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Showing posts from August, 2010

गीता मर्म -12

मोहन प्यारे हमें कुछ साल सूडान [ अफ्रिका ] में रहनें का मौका मिला था । वहाँ के लोग सुन्नी मुस्लिम हैं । जब मैं कन्हैया की फोटो लोगों की गाड़ियों में लगी देखी तो एक दिन अपनें एक सूडानी दोस्त से पूछा - आप क्यों इस बच्चे की फोटो अपनें कार में लगा रखी है ? उत्तर बहुत ही सीधा था -- उनका कहना था , यह बच्चा है हिन्दुस्तानी और बहुत ही खुबसूरत है , इसलिए हमलोग इसे लगाते हैं , अपनी - अपनी कारों में । भक्त लोग मोहन प्यारे को अपनें - अपनें दिल में बिठा के रखना चाहते हैं और उनको यह पता शायद न हो की उनका मोहन प्यारे कुरुक्षेत्र में महाभारत युद्ध - द्वार पर मोह - मुक्त की दवा गीता के रूप में बनाते हैं , अर्जुन के मोह को दूर करनें के लिए । मोहन प्यारे एक तरफ सांख्य - योगी के रूप में समभाव की शिक्षा देते हैं और दूसरी तरफ गोपियों के साथ रास रचाते हैं । मोहन प्यारे एक तरफ सारथी बन कर अर्जुन का रथ चलाते हैं और दूसरी तरफ माखन चोर के रूप में गोपियों का दिल जीतते हैं । मोहन प्यारे हैं एक लेकीन अनेक रूपों में , हमें और क्या चाहिए ? जो रूप भा जाए उसे अपनाना ही भक्ति - योग है । ===== ॐ ======

गीता मर्म - 11

गीता श्लोक - 7.2 यह श्लोक अर्जुन के प्रश्न - 07 के सन्दर्भ में बोला गया है । अर्जुन का प्रश्न है -- ऐसे योगी जिनका योग खंडित हो जाता है , उनकी गति कैसी होती है ? गीता सूत्र 7.2 में प्रभु कह रहे हैं ..... अब मैं तेरे को ऐसा ज्ञान बतानें जा रहा हूँ जिसको जाननें के बाद और जाननें को कुछ बचता नहीं और यह ज्ञान सविज्ञान है । पहले हम इस सुत्रके सन्दर्भ में ज्ञान - विज्ञान को समझते हैं ........ ज्ञान क्या है ? योग सिद्धि पर ज्ञान मिलता है [ गीता - 4.38 ], क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ का बोध , ज्ञान है [ गीता - 13.3 ] और क्षेत्र है , मनुष्य की देह एवं इसका ज्ञाता अर्थात प्रभु है , क्षेत्रज्ञ [ गीता - 13.2 ] , तो आइये देखते हैं अध्याय - 07 के ज्ञान - विज्ञान को । अध्याय सात में कुल 30 श्लोक हैं जिमें प्रभु बताते हैं ...... [क] मैं कौन हूँ ? [ख] भूतों की रचना - रहस्य क्या है ? [ ग] ज्ञान प्राप्त योगी दुर्लभ हैं ॥ [क] मैं कौन हूँ ? यहाँ प्रभु कहरहे हैं --- संसार का सूत्र धार , बीज , जीवन , आदि - अंत मैं हूँ , मैं सूर्य -चन्द्रमा का प्रकाश । पृथ्वी की सुगंध , अग्नि की ऊर्जा , कामना रहित बल , धर्म के अनुकूल

