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Showing posts from December, 2009

तंत्र और योग --9

मूलाधार चक्र [The first centre ] क्या है ? तंत्र-विज्ञानं में मुख्यरूप से सात चक्रों की बात मिलती है और वे चक्र इस प्रकार हैं------ [क] मूलाधार [ख] स्वधिस्थान [ग] मणिपुर [घ] अनहद [च] अवन्तिका [छ] अजाना [ज] सहत्रार इन सात चक्रों की गणित का नाम, तंत्र है और इन से आत्मा देह के साथ अपना सम्बन्ध बनाए हुए है । मूलाधार चक्र मूलाधार चक्र रीढ़ की हड्डी के अंत में मल -इन्द्रिय के साथ होता है । यह ऊपर की ओर जनन इन्द्रिय से और नीचे की ओर दोनों पैरों से जुड़ता है । कुछ लोग इसकी तुलना हरिद्वार से करते हैं और यह बात अपनें में सच्चाई को भी धारण किये हुए है । कहते हैं , मूलाधार जब सक्रीय होता है तब वह मनुष्य परमात्मा की ओर अपना रुख करता है । मूलाधार चक्र परम प्रीती की ऊर्जा पैदा करता है लेकीन जब यह ऊर्जा ऊपर चलती है और जनन-इन्द्रिय को छूती है तब इसमें गुणों का प्रभाव आजाता है और यह निर्विकार उर्जा विकारों से भर जाती है । आप हरिद्वार गए तो होंगे ? हर की पौड़ी पर भी स्नान किये होंगे लेकीन हर की पौड़ी पर खडा होनें पर आगे बाए तरफ एक बिशाल शिव की मूर्ती है , उसको आप नहीं देख पाए होंगे ?यह मूर्ती आप को सीध

तंत्र और योग ---8

तंत्र को आप यदि समझना चाहते हैं तो देखिये -------- [क] कोणार्क का मंदिर । [ख] खजुराहो के मन्दिर । [ग] अजन्ता-अलोरा की ललित कला और मूर्तियाँ । [घ] एलिफंता केव की मूर्तियाँ । [च] 12 ज्योतिर्लिन्गम । [छ ] 51 शक्ति पीठ । भारत में प्राचीनतम साधना श्रोतों में ज्योतिर्लिन्गम और शक्ति पीठों का नाम आता है और अन्य लगभग 250 BCE से 250 CE के मध्य की होनें की कही जा सकती हैं । खजुराहो के मंदिरों का निर्माण चंदेला राजाओं द्वारा लगभग 1200 CE के आस-पास कराया गया था । भारत में साधना श्रोतो में तंत्र अति प्राचीनतम माध्यम है इस बात को नक्कारा नहीं जा सकता लेकीन धीरे- धीरे इसको लोग ढकनें लगे और आज यह परम श्रोत जादू-टोना का बिषय बनकर दब चुका है । त्रेता-युग में राम-रावण युद्ध सीता के लिए हुआ , द्वापर का महाभारत युद्ध द्रोपती के लिए हुआ और आज कलियुग में आप प्रति दिन समाचार पत्रों में पढ़ते ही होंगे और यदि इस सम्बन्ध में गीता में परम श्री कृष्ण की बात को देखें -गीता श्लोक [ 3.37- 3.42 तक ] तो आप को आश्चर्य होगा की आज जो कुछ भी हो रहा है उस बात को गीता आज से हजारों वर्ष पूर्व में कह चूका है । गीता में परम

तंत्र और योग ---7

कुण्डलिनी और मूलाधार चक्र तन-मन से जो निर्विकार करे वह योग है और ----- कुण्डलिनी से चेतना और चेतना से ब्रह्म की अनुभूति तंत्र से मिलती है । तंत्र कहता है ----- सूक्ष्म शरीर [ आत्मा] स्थूल देह से चक्रों के माध्यम से जुड़ा होता है और योग कहता है [गीता-14.5 ] ----- आत्मा को देह में तीन गुण रोक कर रखते हैं । तंत्र में सात चक्रो की साधना करनी होती है और योग में काम,कामना, क्रोध, लोभ, मोह,भय,अहंकार - सात गुण-तत्वों की साधना होती है , तंत्र और योग में क्या मौलिक अंतर है ?...आप सोचना । मूलतः मूलाधार का सक्रीय होना , कुण्डलिनी जागरण है जिसके फल स्वरुप गुण तत्वों की पकड़ कमजोर पड़ती है और चेतना का फैलाव होता है । यह स्थिति वह है जब परम प्यार की लहर फैलनें लगती है । कुण्डलिनी के नाम पर आज अनेक मार्ग हैं जो कुण्डलिनी जागृत करानें की कोशीश कर रहें है लेकीन यहाँ आप एक बात को अच्छी तरह से समझलें ----- जो कुण्डलिनी की गणित में उलझता है वह कुछ नहीं प्राप्त करता और जो गंगा-धारा की तरह योग में बह रहा है उसे सब कुछ बिना खोजे मिल जाता है । योग या तंत्र में , फल की कामना एक अवरोध है । ====ॐ====

