों से सभीं लोग सम्मोहित हैं और मुझ अब्यय को नही समझता " गीता श्लोक - 7.14 + 7.15  " तीन गुणों के मध्यम को मेरी माया है  और माया मोहित ब्यक्ति मुझे नहीं समझता " भाव क्या है ? भाव वह लहर  है जिसमें मन बहता है  माया तीन गुणों से है , माया से माया में वैज्ञानिक Time space है और टाइम स्पेस में जीव हैं तथा ब्रह्माण्ड की सभीं अन्य सूचनाएं हैं / गीता में श्री कृष्ण कहते हैं [ श्लोक - 18.40 ] ------ सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में ऐसा कुछ भी नहीं है जिस पर तीन गुणों का प्रभाव न पड़ता हो अर्थात सभीं के ऊपर तीन गुणों की छाया पड़ती रहती है और ये गुण प्रभु निर्मित हैं ,  सोचनें जैसी बात है - तीन गुण प्रभु निर्मित हैं लेकिन प्रभु गुणातीत है अर्थात गुणों को पैदा करनें वाला स्वयं गुण रहित है /  गीता का तत्त्व - विज्ञान  ऐसा बिषय है जिसका प्रारम्भ तो

परम गति प्राप्त करनें का गीता ध्यान

गीता श्लोक  8.12 - 8.13 यहाँ इन दो सूत्रों के माध्यम से प्रभु श्री कृष्ण कह रहे हैं :-------- [क] सभीं द्वारों पर पूर्ण नियंत्रण हो ...... [ख] मन ह्रदय में स्थित हो ....... [ग] प्राण मस्तक स्थापित करके ..... [घ] ॐ को ऐसे गुनगुनाएं कि .....       * देह के पोर - पोर में ओम् की धुन गूजनें  लगे       * इस ओम् की धुन में ------           एक अब्यय , अप्रमेय , सनातन , अचिंत्य ब्रह्म की अनुभूति होनें लगे तब ---- - इस स्थिति में जो प्राण को शरीर छोड़ कर जाते हुए का ...... द्रष्टा बना हुआ होता है ..... वह  परम गति का राही  होता है अगले अंक में इस ध्यान को और स्पष्ट किया जाएगा  ==== ॐ =====

आसक्ति से हुआ कर्म भोग है

1 - गीता सूत्र - 3.19  आसक्ति रहित कर्म प्रभु को दिखाता है  2 - गीता सूत्र - 5.10  आसक्ति रहित कर्म करनें वाला  जैसे कमल-  पत्र पानी में रहते  हुए  पानी से अप्रभावित, उससे   अछूता रहता है वैसे भोग कर्म में रहता है  3 - गीता सूत्र - 5.11 कर्म योगी के कर्म उसे और निर्मल करते हैं  4 - गीता सूत्र - 18.49  आसक्ति रहित  कर्म से नैष्कर्म्यता की सिद्धि मिलती है  5 - गीता सूत्र - 18.50  निष्कर्मता की सिद्धि ही ज्ञान योग की परा निष्ठा है  6 - गीता सूत्र - 4.23 आसक्ति रहित कर्म कर्म बंधन मुक्त बनाता है  गीता के छः सूत्रों को आज  आप अपना सकते हैं  === ओम् =====

ध्यान से परमात्मा का बोध

गीता में प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं ----- ध्यानेन आत्मनि पश्यन्ति केचित् आत्मानं आत्मना अन्ये साङ्ख्येन योगेन  कर्म योगेन च अपरे गीता - 13.24  " ध्यान , सांख्य , योग एवं कर्म योग से मुझे समझाना संभव  है  लेकिन .... ध्यान में जो उतरता है जब उसकी बुद्धि निर्विकार स्थिति में पहुंचती है तब वह अपनें ह्रदय में मुझे महशूस करता है / "  ह्रदय का प्रभु से गहरा सम्बन्ध है  - यहाँ आप गीता के निम्न श्लोकों को भी देखें तो अच्छा रहेगा / गीता श्लोक - 18.61 , 15.15 , 13.17 , 10.20  गीता इन श्लोकों के माध्यम से कह रहा है - - - - - - - आत्मा , प्रभु श्री कृष्ण , ईश्वर और ब्रह्म का निवास ह्रदय में है  साधना में ह्रदय की इतनी मजबूत स्थित क्यों है ? साधक के लिए ह्रदय वह इकाई है जहाँ से भाव उठते हैं और भाव वह माध्यम हैं जिनके सहयोग से भावातीत की स्थिति का बोध संभव है / भावातीत मात्र प्रभु हैं और कोई नहीं और आत्मा एवं ब्रह्म प्रभु के संबोधन स्वरुप हैं / भाव तब अवरोध का काम करनें लगते हैं जब कोई भाव में बहनें लगता है लेकिन भावों की किस्ती से परम पद की यात्रा संभव है / भावों के सहयोग से जो