गीता मर्म - 10

कर्म त्याग क्या है ? पहली बात जो यहाँ समझनी चाहिए , वह है , त्याग क्या है ? लोग आम तौर पर कहते हैं ..... मैं शराब पीनी छोड़ दी....... मैं सिगरेट पीली छोड़ दी .... मैं शक्कर खानीं छोड़ दी .... आखिर यह छोड़ना क्या है ? मनुष्य एक ऐसा जीव है जो ----- कभी कुछ पकड़ता है और फिर कभी उसे छोड़ता है , मनुष्य की यह आदत क्यों है ? अन्य जीवों का मन - बुद्धि इतना नहीं सोचता जितना मनुष्य का सोचता है । मनुष्य की सोच मनुष्य में संदेह पैदा करता है और संदेह मनुष्य को कहीं रुक्नें नही देता । त्याग किया नहीं जाता , यह स्वतः हो जाता है , जो काम मन - बुद्धि स्तर पर किया जाता है उसमें अहंकार की गंध होती है और त्याग पभु का द्वार है । गीता कर्म के माध्यम से त्यागी , बैरागी , ग्यानी एवं गुनातीत योगी बनाना चाहता है और ऐसा योगी स्वतः प्रभु मय होता है । भोग कर्मों में भोग तत्वों की पकड़ का न होना उस कर्म को कर्म योग बना देता है । कर्म जब कर्म - योग बन जाता है तब वह योगी आसक्ति , कामना , संकल्प एवं अहंकार रहित स्थिति में कर्म करता है और इस दशा में वह यह नहीं समझता की ---- वह कर्म करता है .... वह समझता है की ----- गुण

गीता मर्म - 09

गीता की सीधी गणित ## कर्म त्यागी कभी प्रभु मय नहीं हो सकता ॥ ## घर से जिम्मेदारियों से भाग कर संन्यासी का चोंगा धारण किया हुआ संन्यासी कभी प्रभु मय नही होता ॥ ## कर्म योग और कर्म संन्यास एक है ॥ ## कर्म योग एवं त्याग एक है ॥ ## कर्म हो लेकीन उसके होनें में कोई बंधन न हो , कोई कारण न हो तो वह कर्म , योग है ॥ ## आसक्ति रहित कर्म , मुक्ति पथ है और ज्ञान योग की परा निष्ठा भी ॥ गीता गणित के छः सूत्रों को आप अपनें बुद्धि में रख सकते हैं और समय - समय पर इन बातों को मनन के लिए अपना सकते हैं । इतनी सी बात आप को समझनी है ------ गीता को अपनाना एक ऐसा ब्यापार है जिसमें कुछ खोना नहीं है , कुछ पाना ही है । गीता को अपना कर आप उसे खो देंगे जो आप को बेचैन कर रखा है । गीता में अपनें को घुलानें पर आप कृष्ण मय हो कर ---- क्षेत्र क्षेत्रज्ञ को समझ कर ----- परमा नन्द में हो सकते हैं , तो क्या आप अपनें जीवन के कुछ क्षण गीता को दे सकते हैं ? ॥ ===== ॐ ===== ॥

गीता मर्म - 08

गीता के द्वार अनेक गीता में प्रवेश करना अति आसान है क्योंकि गीता मात्र एक ऐसा साधना श्रोत है जिसमें एक नहीं अनेक द्वार हैं जैसे ध्यान , भक्ति , कर्म योग , सांख्य - योग आदि । गीता में प्रभु कभी साकार प्रभु के रूप में बोलते हैं तो कभी निराकार प्रभु के रूप में और यह बुद्धि केन्द्रित लोगों के लिए एक संदेह का श्रोत बन जाता है । गीता में प्रभु स्वयं को परमेश्वर कहते हैं और कभी कहते हैं -- जा तूं उस परमेश्वर की शरण में जो सब के ह्रदय में है और अपनी माया से सब को यंत्रवत घुमाता रहता है । गीता का परमात्मा न कुछ देता है न कुछ लेता है , वह एक द्रष्टा है और गीता का परमेश्वर सब कुछ देनें वाला है , उसके बिना कुछ संभव नहीं । बुद्धि केन्द्रित लोगों के लिए इस प्रकार की बातें भ्रम पैदा करती हैं लेकीन जब आप गीता को अपनाकर बार - बार पढेंगे तो सब कुछ स्वतः स्पष्ट हो जाएगा । गीता के अनेक द्वारों में एक द्वार आप के लिए भी है , जब दिल करे आप उसके माध्यम से गीता में प्रवेश कर सकते हैं । गीता तत्त्व विज्ञान के माध्यम से आप सादर आमंत्रित हैं ॥ ॥ ====== ॐ ==== ॥