तंत्र और योग ---6

तंत्र कहता है ----- ब्रह्म की राह पर चलना है तो पहले काम को समझो और गीता कहता है ---- काम का रूपांतरण क्रोध है जिसका सम्मोहन मनुष्य को पाप -कर्म के लिए प्रेरित करता है । काम राजस गुण का प्रमुख तत्त्व है और राजस गुण प्रभु के मार्ग का सबसे बड़ा अवरोध है । गीता में काम के सम्बन्ध में 11 श्लोक हैं जिनकी साधना निर्विकार काम तक पहुंचा सकती है [गीता -7.11] और तब प्रभु के मार्ग पर चलना सुगम हो जाता है । काम से भागना संभव नहीं और काम को समझना भी आसान नहीं , इसको समझनें के लिए निरंतर अभ्यास करनें की आवश्यकता है जो ध्यान या योग से संभव है । तंत्र कहता है ------- तुम जैसे हो उसे स्वीकारो बिना किसी दबाव के और योग कहता है ------ तुम जैसे हो उसे जानों । भोग से हम पैदा होते हैं , भोग में हमारा जीवन आगे सरकता दिखता है और हम सारा जीवन भोग -साधनों की खोज में गुजारते हैं लेकिन हमें इस लम्बी दिखनें वाली जिन्दगी में मिलता क्या है ?...केवल तन्हाई और कुछ नहीं । क्यों हमारे माथे पर आया पसीना कभी सूखता नहीं ? अष्टाबक्र कहते हैं ----- बासनाओं के बिषय को तुम बार-बार बदल कर स्वयं को महान ग्यानी होनें की बात सोचत

तंत्र और योग ---5

शिव-शक्ति पुरुष[male]-स्त्री [female] चेतना - कुण्डलिनी स्त्री-पुरुष के सहयोग से जब तंत्र साधना की जाती है तब एक विशेष बात पर ध्यान रखनें की जरूत होती है । दो में से एक की ऊर्जा निर्विकार - उर्जा होनी चाहिए , जिसके ऊपर गुणों का असर न हो । काम भाव का द्रष्टा होना , तंत्र - साधना है , यह साधना बहुत कठिन साधना है , अधिकांश साधक इस साधना को पुरी नहीं कर पाते और साधना का प्रतिकूल असर उनके जीवन को नरक बना देता है । स्त्री-पुरुष की उर्जायें आपस में मिल कर , निर्विकार हो कर मूलाधार चक्र को जागृत करती हैं , फल स्वरुप कुण्डलिनी जागृत होती है और चेतना का फैलाव होनें लगता है । चेतना ऊपर की ओर उठती है , ऊपर जब यह ह्रदय को छूती है तब बासना प्यार में बदल जाती है जहां गुणों का कोई प्रभाव नहीं होता । जब तक चेतना का फैलाव तीसरी आँख तक नहीं पहुंचता त्तब तक गुणों की पकड़ का असर रह सकता है, आज्ञा चक्र से आगे , साधना का मजबूत अवरोध अहंकार होता है , जो अहंकार को न जीत पाया वह पुनः भोग में गिर जाता है । तंत्र में स्त्री - पुरुष उर्जाओं का संगम वह है जहां न तो स्त्री-ऊर्जा होती है न ही पुरुष-ऊर्जा , वहाँ जो

तंत्र और योग - 4

राधे-कृष्ण सीता - राम शिव- पार्वती आप और हम सभी लोग इन नामों से परिचित भी हैं । हम लोग इन मंदिरों में जाते भी हैं । क्या हम लोगों के बुद्धि में कभी यह सवाल आया की क्यों ----- राम एवं कृष्ण के पहले सीता एवं राधा का नाम लिया जाता है ? और क्यों शिव के बाद पार्वती का नाम आता है ? हमारा काम है आप में सोच की एक नयी लहर को पैदा करना , न की ऐसे प्रश्नों पर तर्क करना। आप मुझसे अधिक समझदार हैं और आप की सोच आप को तृप्त करेगी और जो मैं कहूंगा उस से आप के बुद्धि में प्रश्न उठ सकते हैं अतः ऊपर की बातों पर आप स्वयं सोचें तो अच्छा रहेगा । मनुष्य एक मात्र ऐसा जीव है जो भोग-भगवान् में भ्रमण करता है , कभी वह घर बनवाता है तो कभी मंदिर , बस इस दौड़ में जीवन पूरा हो जाता है और न उसकी मंदिर की दौर पुरी हो पाती है और न वह कभी घर में तृप्त रहता है । भोग हो या भगवान् दोनों की सोच मन से उठती है , मन एक समय में दो पर विचार नहीं कर सकता , यह मन की अपनी सीमा है और मन के इस स्वभाव के कारण मनुष्य द्वैत्य में उलझ कर रह जाता है । जब तक मन एक पर केन्द्रित नहीं होता तब तक वह मनुष्य अतृप्त ही रहेगा । जीवन एक दरिया है जो

तंत्र और योग ---3

तंत्र ध्यान विधि --1 तंत्र कहता है ----- प्राण वायु एवं अपान वायु के अंतराल में अपनी उर्जा केन्द्रित करो । गीता इस ध्यान विधि को अपनें श्लोक 4.29 - 4.30 में बताता है मात्र शब्दों में फर्क है । तंत्र एवं गीता की यह ध्यान -विधि किस तरह से संभव है ? मनुष्य का संपर्क संसार से पांच ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से है , मन-बुद्धि में बहनें वाली ऊर्जा तन के माध्यम से इन्द्रियों तक पहुंचती है यहाँ इस उर्जा - संचार का माध्यम है - तन और इन्द्रियों से बिषय तक इस ऊर्जा का कोई माध्यम नहीं होता ,यह संचार , विकिरण [radiation] से होता है । मन में जो विचार उठते हैं उनके उठनें में इन दो तरीकों का योग दान होता है । मनसे बिषय के जुडनें में उर्जा का बहाव अन्दर से बाहर की ओर होता है और ध्यान में ऊर्जा का बहाव बाहर से अन्दर की ओर हो जाता है , भोग एवं योग में उर्जा के बहाव की यह गणित है । तंत्र एवं गीता कहते हैं ------ प्राण-अपांन वायुओं के अंतराल में अपनी ऊर्जा को केन्द्रित करो --प्राण वायु वह श्वास है जिसको हम अन्दर लेते हैं और अपांन वायु वह श्वास है जिसको हम बाहर निकालते हैं - अब आप सोचिये की इनका अंतराल