भक्त और भोगी

योग का मार्ग भोग से निकलता है  योगी भोगी का शत्रु नहीं  भोगी योगी का शत्रु हो सकता है  योगी योगी की भाषा समझता है  भोगी न योगी की भाषा समझता है न अपनी भाषा , वह संदेह में बसा होता है  योगी योग सिद्धि तो एकांत में होती है और वह अपनी अनुभूति बाटनें बस्ती आता है  योगी के शब्द और हमारे शब्द एक होते हैं लेकिन दोनों के भाव अलग - अलग होते हैं  योगी अपनी अनुभूति ब्यक्त करता है और हम उसे अपनी तरह देखते हैं  योगी पंथ का निर्माण नहीं करता , उसके पीछे चलनें वाले  बुद्धिजीवी उसके न रहनें के बाद पंथ ब्यापार प्रारम्भ करते हैं जे . कृष्णमूर्ति जी कहते हैं - Truth is pathless journey और हम लोग आये दिन नये नये मार्ग बना रहे हैं ज़रा अपनी चारों तरफ नज़र डालना , आप को साईं - सनी महाराज की झांकिया आये दिन देखनें को मिलेगीं , अब श्री राम , हनुमान , श्री कृष्ण से लोगों का लगाव घटता जा रहा है  भोगी के दिल में योगी के लिए तबतक जगह है जबतक उसे यकीन है कि हो न हो अमुक योगी से हमें भोग प्राप्ति में कोई सहयोग मिल जाए और जिस दिन यह आस्था टूटेगी , योगियों का जीना मुश्किल हो उठेगा  योगी और भोगी का एक समी

गीता कहता है --- [ 3 ]

गीता कर्म - योग के तीन और श्लोक .... .. [  1] - गीता सूत्र - 2.59  इंद्रियों को बिषयों से अलग रहते समय होश मय रहो क्योंकि मन तो उन - उन बिषयों से जुड़ा  ही रहता है [ 2 ] गीता सूत्र - 2.58  कर्म - योगी अपनी इंद्रियों को ऐसे नियंत्रण में रखता है जैसे एक कछुआ अपनें अंगों पर रखता है [ 3 ] गीता सूत्र - 3.34 ऐसा कोई बिषय नहीं जो राग - द्वेष की उर्जा न रखता हो गीता कर्म - योग के सूत्रों में से तीन सूत्रों को आज यहाँ दिया गया है जिनको एक बात पुनः अपनी स्मृति में रखनें का प्रयाश करते हैं और आज हम जो भी करें गीता के इन तीन सूत्रों की छाया में ही करें और देखें कि गीता की ऊर्जा हमें कहाँ से कहाँ ले जा रही है ---- पंच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं और सबके अपनें - अपनें बिषय हैं / ज्ञान इंद्रियों का स्वभाव है अपनें - अपनें बिषयों में भ्रमण करना और जो बिषय जिस ज्ञान इंद्रिय को सम्मोहित करनें में सफल हो जाता है वह इंद्रिय मन को सम्मोहित करनें में कोई कसर नहीं छोडती /  बिषय  इंद्रियों को  सम्मोहित करते हैं .... इंद्रियां मन को ..... मन बुद्धि को ..... और बुद्धि प्रज्ञा को ..... और प्रज्ञा आत्मा क

गीता कहता है ---- [ 2 ]

गीता के तीन सूत्र  सूत्र - 1 , 2.60 आसक्त इंद्रियों का गुलाम है   सूत्र - 2 , 67  प्रज्ञा आसक्त मन  का गुलाम  है  सूत्र - 3 , 3.6  हठ से इंद्रिय नियोजन करनें वाला दम्भी - अहंकारी होता है  गीता के इन तीन सूत्रों पर आप मनन करें : हमारी इन्द्रियाँ बिषयों का गुलाम है  हमारा मन बिषय - आसक्त इंद्रिय का गुलाम है  और इंद्रिय का गुलाम मन प्रज्ञा  को गुलाम बना कर रखता है  फिर  कर्म - योग में कैसे  उतरें ? सोचिये इस बिषय पर और सोच में सोच से परे आप ज्योंही पहुंचेंगे , आप का रूपांतरण हो गया होगा / ==== ओम् ==== =

गीता कह रहा है .......