गीता मर्म - 07

कौन स्वप्न नहीं देखता ? गुनातीत योगी स्वप्न नहीं देखता ॥ भगवान् महाबीर एक शब्द प्रयोग करते थे - निर्ग्रन्थ ; महाबीर का निर्ग्रन्थ योगी , गीता का गुनातीत योगी है । निर्ग्रन्थ योगी वह है ------ ** जिसकी इन्द्रियाँ उसके इशारे पर चलती हों । ** जिसके मन की भूत काल एवं वर्त्तमान काल की सोच की कोई लकीर न हो , मन निर्मल हो । ** जिसकी बुद्धि संदेह रहित हो । ** जो सात्विक श्रद्धा से परिपूर्ण हो । ** जो प्रभु का दीवाना हो चुका हो । ** जिसको प्रकृति में प्रभु के अलावा और कुछ न दिखता हो । खोजना है तो प्रभु को ऐसे खोजो जैसे एक मित्र अपनें मित्र को खोजता है .... प्रभु की लहर मिलते ही नमक के पुतले की तरह अपनें को उनमें घुला दो ..... प्रकृति में जो आप को मंत्र मुग्ध कर दे , बस उसके ऊपर अपनें को संदेह रहित हो कर अर्पित कर दो ..... पंडित हरी प्रसाद की बासुरी में आप को कुछ - कुछ प्रभु श्री कृष्ण की बासुरी की धुन मिलेगी , आप जरुर सुनें ... प्रभु तो आप के लिए इंतज़ार कर रहे हैं लेकीन आप को मौका मिले तब न ...... चौबीस घंटों में कुछ पल अपनें मन को प्रभु पर केन्द्रित करनें से क्या नुकशान होगा ? ====== ॐ =

गीता मर्म - 07

दो हाँथ की ताली या एक हाँथ की ------ अपनें दोनों हांथों से ताली बजाकर देखना और यदि कहीं आप को किसी दरिया के किनारे एकांत में यह काम करनें का मौक़ा मिले तो चुकना नहीं । ताली के साथ प्रारम्भ से अंत तक रहना और जिसमें आवाज बिलीन हो रही हो उसे जरूर पकडनें की कोशिश करना । ध्वनि चाहे कोई भी क्यों न हो , सब का अंत ॐ में होता है । गीता में प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं -- एक ओंकार , मैं हूँ , अब्यक्त अक्षर , मैं हूँ , आकाश में शब्द , मैं हूँ । दो के मध्य जो घटित होता है उसका प्रमाण होता है और जो एक के साथ घटित हो , उसका प्रमाण क्या हो सकता है ? जी हाँ उसका भी प्रमाण है - अस्तित्व और जो सब का अदि अंत हो , गीता उसे परमात्मा कहता है । सूफी एवं झेंन परम्परा में एक हाँथ की ताली , ध्वनि रहित ध्वनि , दरवाजा रहित दरवाजा [gateless gate ] जैसे शब्द देखनें को मिलते हैं और इन सब की अनुभूति का नाम ही गीता का ब्रह्म है जो तब भी है जब सब कुछ समाप्त हो चुका होता है , जो तब भी था जब सब कुछ आनें वाला ही था जो आज भी है जब सब कुछ है और जो सब के होनें का बीज है । एक हाँथ की ताली की अनुभूति के लिए ही दो हांथों की ताली ह