तंत्र और योग --2

सराह , मारपा , तिलोपा , नागार्जुन,मिलरेपा, करमापा जैसे अनेक साधकों को तंत्र से वह मिला जो ----- आदि गुरु शंकराचार्य , परमहंस रामकृष्ण , कबीर आदि को मिला । रात-दिन,सुख-दुःख,बुरा-भला,विकार-निर्विकार,हाँ-ना पर जिनकी नजर टिकी हुयी है उनसे शून्यता कोसो दूर रहती है और शून्यता तंत्र का फल है । अब आप इस बात पर सोचें --- रात का समापन हो रहा है और दिन आनें को तैयार है .... दिन का समापन हो रहा है और रात आनें को तैयार है ... इन दोनों अवस्थाओं के मध्य में जो है वह क्या है ?----यह बात तंत्र बताता ही नहीं दिखाता भी है । एक शब्द है - संध्या जिसको ध्यान एवं योग के लिये उत्तम माना गया है और जो ऊपर बतायी गयी दो बातों का मध्य है । गीता जिसको समभाव कहता है तंत्र उसको शून्यता कहता है जो अद्वैत्य है । जिस बुद्धि से यह प्रश्न उठाता है --परमात्मा है या नहीं है ? उस बुद्धि में इस प्रश्न का उत्तर नहीं समा सकता, प्रश्न के समय जो बुद्धि होती है उसका नाम गीता में अनिश्चयात्मिका बुद्धि है और जिस बुद्धि से उसका उत्तर ग्रहण किया जाता है, उसको गीता निश्चयात्मिका बुद्धि कहता है । महान वैज्ञानिक एल्बर्ट आइन्स्टाइन

तंत्र [Tantra ] और योग[Yoga ]

आज शंकराचार्यों से लेकर अन्य बहुचर्चित धार्मिक संतों द्वारा तंत्र पर लेख लिखे जा रहे हैं जबकि ----- आस्तिक एवं नास्तिक बर्गों में तंत्र का नाम तक नहीं है ----ऐसा क्यों ? हिन्दू मान्यता में आस्तिक वर्ग में निम्न को रखा गया है ----- [क] वैशेशिका [ख] पूर्ब मीमांसा [ग] वेदान्त [घ] योग [च] साँख्य [छ] न्याय और नास्तिक बर्ग में हैं ----- [क] जैन मत [ख] बुद्ध मत [ग] चार वाक् अब आप को समझना है की यहाँ तंत्र कहाँ है ? आज संकर जाती का बोल -बाला है , संकर जाती की सब्जियां मिलती हैं ,संकर जाती के अन्य खाद्य पदार्थ बाजार में उपलब्ध हैं और संकर नश्ल का संगीत लोगों को पसंद आ रहा है और इस जबानें में ध्यान -योग का भी संकर नश्लें उपलब्ध हैं . भारत भूमि पर प्राचीनतम तीर्थों का सम्बन्ध jyotirlingam एवं शक्ति पीठों से है और इन दोनों का सम्बन्ध शिव से है जिनको तंत्र का मूल माना जाता है । शिव को तो परम त्रिदेव में मानकर यहाँ पूजा जा रहा है और इनकी उपज - तंत्र को लोगोंनें फेक दिया ---यह है धर्म के नाम पर राजनीति । मेरी उम्र 60 साल की है और मैं वाराणसी के पास का रहनें वाला हूँ जिसको शिव-नगरी कहते हैं

अकेलापन-2

उजाले अपनी यादों के साथ रहनें दे , न जाने किस गली में जिन्दगी की साम आजाये । कबी साधारण ब्यक्ति नहीं है , उसे उजाले और अँधेरे दोनों का अनुभव है । कबी उजाले को छोड़ कर रहना नहीं चाहता लेकिन बेबश है , कुछ कर नहीं सकता । यह कबी किस स्थिति में रहा होगा इस बात को देखते हैं --------- [क] कबी जबतक किसी के उजाले में था उसकी आँखें बंद रही होंगी और जब उजाले का श्रोत उस से दूर हो रहा है तब उसे यह पता चल रहा है की इसके बाद क्या मिलेगा ? [ख] कबी उजाले में रहते हुए अपनी आँखों को खोल कर रखा होगा लेकिन उसनें कभी सोचा भी न होगा की एक दिन उसे अँधेरे में रहना पड़ेगा । कबी स्मृती में रहना पसंद करता है और सांख्य- योग में स्मृति एक बंधन है । स्मृतिमें रहना अज्ञान है जो अँधेरा है और उजाला , ज्ञान है जो सत राह पर ले जाता है । इस कबी का क्या हुआ होगा ? - क्या वह अंधेरे में दम तोड़ गया होगा या अँधेरे का अनुभव उसे उजाले में पहुंचा दिया होगा ? स्मृति किस की होती है ? जो संग-संग रहा हो , जो सुख-दुःख में कंधे से कन्धा मिलाकर चला हो और हर पल साथ दिया हो । स्मृति में कदम रखनें की घडी वह सोचता है की उसका साथी उस से एक क

अकेला पन क्या है ?