जिसका कर्म त्याग मन से हुआ होता है उसकी आत्मा नौ द्वारों वाले घर में चैन से रहती है गीता - 5.13 परम पद स्वप्रकाशित है गीता - 15.6 सात्त्विक गुण के उदय होनें पर सभीं द्वार प्रकाशित होते हैं गीता - 14.11 ज्ञान से परम प्रकाश की अनुभूति होती है गीता - 5.16 काम - क्रोध - लोभ रहित परम पद प्राप्त करता है गीता - 16.21 - 16.22 गीता के इन मूल मन्त्रों को आप अपनें जीवन से जोड़ें ==== ओम् =====

गीता की एक ध्यान विधि

गीता श्लोक - 8.12 , 8.13 [क] सभीं द्वार बंद हों [ख] मन ह्रदय में स्थित हो [ग] प्राण तीसरी आँख पर केंद्रित हो [घ] देह से पोर - पोर से ओंम् धुन गूँज रही हो " ऐसे आयाम में सहस्त्रार चक्र से प्राण को देह छोड़ते हुए का जो द्रष्टा बना होता है , उसे परम गति मिलती है / " गीता का यह ध्यान तिब्बत के लामा लोगों का बारडो ध्यान जैसा है और जैन परम्परा में ऐसा ही ध्यान है - संथारा * देह में नौ द्वार हैं [ देखिये गीता सूत्र - 5.13 ] * मन का ह्रदय में बसना अर्थात मन का संदेह रहित होना अर्थात पूर्ण समर्पण आप गीता की इस विधि को समझें लेकिन करें नहीं क्योंकि ------ भोग से परम गति तक की मनुष्य की यात्रा में यह ध्यान आखिरी सोपान है जहाँ प्रभु उस योगी के लिए दृश्य नहीं रह जाते / मनुष्य की नजर तो प्रभु पर कभीं टिकती नहीं लेकिन प्रभु की नजर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की सभीं सूचनाओं से कभी हटती भी नहीं / ==== ओम् =====

गीता योग सूत्र - 01

गीता योग सूत्र नाम से यह एक नयी श्रृंखला प्रारम्भ की जा रही है जिसमें गीता के लगभग 200 सूत्रों से 32 गीता योग सूत्र दिए जायेंगे जिनका सम्बन्ध सीधे गीता  के  माध्यम से ध्यान में उतरना संभव है ,  तो आइये चलते हैं अगले सोपान पर : ................... गीता योग सूत्र - 01 1- सूत्र -  2.60 मन आसक्त इंद्रिय का गुलाम है 2- सूत्र - 2.67 बुद्धि आसक्त मन का गुलाम है 3 - सूत्र - 3.6 जोर जबरदस्ती से इंद्रियों को दबानें से अहँकार सघन होता है 4- सूत्र - 2.59 इंद्रियों को बिषयों से दूर रखनें से क्या होगा ? मन तो     उन - उन बिषयों पर मनन करता ही रहेगा 5- सूत्र - 2.58 इंद्रिय न्यंत्रण ऐसा रहे जैसे कछुए का नियंत्रण उसके अंगों पर रहता है 6 - सूत्र - 3.34 सभीं बिषयों में राग - द्वेष की ऊर्जा होती है 7 - सूत्र - 3.7 मन से इंद्रियों का नियोजन होना चाहिए 8 - सूत्र - 2.68 इंद्रिय नियोजन से स्थिर प्रज्ञता मिलाती है 9 - सूत्र - 2.55 स्थिर प्रज्ञा आत्मा से आत्मा में स्थित प्रभु मय होता है अब ----- आगे इन नौ सूत्रों में तैरना आप को है , आज बश इतना ही // ==== ओम् =======

गीता श्लोक - 2.60

गीता के 700 श्लोकों  में लगभग 200 ऐसे श्लोक हैं जिनका सम्बन्ध सीधे ध्यान से है और इस दो सौ श्लोकों का पहला श्लोक आप से साथ कुछ इस प्रकार है ......... यतत: हि अपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चित : इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः गीता - 2.60  " बिषय में आसक्त इंद्रिय मनुष्य के मन को हर लेती है " बिषय , ज्ञान इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि एवं कर्म इंद्रियों का आपसी गहरा सम्बन्ध है /  पांच ज्ञान इन्द्रियाँ हैं और सबका अपना - अपना बिषय है / ऐसा कोई बिषय नहीं जिसमें राग -द्वेष न् हों [ गीता - 3.34 ] और यही राग - द्वेष ज्ञान इंद्रियों को सम्मोहित करते हैं और इस सम्मोहन से वैरागी इन्द्रियाँ रागी इंद्रियों में बदल जाती हैं / वैरागी इंद्रियों के साथ बसा मन प्रभु का दर्पण होता है और रागी इंद्रियों से आसक्त मन भोग संसार का दर्पण होता है / इंद्रिय - बिषय के संबंधों का द्रष्टा ही गीता का समभाव योगी होता है / ==== ओम् ========

Sandeh evam manushya

Gita kahata hai  ( 4.40,4.42) :----- Sandeh ke saath sukhi rahana sambhav nahii ...... Aur Sandeh agyan ki pahachan hai // Ab aap in do samikarano ko apane Dhyan ka maafhysm banayen . ***** OM ******

