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गीता अमृत - 73

कर्म - अकर्म गीता श्लोक - 4.18 में प्रभु कहते हैं ----- कर्म में अकर्म , अकर्म में कर्म देखनें वाला बुद्धिमान है और सभी कर्मों को करनें में सक्षम होता है । अब आप अपनें बुद्धि को गीता में उतारें और समझनें का प्रयत्न करें की ---- [क] कर्म एवं ज्ञान की बातें प्रभु अध्याय - 3 में बताते हैं जबकि कर्म की परिभाषा श्लोक - 8.3 में और ज्ञान की परिभाषा श्लोक - 13.2 में दी गयी है । अर्जुन बिना कर्म एवं ज्ञान की परिभाषा को जानें कैसे कर्म - ज्ञान को समझें होंगे ? [ख] कर्म योग एवं कर्म संन्यास की बात प्रभु अध्याय - 5 में कहते हैं और इसके पहले अध्याय - 4 में कर्म - अकर्म की बात कह रहे हैं । कर्म , कर्म-योग एवं कर्म संन्यास को बिना समझे कोई कर्म - अकर्म को कैसे समझ सकता है ? गीता कहता है ---- ** जिसके करनें से भावातीत की स्थिति मिले , वह कर्म है ---- गीता - 8.3 ** सत भावातीत है ---- गीता - 2.16 अर्थात ........ सत को समझनें के लिए भावातीत की स्थिति में पहुँचना जरुरी है और ---- यह तब संभव है जब गुणों की पकड़ न हो --- गीता - 7.12 - 7.15 तक । गीता को पढ़ कर पार होना अति कठिन है ..... गीता में तैरना पड़ता