अकेलापन और घबडाहट का नजदीकी सम्बन्ध है । जो अपनें अकेलेपन से लड़ते हैं , उनका जीवन नरक की ओर जाता है ... और जो अपनें अकलेपन से दोस्ती बनालेते हैं , वे हर पल मुस्कुराते रहते हैं । जब कोई अपना अपनें से दूर होने लगता है तब अकेलेपन का एह्शास होता है और यह घबराहट पैदा करता है । जब मन उलझन से मुक्त होता है तब घबराहट होती है क्यों की मन का स्वभाव है , उलझनों में रहना । अकेलापन दो तरह का होता है ; तन से और मन से । तनके अकेलेपन का तो इलाज है लेकिन मन के अकेलेपन का इलाज कुछ कठिन है । तन के अकेलेपन वाले की यात्रा छोटी होती है , जल्दी उसका अकेलापन दूर हो जाता है लेकिन मन के अकेलेपन वाले के लिए लम्बी यात्रा करनी पड़ती है । तन का अकेलापन मन के अकेलेपन का द्वार बन सकता है और मन का अकेलापन तन से मित्रता स्थापित कर सकता है । जब तन का अकेलापन मन के अकेलेपन का द्वार बनता है तब वह ब्यक्ति स्वयं को अकेला नहीं पाता वह खुश रहता है और जब मन का अकेलापन तन की तलाश करता है तब घबराहट होती है और ऐसा ब्यक्ति खुश नहीं रह पाता । तन का अकेलापन मन में एक खोज पैदा करता है और यह खोज भोग की होती है जिस से संसार में ब्याप्त

गंगा जल से समाधि तक --6

प्रयाग का संगम क्या है ? यमुना और गंगा लगभग एक क्षेत्र से चलती हैं लेकिन यमुना धीरे -धीरे गंगा से दूर होनें लगती है लेकिन इस का अलगाव ज्यादा समय का नहीं होता अंततः यह प्रयाग में संगम पर स्वयं को गंगा को समर्पित कर देती है । संगम क्या है ? संगम वह है जहां न तो दिन है न रात .... संगम वह है जहां न सुख है न दुःख ....... संगम वह है जहां न तन है न मन ............ संगम वह है जहां न गंगा है न यमुना ...... संगम वह है जहाँ न भोग है न बैराग ..... संगम वह है जहां एक किरण है जो ह्रदय में वह ऊर्जालाती है जिससे जो भाव भरता है वह अब्यक्तातीत होता है । हिमालय से प्रयाग तक की यमुना - गंगा की यात्राओं में यमुना की यात्रा लम्बी यात्रा है और गंगा की यात्रा छोटी है । जैसे एक अहंकारी ब्यक्ति अपनें जीवन में खूब भागता है और जब थक जाता है तब गीता उठाता है , स्वयम को प्रभु को समर्पित करता है और अपनें इस काम से वह धन्य हो उठता है वैसे जमुना भी प्रयाग में पहुँच कर नत मस्तक हो कर गंगा को समर्पित हो जाती है और उसका यह समर्पण उसे गंगा बना देता है । २०वी शताब्द के मध्य में अमेरिका में थे एक भारतीय योगी - स्वामी योगान

गंगा जल से समाधी तक --5

हमें पीछे चलनें का गहरा अभ्यास है , और पीछे चलनें वाला कभी औअल नहीं बन पाता, औअल बननें वाला पीछे नहीं चलता । लोगों की चाल देखते -देखते हम अपनी चाल कब और कैसे बदल लेते हैं , हमें पता तक नहीं चल पाता,लेकिन जो अपनी चाल को समझ कर चलता है उसकी यात्रा सरल एवं सुखद होती है । भारत के मानचित्र पर आप नदियों के मार्ग को देखें और यह देख कर आप हैरान हो उठेगें की उन नदियों में गंगा का मार्ग सीधा और कम उतार-चढाव वाला है , गंगा का मार्ग ऐसा है जैसे राज मार्ग हो जैसे कोई गणित का आदमी कागज़ पर बनाया हो , इसे कहते हैं सम-भाव का मार्ग जहां न खुशी हो और न गम हो , जो है वह उत्तम है । कैलाश , मानसरोवर , काशी, प्रयाग , गंगोत्री , चार धाम आदि की यात्रा किया हुआ ब्यक्ति जब आखिरी श्वाश भरनें अगता है तब उसके मुख में गंगा जल की दो बूंदे क्यों डाली जाती हैं ? कैलाश से गंगा सागर तक की यात्रा से उस ब्यक्ति को क्या मिला , यदि मिला होता तो अंत समय में दो बूंदों की जरुरत क्यों पड़ती ? वह ब्यक्ति भागा तो खूब लेकिन लेकिन उसके भागनें के पीछे कुछ और था , उसनें एक बार नहीं अनेक बार गंगा में स्नान किया होगा , अनेक बार