गीता के कृष्ण में डूबो

गीता में प्रभु श्री कृष्ण कह रहे हैं ------ [ क ] इन्द्रियाणाम् मनश्चास्मि ..... गीता - 10.22 अर्थात इंद्रियों में मन मैं हूँ // और यहाँ कह रहे हैं ---------------------- तु ये इन्द्रियग्रामम् सन्नियम्य अचिन्त्यम् सर्वत्रगम् च कूतस्थं ध्रुवं अचलम् अब्ययम् अक्षरं पर्युपासते ते सर्वभूतहिते रताः सर्वत्र समबुद्धयः माम् एव प्राप्नुवन्ति ........ गीता - 12.3 - 12.4 अर्थात अचिंत्य , सर्व्यापी , समभाव , अब्यय , अब्यक्त , अक्षर परम ब्रह्म की अनुभूति मन बुद्धि से परे की होती है // अब सोचिये ----- मैं ही मन बुद्धि हूँ मेरे अधीन परम ब्रह्म है [ गीता - 14.3 - 14.4 ] और ब्रह्म की अनुभूति मन - बुद्धि से परे की है / प्रभु और आगे यह भी कह रहे हैं कि .... गीता - 7.10 बुद्धिः बुद्धिमताम् अस्मि // बुद्धिमानों में बुद्धि मैं हूँ ==== ओम् ======

गीता सांसारिक रिक्तता की दवा है

गीता को यदि महाभारत प्रसंग से दूर रखा गया होता तो क्या होता ? गीता यदि भक्ति मार्गियों के हाँथ न आया होता तो क्या होता ? गीता के ऊपर जो लोग लिखे हैं या जो लिख रहे हैं वे गीता - सूत्रों को पौराणिक बातों के सन्दर्भ में क्यों देखते हैं ? गीता में सात सौ श्लोक हैं जिनमें से यदि लगभग 60 श्लोकों को निकाल दिया जाये तो कोई यह नहीं कह सकता कि गीता का जन्म युद्ध – क्षेत्र में दो सेनाओं के मध्य हुआ होगा ? गीता के सांख्य – योगी ब्रह्म के आधार परम अक्षर श्री कृष्ण को कैसे कोई माखन चोर या गोपियों के साथी के रूप में देख सकता है ? गीता बताता है ------- आसक्ति क्या है ? कामना क्या है ? क्रोध क्या है ? अहँकार क्या है ? मोह क्या है ? काम क्या है ? और इन सब में आपसी सम्बन्ध क्या है ? अभीं जिन तत्त्वों को बताया गया वे तत्त्व हैं भोग तत्त्व जो अस्थिर होते हैं और वायु की भांति मन में इनका आवागमन होता रहता है / संसार और मनुष्य का आपसी सम्बन्ध भोग तत्त्वों के माध्यम से है और मनुष्य की चेतना इंद्रियों के माध्यम से संसार से इन तत्त्वों के माध्यम से जुडी हु

गीता को ढोना अति सरल पर -----

गीता को ढोना तो अति सरल है लेकिन गीता में उतरना उतना ही कठिन गीता में वे उतरते हैं जिनके माद एक मजबूत ह्रदय है गीता में वे उतरते हैं जिनकी आस्था अडिग है गीता उनका साथ देता है जो अपनें को देखना चाहते हैं गीता एक दर्पण है जिस पर आप स्वयं की स्थिति को देख सकते हैं गीता - यात्रा में बिषय से वैराज्ञ से ठीक पहले तक की यात्रा भोग की यात्रा है जहाँ ----- भोग तत्त्वों के रस को चखा जाता है … ... भोग तत्त्वों के रस को परखा जाता है … .. भोग तत्त्वों के प्रति बोध बनाना होता है … . और यह बोध ही आगे चल कर वैराज्ञ में ज्ञान का रूप ले लेता है , जहाँ … .. आसक्ति , कामना , क्रोध , लोभ , मोह , भय , आलस्य एवं अहँकार का द्रष्टा बना हुआ वैरागी … .. अपनें कर्म में अकर्म देखता है ----- अपनें अकर्म में कर्म देखता है ----- संसार में प्रकृति - पुरुष के खेल को देखता है … . और … .. वह योगी आत्मा से आत्मा तृप्त रहता हुआ परम गति की ओर चलता रहता है // ==== ओम् =======