गीता मर्म - 06

गीता श्लोक - 8.8 प्रभु मय होनें के लिए प्रभु को अपनें मन में बसाना होता है । मनुष्य के मस्तिष्क में प्रभु की खोज की ग्रंथि क्यों है , क्यों प्रभु को पकड़ना चाहता है ? सभी जीवों के पास सिमित बुद्धि है और मनुष्य के पास असीमिति , इस कारण से मनुष्य सभी जीवों का सम्राट है । मनुष्य सब को अपना गुलाम बनाना चाहता है और सोचता है -- सब को तो देख लिया कुछ मजा न आया क्यों न उसे देखा जाए जो संभवतः सब का मालिक है जैसा सभी धर्म कहते हैं । मनुष्य को मंदिर जाते देख कर भ्रमित नहीं होना चाहिए , उसे प्रभु से कोई लेना देना नहीं , वह तो अपनी चाह पूरी करानें का माध्यम तलाश रहा है और जब कोई नहीं मिलता तो चल पड़ता है , मंदिर को । गीता में प्रभु कहते हैं --- यदि तुम मुझे समझना चाहते हो तो मेरे को अपनें मन में बसाओ और यह भी कहते हैं - गीता - 12.3 - 12.4 में -- प्रभु की अनुभूति मन - बुद्धि से परे की है , इस बात को समझना चाहिए । साकार उपासना का आधार मन है और निराकार की उपासना मन - बुद्धि से परे की है । साकार साधना निराकार का द्वार खोल सकती है यदि रुकावट न आये । जो भक्त साकार में रुक गया , उसकी साधना खंडित ही हो जा

गीता मर्म - 05

गीता श्लोक - 2.51 कर्म यदि कर्म फल की चाह के बिना हो तो वह कर्म मुक्ति का द्वार बन सकता है । गीता बुद्धि - योग की गणित है , जितना सोच सकें , सोंचे और सोच - सोच कर जब बुद्धि थक जायेगी तब जो मिलेगा वह आनंद से भर देगा । आइन्स्टाइन जब कई दिनों तक एकांत में मॉस - एनेर्जी समीकार पाया तब उनसे रहा न गया और निकल पड़े अपनें आनंद को बाटनें लेकीन समझनें वाके कितनें थे ? बुद्ध को जब ज्ञान मिला , चल पड़े उसे बाटनें लेकीन उनको समझनें वाले लोग कितनें थे ? जब आप गीता के इस सूत्र को समझ लेंगे और आप का कण - कण आनंद से भर उठेगा तब आप की भी स्थिति आइन्स्टाइन - बुद्ध जैसी ही होंगी । ====== ॐ =======

गीता मर्म - 04

मनुष्य के पास दो मार्ग हैं मनुष्य के पास दो मार्ग हैं , वह दोनों की समझ रखता है , दोनों का प्रयोग भी करता रहता है और यही कारण है की सब कुछ होते हुए भी जीवित प्राणियों में सब से अधिक तनहा जीव है । मनुष्य जब एक मार्ग पर कुछ चल लेता है तब उसके मन में दुसरे पर चलनें की जिज्ञाशा उठाती है और वह तुरंत अपना रुख बदल लेता है । आज का मनुष्य सब कुछ भोग की तराजू में तौलता है , चाहे वह वस्तु हो , प्यार हो या परमात्मा और गीता कहता है ---- भोग - प्रभु को एक समय एक साथ एक बुद्धि में रखता असंभव है , लेकीन हमारा काम एक के साथ चल नहीं पाता। मनुष्य के पास एक समझ होनी चाहिए , और वह है -- भोग से योग का सहारा ले कर प्रभु में मन - बुद्धि को केंद्रित करें , यह अभ्यास प्रभु मय बनाकर तनहाई से आनंद में ले जा सकता है । हमें क्या चाहिए ? सुख - दुःख का जीवन या आनंद का जीवन । पहला है भोग का जीवन और दूसरा है योग का जीवन । ====== ओम =======