गंगा जलसे समाधि तक ---4

ऋषिकेश से हरिद्वार तक और ..... प्रयाग से काशी तक की यात्रा आप को जब भी मौका मिले आप जरुर करे । पूनम की रात हो , आप अकेले ऋषिकेश से हरिद्वार की यात्रा नाव के माध्यम से कर रहें हो तो उस यात्रा में जो आनद आप को मिलेगा वह अब्यक्त होगा लेकिन लेकिन आप को हर पल गंगा में रहना होगा , तन एवं मन से । गंगा के शांत जल में उतरा चाँद आप को कह रहा होगा ...... लो ! तुम तो कभी मेरे पास आने के लिए सोचा न होगा लेकिन मैं तेरे पास आ गयी हूँ , तेरे को उस से मिलानें के लिए जिस से मेरा और तेरा होना है । ऋषिकेश में गंगा -जल क्यों शांत है , उसका शांत रहना हमें क्या संकेत देता है ? ऋषिकेश तपो भूमि है और गंगा तप का माध्यम , तप-उर्जा में तप-माध्यम का शांत रहना प्रकृति का नियम है । ऋषिकेश पर्यटक केंद्र नहीं है यह ध्यान -उर्जा का ब्लैक - होल [black hole ]है जो श्रद्धा से भरे ब्यक्ति को अपनें में खीच लेती है ,वह बच नहीं सकता , कोई बचनें का रास्ता नही । ऋषिकेश-हरिद्वार मार्ग परम धाम के मार्ग को दिखाता है और प्रयाग से काशी का मार्ग बैराग्य में पहुंचाता है । ऋषिकेश-हरिद्वार मार्ग हिमालय से गंगा में उतरता एक ओंकार आप को

गंगा जल से समाधि तक --3

नासा एवं इसरो [NASA and ISRO]के वैज्ञानिक कह रहे हैं की सन 1780 से गंगोत्री ग्लेसिअर सिकुड़ रहा है । न्यूटन [ 1642-1727] से आधुनिक विज्ञानं अपना पंख फैला रह है और जैसे-जैसे विज्ञानं का पर फ़ैल रहा है , वैसे-वैसे गंगोत्री सिकुड़ रही है ,ऐसा क्यों हो रहा है ? इस बात पर हम- आप सब को सोचना चाहिए । उन्नीसवी शताब्दी तक विज्ञानं का बचपन था और अब दिन प्रति दिन विज्ञानं जवान हो रहा है और इस जवानी के आलम में क्या हो रहा है , उस पर भी एक नजर डालते हैं ------ पृथ्वी अन्दर से खाली हो रही है और ऊपर से गंजी हो रही है । पहाड़ों को काटा जा रहा है । आज जो पहाड़ नदियों का मार्ग निर्धारण कर रहे हैं उनको झील में बदला जा रहा है । जंगल समाप्ति पर हैं । जीव जंतुओं का अस्तित्व खतरे में है । संकर बीज, संकर बनस्पतियां एवं संकर पशु पैदा किए जा रहे हैं । संकर जाति के मानव पैदा हो रहे हैं । अब आप सोचिये की इनसे पृथ्वी का अस्तित्व कितना मजबूत है और मानव सभ्यता का भविष्य किधर जा रहा है ? गंगा विज्ञान के समय में क्यों सिकुड़ रही है ? इस बात के सदर्भ में गंगा की यात्रा करते हैं । गंगोत्री से प्रयाग तक की गंगा पर

गंगा जल से समाधी ---2

आए दिन आन्दोलन हो रहे हैं , इस बात पर की गंगा को साफ़ करो । भारत में धर्म के नाम से जितनी संस्थाएं हैं उनके पास जितना धन है शायद उतना धन सरकार के पास भी न हो , संस्थाओं के धन से एक क्या दस गंगा निर्मल की जा सकती हैं लेकिन कौन पैसा खर्च करे , पैसे की पकड़ योग से भोग में उतार ले आती है । विज्ञानं के पास अभी टाइम स्पेस का केन्द्र नहीं है लेकिन इक्कीसवीं शताब्दी में बिश्व का केन्द्र धन है । [क] हिंदू ब्यवस्था में मनुष्य की अस्थियाँ गंगा में प्रवाहित की जाती हैं । [ख] भारत सरकार का बैज्ञानिक अनुशंधान- केन्द्र --Toxicological Institute, Luchnow का कहना है .... गंगा में डाला गया आर्गेनिक पदार्थ कुछ किलो मीटर यात्रा करनें के बाद गंगा में अपना अस्तित्व खो देता है । गति एक मात्रऐसा तत्त्व है जिसके आधार पर सजीव - निर्जीव को जाना जाता है , लेकिन विज्ञानं में गति रहित कोई सूचना नहीं है -- एक क्वार्क से गलेक्सी तक सब गति में हैं अर्थात अप्रत्यक्ष रूप में विज्ञानं में निर्जीव कोई भी चीज नहीं है । भारत में हिंदू लोग कहते हैं --- कण-कण में भगवान है और भगवन निर्जीव हो नहीं सकता । विज्ञानं और गीता कहत

क्या है सच ?

[क]....तन्हाई में डूबा , माथे से टपकते पसीनें को पोछ-पोछ कर जीनें वाला जो कुछ भी करता है , उस से उसे जो कुछ भी मिलता है ,वह उसे पुरी तरह से तृप्त नहीं कर पाता---क्यों ? [ख]....थोड़ा सा श्रम , थोड़ी सी समझ एवं मुस्कुराते भाव में डूबा अपने कर्म से जो कुछ भी पाता है , वह उसे तृप्त कर देता है ---क्यों? ऊपर दो बातें आप के सामनें रखी गयी हैं जिनका अपना - अपना आयाम है । पहली बात धन होगा , दौलत होगी , महल होगा ,नौकर -चाकर होंगे और मान -सम्मान होगा लेकिन मुस्कुराता चेहरा और चैन न होंगे ....क्यों? दूसरी बात न धन होगा , न अच्छा घर होगा , न नौकर- चाकर होंगे और समाज में न मान -सम्मान होगा लेकिन वह ब्यक्ति खुश होगा और तृप्त होगा ....क्यों ? ऐसा ब्यक्ति गुनगुनाता रहता है ----- हे प्रभु! मैं तो ऐसा कुछ किया भी न था और तूनें यह सब बिन मांगे दे दिया , मैं कैसे तेरे को धन्यबाद दूँ ? अब देखिये एक सत्य कथा एक आदमी - बिचारा बारह बर्षों तक एक कोयले के टूकडे को अपनें सीनें पर लटकाए रहा , वह समझता था की यह हीरा है । एक दिन उसका एक परम मित्र उसके पास आया , कुछ दिन उसके साथ था , एक दिन वह मित्र पूछ बैठा -------