गीता एक परम रसायन है

लोग भाग रहे हैं , मनुष्य जबसे दो पैरों पर खडा हुआ है तब से भाग रहा है , संसार में जीवन का अंत आ जाता है , इस भाग का कोई अंत नहीं , देखनें में कुछ ऐसा दिखता है लेकिन एक आयाम ऐसा है जहाँ पहुंचनें पर भागनें का आकर्षण समाप्त सा हो जाता है लेकिन लोग उस से बच कर आगे निकल जाते हैं और इस आयाम का नाम है श्रीमद्भगवद्गीता / आप क्या चाहते हैं , योग , ध्यान , भक्ति , न्याय , सांख्य , मिमांस , वैशेषिका या फिर वेदांत ? गीता में क्या नहीं है , आप लेनें वाले तो बनो / वैज्ञानिक कहते हैं , गीता भारत भूमि पर लगभग पांच हजार सालों से किसी न किसी रूप में उपलब्ध है लेकिन लोग इसे तब याद करते हैं जब सामनें मृत्यु एक काली छाया के रूप में धुधली - धुधली दिखनें लगती है / ऎसी मान्यता है कि जब प्राण निकल रहे हों तब गीता के दो - एक शब्द भी यदि कानों के माध्यम से ह्रदय में उतर जाएँ तो वह ब्यक्ति सीधे परम गति को प्राप्त करता है लेकिन कान के माध्यम से ह्रदय में उतरनें की प्रक्रिया इतनी आसान नहीं जितना आसान हम हिंदू लोग समझते हैं / गीता सु

गीता एक परम राह है

गीता में साकार प्रभु श्री कृष्ण का तन है , मन है , बुद्धि है और चेतना है और इनके माध्यम से वह जो गीता से अपनें को जोड़ रखा है , निराकार प्रभु श्री कृष्ण के आयाम में पहुंचनें वाला ही होता है / क्या है निराकार प्रभु श्री कृष्ण ? जैसे सभीं नदियों का आखिरी ठिकाना सागर होता है वैसे सभीं मनुष्य का आखिरी ठिकाना निराकार प्रभु अर्थात श्री कृष्ण होते हैं / भगवान राम को आंशिक अवतार माना गया है और प्रभु श्री कृष्ण को पूर्ण अवतार के रूप में मनीषी लोग अभीं तक देखते रहे हैं / ऎसी कौन सी बात है कि लोग प्रभु श्री कृष्ण को पूर्ण अवतार के रूप में देखते हैं ? प्रभु श्री कृष्ण कभीं हमारे सामनें एक सांख्य – योगी के रूप में आते हैं , कभीं भक्तो के सागर प्रेम - सागर के रूप में दिखते हैं , कभीं चक्र धारण किये हुए महाकाल के रूप में दिखते हैं , कभीं ममता के साकार रूप में बाल कन्हैया के रूप में दिखते हैं और कभी नटखट माखन चोर के रूप में हम सब के ह्रदय में स्थित निराकार कृष्ण को साकार रूप में दिखाते हैं , आखिर कहाँ जाओगे भाग कर जहाँ जिस मन दशा में तुम जाओगे प्रभु श्र

गीता एक परम बसेरा है

गीता पढते हो उत्तम है गीता पर सोचते हो , वह भी उत्तम है लेकिन … ... यदि तुम्हारी सोच गुण तत्त्वों पर आधारित है तो तुम … ..... गीता के माध्यम से स्वयं को धोखा दे रहे हो // गीता महाभारत का अंग है , गीता सांख्य - योग का सार है और गीता वेदान्त है , ऎसी अनेक बातें आप गीता सम्बंधित साहित्य में देखते हैं लेकिन इन बातों से से न तो बुद्धि तृप्त होती हैं और न ही कोई स्वप्रकाशित मार्ग ही दिखता है जिस पर हम चल कर अपनें अज्ञेय लक्ष्य पर पहुँच सकें / क्या है यह हमारा अज्ञेय लक्ष्य ? और क्या है यह स्वप्रकाशित मार्ग / अज्ञेय लक्ष्य है प्रभु मय जीते हुए प्रभु में प्रवेश पाना , वह भी द्रष्टा की स्थिति में और स्वप्रकाशित मार्ग वह मार्ग है जिसकी यात्रा के दौडान मन – बुद्धि में मात्र एक तत्त्व बना रहता है और दूसरे तत्त्व के प्रवेश की कोई गुंजाइश नहीं रह जाती / स्वप्रकाशित मार्ग है उस यात्रा - पथ का नाम जिस पर चलनें वाला न हाँ समझता है न नां , न अच्छा को समझता है न बुरे को , न अपना - पराया को समझाता है तथा न सुख को समझता है और न दुःख को , वह तो मात्र एक द्रष्टा