गंगा जल से समाधि तक -----1

भोग से योग की यह आप की यात्रा मंगलमय रहे । गीता में परम श्री कृष्ण कहते हैं -------- नदियों में गंगा [ गीता-10.31 ], स्थिर रहनें वालो में हिमालय [गीता-10.25 ], जलाशयों में समुद्र [गीता - 10.24] , छंदों में गायत्री [गीता-10.35] और वेदों में एक ओंकार [ॐ], मैं हूँ । सागर से सागर तक की यह गीता-यात्रा आप जहाँ से चाहें वहाँ से प्रारम्भ कर सकते हैं । भोग से योग की इस यात्रा में हिमालय की उच्च चोटी से गंगा में उसकी धारा में गायत्री की छुपी हुयी ध्वनी के सहारे सागर की परम शून्यता जो ध्वनी रहित ध्वनी - एक ओंकार है उस तक पहुचना ही गीता की साधना है । गायत्री क्या है ? वह धुन जो वहाँ पहुंचा दे जहाँ परम शून्यता है , वह गायत्री है ; जिसको जपते-जपते जप करनें वाला कब और कैसे अजप की स्थिति में पहुंचता है , का नाम गायत्री है । गायत्री का आप कुछ दिन जाप करें और जाप करनें के पहले बिचार रहित यदि हो सकें तो उत्तम होगा । आप का कुछ दिनों का यह जाप आप को बताएगा की गायत्री क्यों छंदों का छंद है जिसका अर्थ तो कुछ भी नहीं होता , लेकिन यह आप को छंद के उस स्थान पर पहुंचा देगा जहाँ से सभी छंद पैदा होते हैं । गायत्र

भ्रम और भ्रमण

गीता श्लोक 8.6 कहता है ------ जीवन में जो गुण प्रभावी होता है एवं मनुष्य जिस गुण के भाव से भावित रहा होता है , अंत समय में वही भाव उस पर छाया होता है । यह भाव उस मनुष्य के अगले जन्म का आधार होता है । बार - बार जन्म लेनें का कारन है , मनुष्य के वर्तमान जीवन में अतृप्त रहना । गीता श्लोक 15.8 कहता है ------ आत्मा जब स्थूल शरीर छोड़ता है तब उनके संग मन-इन्द्रियाँ भी रहती हैं तथा श्लोक 10.22 कहता है --- इन्द्रियाँ मन का फैलाव हैं । गीता के ये दो श्लोक एक अध्याय आठ का और दूसरा अध्याय पन्द्रह का , क्या बताना चाहते हैं ? गीता कहता है ----सभी भावों का श्रोत परमात्मा है , परमात्मा गुनातीत है और गुणों के भावों में परमात्मा नहीं होता । जो मनुष्य गुणों को समझ लेता है और उनसे प्रभावित नहीं होता वह गुनातीत योगी है एवं परमात्मामय होता है [ गीता- 7.12--7.15 ] और ऐसे योगी का पुनः जन्म नहीं होता , वह आवागमन से मुक्त हो जाता है । वर्तमान में हमारा जन्म हमारे पूर्व जन्म की अत्रिप्ताओं का फल है , पिछले जन्म में हम जो करना चाहते थे वह कर नहीं पाए अतः हमें दुबारा जन्म एक अवसर के रूप में मिला हुआ है , इस अवसर

क्या अपना संसार भय का है ?

जरा सोचना ------ कामना में भय , क्रोध में भय , काम में भय , अहंकार में भय और मोह भय साथ-साथ रहते ही हैं तो क्या ----- यह संसार जिसके हम सम्राट हैं , वह भय का सागर है ? एक भारतीय महिला जिसका जन्म अब से पचास वर्ष पूर्व में हुआ हो , जो आप की पत्नी हो सकती है , जो आप की माँ हो सकती है , जो आप की बहन हो सकती है , उसको देखें । जो जब अपनें माँ-पिता के घर में थी तो वह पुत्री होने के कारन भयभीत रहा करती थी , अब वह किसी की पत्नी है , अपनें माँ- पिता का घर छोड़ कर पराये को अपना बनानें आई है और ऐसे में भय का होना स्वाभाविक ही होगा । बेटी - पुत्री होनें से पत्नी बननें तक की दूरी कब और कैसे तय कर लिया , उसे पता तक न चल पाया और अब स्वयं माँ बन गयी है जो अपने औलाद का गुरु भी है , उसकी स्थिति कैसी है ? इस को देखए । गर्भ वती महिला हर पल भय में होती है , कभी उसे अपनें लिए भय होता है तो कभी अपनें बच्चे की सुरक्षा से चिंतित रहती है । गर्भ का बच्चा अपनें माँ की हर संवेदना को ग्रहण करता रहता है । एक भयभीत माँ अपने गर्भ के बच्चे को भय का बीज देती है जो उसके जीवन में पेंड बन जाता है और वह उस पेंड की छाया को कभी