जीवन समीकरण

आत्मा , ह्रदय एवं प्रभु श्री कृष्ण के सम्बन्ध को हम एक साथ गीता दृष्टि से देख रहे है और इस सम्बन्ध में गीता के दो और श्लोकों को हम देखनें जा रहे हैं जो इस प्रकार हैं ------ गीता श्लोक – 15.7 मम एव अंशः जीवलोके जीव भूतः सनातनः / मनः षष्ठानि इन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानी कर्षति // भावार्थ इस देह में सनातन जीवात्मा मेरा ही अंश है और वही प्रकृति में स्थित मन सहित पांच ज्ञानेन्द्रियों को आकर्षण करता है / गीता श्लोक – 15.11 यतंतः योगिनः च एनं पश्यन्ति आत्मनि अवस्थितम् / यतंतः अपि अकृत आत्मानः न एनं पश्यन्ति अचेतसः // भावार्थ यत्नशील योगीजन अपने ह्रदय में स्थित आत्मा को तत्त्व से जानते हैं लेकिन अचेत ब्यक्ति ; अज्ञानी इस आत्मा को यत्न करनें पर भी नही समझ पाता / जो लोग गीता श्लोक – 15.7 को पढेंगे उनके लिए आत्मा प्रभु का अंश है और जिसका स्थान जीवों का ह्रदय है और जो लोग गीता श्लोक – 10.20 को पढेंगे उनके लिए आत्मा रूप में प्रभु श्री कृष्ण सभीं जीवों के ह्रदय में स्थित हैं / आत्मा , परमात्मा एवं ह्रदय का गहरा सम्बन्ध है और आत्मा उस ऊर्जा का श

प्रभु श्री कृष्ण आत्मा को क्या समझते हैं

पिछले अंक में ईश्वर एवं श्री कृष्ण के सम्बन्ध में गीता के श्लोक 18.61 , 18,62 एवं 18.66 को हमनें देखा जहाँ प्रभु श्री कृष्ण कह रहे हैं … .... [ क ] अर्जुन ! तूं उस परमेश्वर की शरण में जा जो सबके ह्रदय में स्थित है और सबको उनके कर्मों के अनुसार अपनी माया के प्रभाव से घुमा रहा है [ श्लोक – 18.61 , 18.62 ] [ ख ] हे अर्जुन ! तूं पूर्णरूप से सभीं धर्मों को त्याग कर मेरी शरण में आजा [ मामेकं शरणं ब्रज ] , मैं तुमको सभीं पापों से मुक्त कर दूंगा [ अहम् त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ] अब देखते हैं आगे … ... गीता श्लोक – 10.20 अहमात्मा गुणाकेश सर्वभूताशयस्थित : हे अर्जुन ! मैं सभीं जीवों के ह्रदय में आत्मा के नाम से स्थित हूँ / गीता श्लोक – 13.22 उपद्रष्टा अनुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः परमात्मा इति च अपि उक्तः देहे अस्मिन् पुरुषः परः इस देह में स्थित यह आत्मा वास्तव में परमात्मा ही है वही शाक्षी होनें से उपद्रष्ट और यथार्थ सम्मति देनेंवाला होनें से अनुमन्ता , सबका धारण – पोषण करनें वाला होनें से भर्ता , जीव रूपेण भोक्ता , ब्रह्मा आदि

श्री कृष्ण एवं ईश्वर

गीता श्लोक – 18.61 ईश्वरः सर्भूतानाम् हृद्देशे अर्जुन तिष्ठति भ्रामयन् सर्वभूतानि यंत्रारुढानि मायया हे अर्जुन ! शरीर एक यांर की भांति है और इस यन्त्र में आरूढ़ हुए ईश्वरसब के ह्रदय में बैठा , अपनी माया से सभीं के कर्मों के अनुकूल भ्रमण करा रहा है ----- अगला श्लोक … .. गीता श्लोक – 18.62 तम् एव शरणम् गच्छ सर्वभावेन भारत तत् प्रसादात् पराम् शांतिम् स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतं हे भारत ! तुम उनकी शरण में जा तुमको उनके प्रसाद स्वरुप परम शाश्वत शांति मिलेगी और तुम परम धाम को प्राप्त होगा / अब देखिये गीता श्लोक – 18.66 सर्वधर्मान् परित्यज्य मां एकं शरणम् व्रज अहम् त्वा सर्व पापेभ्य : मोक्षयामि मा शुचः यहाँ प्रभु कह रहे हैं … ..... सभीं धर्मों को त्याग कर तुम मात्र मेरी शरण में आजा , मैं तुमको सभी पापों से मुक्त कर दूंगा तुम चिता न कर // प्रभु श्री कृष्ण पहले दो सूत्रों में कह रहे हैं अर्जुन को कि तुम उस ईश्वर की शरण में जा जो सबके ह्रदय में स्थित है और तुम उसके प्रसाद रूप में परम धाम की प्राप्ती करेगा और यहाँ आकिरी श्लोक में कह रहे हैं , हे अर्जुन तुम मात्र