भूल हो गयी

भूल क्या है ? जब जो चाहा वह न हो सका ,तब, जब इस खंडित कामना में अहंकार की छाया कमजोर होती है , तब-- पता चलता है की भूल हो गयी । भूल होने का एह्शाश एक अवसर है जहाँ से यात्रा का रुख बदल सकता है , यदि आप अपनें भूल को मह्शूश कर रहे हैं तो इसको अपनें हाथों से सरकनें न देना । वह , घर के अंधेरे को दूर करना चाहता था------ वह, बार-बार मोमबत्ती जलाया करता था ------ लेकिन मोमबत्ती बार-बार क्यों और कैसे बुझ जाती थी , इसका उसे इल्म न था और जब उसे पता चला तो ---- काफी देर हो चुकी थी , काश उसे कुछ पहले पता चल गया होता -------यह हमारी दशा नहीं , सब की यही हालत है । मेरे एक अफ़्रीकी दोस्त अब से बीस वर्ष पहले अमेरिका से मेरे लिए तोफा के रूप में गीता ले आए थे , वे थे तो मुस्लिम लेकिन लाये गीता , वह गीता मेरे लिए प्रभु का प्रसाद था , लेकिन मैं चूक गया , मैं उसे दस वर्षो तक छुआ भी नहीं , काश यदि उसे अपनाया होता तो बात कुछ और होती , यहबात लगभग बीस वर्ष पुरानी है । अब मैं पिछले दस वर्षों से गीता --मात्र गीता पढ़ रहा हूँ और अपनें भूल पर टपकते आंशुओं को रोकनें में अपनें को असमर्थ देखता हूँ । गीता में प्रभु के

तन से या मन से

तन की चाह , मन की चाह की परछाई है ..... मन की चाह राजस गुन की छाया है ........... चाह में चिंता अहंकार का प्रतिबिम्ब है । सुखी जीवन की चाह तो सब को है , लेकिन यह चाह ऐसी है जिसमें ....... सारा जीवन सरक जाता है , पता तक नहीं चल पाता और जब यह आभाष होता है की .......... यह मैं क्या किया ? ----जाति रहे हरी भजन को, ओटन लगे कपास , तब महसूश होता है की ----- अज्ञान की यात्रा क्या होती है ? भोग-भाव अज्ञान का इशारा है .... मैं का होना अहंकार का साकार रूप है और ...... गुणों में सुख का खोजी कभी ........ परमानन्द की छाया को भी नहीं पाता , क्योंकि ...... वह , जो परमानन्द है वह ...... गुनातीत है , भावातीत है और ..... मन-बुद्धि से परे की अनुभूति है , फ़िर क्या करे ? गीता कहता है .... करता भाव तो अहंकार है , तूं करनें की सोच में न पड़ , जो तुम से होरहा है तूं उसका ------ द्रष्टा बन जा बस इतनी सी सोच तेरे को पहुँचा देगी वहाँ ---जो परमानन्द है । ===ॐ======

तन से नहीं , मन से बैरागी

गीता कहता है ----- तन से तो बैरागी सब बन सकते हैं लेकिन उस से क्या मिलेगा ? मन का बैरागी तो प्रभु को पा लेता है । यहाँ देखिये गीता के निम्न श्लोकों को ------- 15.1- 15.3, 10.20, 13.17, 13.22, 13.33, 15.7, 15.11, 18.61, 3.34, 4.10, 13.1- 13.11, 6.33-6.34 6.26, 6.35, 2.69, 2.52, 2.45, 3.27, 18.49-18.50, 18.54-18.55 गीता कहता है ....... मन , मनुष्य एवं परमात्मा के मध्य एक ऐसा परदा है जिस के कारण प्रभु मनुष्य से अलग समझा जाता है । मन एक तरफ़ बिषयों के माध्यम से संसार से जुड़ा होता है और इसका अन्दर का किनारा चेतना के माध्यम से आत्मा-परमात्मा से जुड़ा होता है । संसार वह गुणों से परिपूर्ण माध्यम है जो अपनें में छिपे राग-द्वेष के माध्यम से इन्द्रीओं को सम्मोहित करता रहता है [गीता 3.34 ] और गुणों से प्रभावित मन इन्द्रियों का गुलाम होता है । निर्विकार मन के ऊपर प्रभु दिखता है और श्री कृष्ण कहते हैं ----- इन्द्रियों में मन और भूतों में चेतना ---मैं हूँ , ....इस का क्या अर्थ है ? गुणों से अप्रभावित मन जो निर्विकार होता है वहाँ परमात्मा होता है , यही कारण है की परम श्री कृष्ण कहते हैं --- इन्द्र

सिद्ध योगी एक झरना है

आप जरा सोचे की ---------------- छोटा बच्चा चाहे किसी जीव का हो , वह क्यों अच्छा लगता है ? प्रसव - पीड़ा से बंचित स्त्री में माँ का दिल नहीं होता , क्यों ? बच्चा पैदा करनें वाली अनेक स्त्रियाँ हैं लेकिन उनमें माँ कितनी हैं ? झरना देखनें वाले अनेक हैं लेकिन उनमें झरनें के संगीत को सुननें वाले कितनें होते हैं ? गीता पर बोलनें वालों की लाइनें लगी हैं --आदि गुरु संकराचार्य से आज तक कितनें लोग गीता के सूत्रों का अर्थ लगा रहें हैं लेकिन उनमें कितनों नें गीता-रस का मजा लिया है ? प्रकृति - पुरूष के योग से निर्मित एक माध्यम सब को मिला हुआ है कोई इस को समझनें में अपना जीवन लगा रखा है , हर दिन इसको निर्विकार रखनें में ब्यस्त है तो ज्यादा तर लोग इसको कूड़ा दान बना रहे हैं । जो लोग इस परम भेट को समझ कर जी रहें हैं , वे हैं सिद्ध योगी जो एक झरनें की तरह हैं , जो सब के लिए उपलब्ध हैं लेकिन इनको पहचानता कौन है ?यहाँ इस भोग संसार में अपना घर , अपना परिवार आदि को देखनें वालों की संख्या अनंत है लेकिन यहाँ सब को अपनानें वाले कितनें हैं ? यहाँ सब में एक बात सामान्य है ---यहाँ सब की यात्रा अब्यक्त से अब्यक