गीता और पूजन

गीता श्लोक – 9.25 यान्ति देवब्रता : देवान् पितृन् यान्ति पितृव्रता : / भूतानि यान्ति भूतेज्या : यान्ति मद्याजिन : अपि माम् // इस श्लोक को कुछ इस प्रकार से पढ़ें … ..... देवब्रता : देवान् यान्ति पितृव्रता : पितृन् यान्ति / भूतेज्या : भूतानि यान्ति मद्याजिन : माम् अपि यान्ति // भावार्थ … .. देव – पूजक देवताओं को प्राप्त करते हैं , पितरों की पूजा जो करते हैं वे पितरों को प्राप्त करते हैं , भूतों की पूजा करनें वाले भूतों को प्राप्त करते हैं और मेरी पूजा जो करते हैं वे मुझे प्राप्त करते हैं / अब देखिये गीत श्लोक – 8.16 की दूसरी पंक्ति को जो इस प्रकार है … .. माम् उपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न् विद्यते // वह जो मुझे प्राप्त करता है उसका पुनर्जन्म नहीं होता इस श्लोक को समझनें के लिए दो बातों को समझना चाहिए ------ [ क ] पूजा क्य है ? [ ख ] पुनर्जन्म का न होना क्या है ? पूजा क्य है ? साकार से निराकार में जो पहुंचा कर परमानंद की अनुभूति में डुबो कर रखे , वह है पूजा / Pooja is an endless journey which starts from manifest and takes into unmani

मित्रता और संदेह

मित्रता और संदेह मित्रता और संदेह एक साथ एक समय एक मन – बुद्धि में नहीं राह सकते / जहाँ मित्रता है वहाँ संदेह नहीं और जहाँ संध है वहाँ मित्रता की एक किरण भी नहीं हो सकती / गीता का आधार है अर्जुन का मोह ; अर्जुन जिनके खून के प्यासे थे और पूरी तैयारी के साथ कुरुक्षेत्र में पधारे थे , जब उनको वहाँ देखते हैं तब उनके अंदर बह रही ऊर्जा की दिशा बदल जाती है और कामना मोह में बदल जाती है / अर्जुन के परम मित्र हैं प्रभु सांख्य – योगीराज श्री कृष्ण जो उनके रथ के सारथी भी हैं / प्रभु जब अर्जुन को युद्ध प्रारम्भ होनें के चंद क्षणों के पहले मोह में डूबते हुए देखते हैं तब उनको वे सभीं युक्तियाँ दिखती हैं जिनका सीधा सम्बन्ध है मोह – मुक्ति से / गीता का अर्जुन गीता के अंत तक प्रभु का मित्र नहीं कहा जा सकता क्योंकि गीता में आखिरी अध्याय [ अध्याय – 18 ] के प्रारम्भ में भी प्रश्न कर रहा होता है / गीता का अर्जुन प्रभु का मित्र तो नहीं है लेकिन प्रभु उसे मोह से निकाल कर यह उसे जरुर स्पष्ट कर देते हैं की , देख तूं मेरा मित्र था और अब भी है जब तूं मोह – मुक्त है /

प्यार परम प्रकाश की एक किरण है

प्यार में बसना तो सभव है लेकिन समझना असंभव कथा - 02 च्वांगत्सू लावोत्सू के शिष्य थे और जंगलमें एक कुटिया बना कर अपनी पत्नी से साथ रहते थे / च्वांगत्सू की पत्नी एक दिन प्राण त्याग दिया और यह समाचार पूरे राज्य में आग की भांति फै गया और उस राज्य का राजा च्वांगत्सू से मिलनें जंगल पहुचे / च्वांगत्सू के झोपड़े के सामनें कुछ कोग उपस्थित थे और जब राजा के आनें की खबर उन लोगों को मिली तो वे लोग तैयारी में लग गए / राजा रास्ते भर यह सोचता रहा कि वहाँ जा कर हमें किस तरह से अपना दुःख प्रकट करना होगा ? हमें क्यों न अब च्वांगत्सू जी को अपनें राज भवन में रहनें का निमंत्रण देना चाहिए ? राजा जब झोपड़े के सामनें पहुंचे तो लोग उनका अभिबादन किया / राजा अपनें घोड़े से उतर कर पूछा , “ कहाँ हैं गुरूजी ? “ वहाँ एक सज्जन राजा को पास में स्थित एक झाड के पास ले गए जहाँ च्वांगत्सू अपनी आँखों को बंद किये , एक छोटा सा वाद्य – यंत्र बजा कर कुछ गा रहे थे / राजा के आनें की खबर उनको दी गयी और वे आँखे खोले और अभिवादन किया एवं साथ में बैठनें का इशारा भी किया / राजा उनको देख कर घबडा गए और

मित्रता और प्यार

प्यार को देखो , समझना तो संभव नहीं कथा - 01 इस कथा का सम्बन्ध फ़्रांस के एक गाँव से हैं / गाँव के दो बच्चे जो एक दूसरे के प्यारे मित्र थे यह विचार कर गाँव से शहर की ओर एक दिन चल पड़े कि चलते हैं शहर क्या पता वहाँ हमें अपनी इच्छा के मुताबिक़ आगे चलनें का मौक़ा मिल सके / कई दिनों की पैदल यात्रा के बाद वे शहर पहुंचे और एक पत्थर तोड़ने की कंपनी में उनको पत्थर तोडने का काम मिल गया / कुछ दिन काम करनें के बाद एक दिन दोनों मित्र आपस में सोच रहे थे कि भाई ! ऐसे कैसे काम बनेंगा हमसब को तो चित्रकार बनाना है ? एक मित्र बोला , ऐसा करते हैं , मैं तो यहाँ इस पहाड़ पर काम करता रहता हूँ और तुम शहर में जा कर चित्रकला का प्रशिक्षण लो , मैं कमा - कमा कर तुमको पैसा भेजता रहूंगा और जब तुम एक कुशल कलाकार बन जाना तब मैं भी चित्रकला सीख लूंगा / कोई निर्णय नहीं ले पा रहे थे ; दोनों एक दूसरे के लिए पत्थर तोडना चाहते थे आखिरकार एक को शहर में जा कर चित्र कला सीखना ही पड़ा / धीरे - धीरे समय गुजरता गया और कई सालों के बाद शहर गया मित्र एक बहुचर्चित चित्रकार बन कर वहाँ उस पहाडी पर अपनें मित्र से मिलनें आया / दोनों मित

कर्म फल की सोच का त्याग

गीता श्लोक – 18.6 एतानि अपि तु कर्माणि संगम् त्वक्त्वा फलानि च कर्तब्यानि इति में पार्थ निश्चितं मतं उत्तमम् प्रभु इस सूत्र के माध्यम से अर्जुन को बता रहे हैं ---- सभीं कर्मों जैसे यज्ञ , तप , दान एवं अन्य सभीं कर्मों के करने के पीछे आसक्ति एवं फल की सोच की ऊर्जा नहीं होनी चाहिए / प्रभु कह रहे हैं … ... अर्जुन मनुष्य से जो कुछ भी होता है उसके होनें के पीछे कोई करण नहीं होना चाहिए जैसे आसक्ति एवं कर्म – फल की सोच / क्या है आसक्ति ? इन्दियाँ जब अपनें - अपनें बिषयों में पहुंचती है तब मन उन – उन बिषयों पर मनन करनें लगता है और मनन के पीछे जो ऊर्जा होती है वह तीन गुणों में से किसी एक गुण की होती है ; जो गुण प्रभावी होगा उस समय मन वैसा मनन करेगा / मनन से मन में जो ऊर्जा बनती है उसे कहते हैं आसक्ति ; आसक्ति की ऊर्जा में चुम्बकीय शक्ति होती है जो बिषय को नजदीक खीचना चाहती है और तब कामना उत्पन्न होती है / कामना की सघनता ही संकल्प है और कामना का टूटना क्रोध की ऊर्जा पैदा करता है / क्रोध अग्नि है जो मनुष्य को राख बना कर भी चैन नहीं लेता /

गीता संकेत - 55

कर्म फल की सोच और गीता यहाँ हम गीता में उन श्लोकों से अपना परिचय बना रहे हैं जिनका सीधा सम्बन्ध है कर्म फल की सोच / ऐसा कौन होगा जो कर्म करनें से पहले उसके फल के सम्बन्ध में न सोचता हो ? संभवतः इस संसार में कोई हो या न हो लेकिन गीता का श्री कृष्ण सांख्य – योग राज जरुर इस तरह के योगी हैं / आइये देखते हैं प्रभु श्री कृष्ण के इस श्लोक को जिसका सम्बन्ध कर्म – कर्म फल की सोच से है / गीता श्लोक – 18.2 काम्यानां कर्मणाम् न्यासम् संन्यासम् कबयः विदुः सर्वकर्मफलत्यागं प्राहु : त्यागं विचक्षणा : पंडितजन काम्य कर्मों के त्याग को संन्यास समझते हैं एवं अन्य विचार कुशल अनुभव युक्त ब्यक्ति सभीं कर्मों के फल के त्याग को त्याग कहते हैं // काम्य कर्म क्या हैं ? काम्य शब्द काम से है और काम को सभी समझते हैं / गीता में अर्जुन का एक प्रश्न है [ गीता श्लोक – 3.36 ] - अर्जुन जानना चाहते हैं ----- मनुष्य न चाहते हुए भी पाप कर्म क्यों करता है ? और उत्तर के रूप में प्रभु कहते हैं [ गीता श्लोक – 3.37 ] ------ काम का सम्मोहन मनुष्य को हठात् पाप करवाता है / फ्राइड कहते