सिद्ध योगी कोई दूर नहीं

गीता श्लोक 13.15 परमात्मा की परिभाषा कुछ इस प्रकार से देता है ------- अति सूक्ष्म , अविज्ञेय परमात्मा सभी चर-अचर के अन्दर, बाहर, दूर, समीप में है और चर- अचर भी वही है । आप अपना कुछ वक्त इस परिभाषा को समझनें में लगाएं , आप को आनंद मिलेगा । अर्जुन श्री कृष्ण के मित्र हैं, उनको बचपन से जानते हैं और परम कुरुक्षेत्र में अर्जुन के सारथी हैं लेकिन--- अर्जुन को साकार श्री कृष्ण में निराकार कृष्ण नहीं दिखता पर संजय जो धृत राष्ट्र के साथ कहीं दूर हैं , उनको साकार श्री कृष्ण में निराकार परम श्री कृष्ण दिख रहे हैं .....ऐसा क्यों ?---यह बात भी सोचनें लायक है । अब जरा हमें स्वयं को भी देखना चाहिए ------- हम तीर्थों में पहुंचते हैं , मन्दिर जाते हैं , प्रतिमाओं को पूजते हैं , गंगा स्नान भी करते हैं , आखित हम किस अतृप्ति को तृप्त करना चाहते हैं ? ------सोचिये और खूब सोचिये क्यों की यह स्वयं से सम्बन्धित है । हम प्रभु के प्रसाद रूप में ऐसा अवसर प्राप्त करते हैं की सिद्ध - योगी से जुडनें का मौका मिल जाता है , हम अपना घर - परिवार छोड़ कर वहाँ पहुंचते हैं , हममें पुरी श्रद्धा भरी होती है जिसको उस समय

गीता-ज्ञान ....11

गीता श्लोक - 3.34 कहता है -------- बिषयों में राग-द्वेष होते हैं । यदि आप गीता के आधार पर कर्म-योग की साधना करना चाहते हैं तो इस सूत्र को आप अपनाइए । गीता गुणों के आधार पर मनुष्यों की तीन श्रेणी बताता है और गीता का यह सूत्र राजस श्रेणी के लोगों के लिए है । साधना में उतरनें से पहले यह जानना जरुरी है की साधक की स्थिति क्या है ? सात्विक गुणधारी का केन्द्र परमात्मा होता है ---यहाँ देखिये गीता-सूत्र 14.6, 14.9, 14.11, 14.14, 14.17, 14.18,14.22 राजस गुणों वाला ब्यक्ति भोग केंद्रित होता है और इस बात को समझनें के लिए देखिये गीता-सूत्र.......... 14.7, 9.12, 9.15-9.18, 9.22 तामस गुण -प्रभावित ब्यक्ति का केन्द्र मोह होता है जिसके सम्बन्ध में गीता सूत्र 2.52 कहता है ----- मोह के साथ बैराग्य नहीं मिलता । तामस गुण को गीता में समझनें के लिए देखिये गीता सूत्र-------- 14.8, 14.9, 14.15- 14.18, 14.22 अब गुणों के प्रभाव को समझते हैं ------- एक युवती है जिसको तीन लोग देख रहे हैं ...एक उसकी सुन्दरता में परमात्मा को देख रहा है , दूसरा उसमें राग को देखता है और तीसरा उस से भयभीत होता है --यह है गुणों के प्रभ

सिद्ध योगी आप के पास ही है

यहूदी धर्म - शास्त्र कहता है------ तूं क्या परमात्मा को खोजेगा , परमात्मा तेरे को खोज रहा है ........ यह छोटा सा सूत्र रूपांतरण की औषधि है , यदि इसे ढंग से लिया जाए । हम बचपन से सुन रहे हैं ------ बिनु मांगे मोती मिले , मांगे मिले न भीख , अब आगे ................. बिचारा अली हफ़ीज़ भीख मांगते हुए किसी शहर की एक गली में दम तोड़ गया जिसके खेत में मिला कोहनूर हीरा जो आज तक ब्रितानिया की महारानी के सर पर चमक रहा है ....ऐसा क्यों कर हुआ ? बिचारा हफ़ीज़ अपनें खेत में पड़े हीरों को पहचान न पाया , न पहचाननें की कोशिश ही किया फल स्वरूप भूखे पेट शरीर छोड़ गया , ज्यादातर लोग अली हफ़ीज़ की तरह ही हैं । आप को तो मैं जानता नहीं , पहचानता नहीं , लेकिन जब से मैं स्वयं को समझनें की कोशिश में लगा हूँ , मुझे अब ऐसा लगनें लगा है की शायद मेरा भी अंत अली हफ़ीज़ की ही तरह न हो । अली हफ़ीज़ की मौत परम धाम के द्वार को भी खोल सकती है यदि आखिरी श्वाश भरते - भरते यह एह्शाश हो जाए की परमात्मा द्वारा मिला मौका मैनें ब्यर्थ में गवा दिया , लेकिन ऐसे लोग बहुत कम होंगे । प्यारे मित्रों ! भूल होना मन- बुद्धि केंद्रित ब्यक्त