गीता मर्म - 03

आस्तिक और नास्तिक प्रभु श्री कृष्ण गीता में 26 श्लोकों के माध्यम से कहते हैं [ श्लोक - 9.12 - 9.13 और अध्याय - 16 के 24 श्लोक ] मनुष्य दो प्रकार के होते हैं ; दैवी प्रकृति एवं आसुरी प्रकृति के । दैवी प्रकृति के लोग जिनके जीवन का केंद्र परमात्मा होता है , जो जो कुछ भी करते हैं , जो जो कुछ भी सोचते हैं , वह सब प्रभु के लिए होता है , ऐसे लोग इस श्रेणी में आते हैं । आसुरी प्रकृति के लोग जिनका जीवन भोग के चारों ओर चक्कर काटता है , जिनके जीवन में काम , कामना , अहंकार , भय , मोह आदि गुण - तत्त्व , ऊर्जा के मुख्य श्रोत होते हैं , वे आसुरी प्रकृति के लोग होते हैं । अब एक और श्रेणी विकशित हो गयी है आज विज्ञानं का युग है जहां हर वस्तु वर्ण संकर नश्ल की उपलब्ध है यहाँ तक की इन्शान भी । आज ज्यादा लोग ऐसे हैं जो दो कदम प्रभु की ओर चलते हैं और चार कदम भोग की ओर । जब प्रभु की ओर चलनें का इरादा करते हैं तब उनके मन में मांगों की लम्बी लिस्ट होती है जो भोग की अत्रिप्तता के सम्बन्ध में होती है । इस नश्ल के लोग प्रभु को मात्र भोग प्राप्ति के लिए प्रयोग करना चाहते हैं । कौन करे ध्यान ? कौन करे योग ?

गीता मर्म - 01

गीता श्लोक - 5.6 योग में बिना उतरे सन्यासी बनना कष्ट प्रद होता है । योग में उतरना अपनें बश में है , योग को अपनाना अपनें हाँथ में है , और जैसे - जैसे योग का रस मिलनें लगता है , संन्यास - त्याग स्वयं घटित होते हैं । संन्यास किसका ? और त्याग किसका ? वह त्याग त्याग नहीं जिसमें अहंकार की बॉस हो , त्याग स्व का कृत्य नहीं , यह साधना में स्वयं घटित होता है । कहते हैं - एक हाँथ से दो और दुसरे हाँथ को पता तक न चले , यह है , त्याग । त्याग और संन्यास पर्याय बाची शब्द हैं । संन्यास भी स्व घटित घटना है । जैसे - जैसे योग गहराता है , भोग की पकड़ ढीली होनें लगती है और भोग तत्वों की ओर पीठ होनें लगती है जिसको संन्यास का आगमन कह सकते हैं । योग के फल के रूपमें ज्ञान मिलता है [ गीता सूत्र - 4.38 ] जिसकी ऊर्जा से त्याग एवं संन्यास घटित होता है । घर , परिवार ताथा जिमेदारियों से भाग कर साधू वेश धारण करके भीख मागना , संन्यास नहीं है , यह एक मनो वैज्ञानिक रोग है । सूफी एवं झेंन फकीरों को आसानी से खोजना संभव नहीं , सत फकीर पानें के लिए स्वयं को रूपांतरित करना पड़ता है । क्या पता रेलवे स्टेशन पर चाय बनानें वाला को

गीता सागर में डूबो

प्रभु के मार्ग ** गीता श्लोक - 2.39 में साँख्य-योग एवं कर्म योग की बात परम श्री कृष्ण करते हैं । ** गीता श्लोक - 3.3 में कहते हैं -- ज्ञान - योग एवं कर्म - योग , दो मार्ग हैं । ** गीता श्लोक - 13.25 में प्रभु कहते हैं --- ध्यान , ज्ञान एवं कर्म - योग से मेरी अनुभूति मिल सकती है । ** गीता श्लोक - 18.54 - 18.55 में प्रभु कहते हैं -- समभाव वाला परा भक्ति में मुझमें प्रवेश करता है । और गीता श्लोक - 4.38 कहता है ---- योग सिद्धि पर ज्ञान मिलता है । एवं गीता श्लोक - 13.3 कहता है ---- देह एवं जीवात्मा का बोध ही ज्ञान है । गीता के श्लोकों के ऊपर जो लोग किताबें बनाते हैं गीता को पौराणिक कहानियों में ढालते हैं , उनका गीता जैसे परम पवित्र के साथ सही बर्ताव नहीं है । गीता मात्र एक ऐसा ग्रन्थ है जिसमें प्रयोग किये गए शब्दों की परिभाषा कही न कही जरुर दी गयी है , ऎसी स्थिति में गीता - शब्दों का अपना अर्थ लगाना उचित नहीं दिखता । भक्ति को लोग सहज माध्यम समझ कर चल पड़ते हैं मंदिर , मंदिर जानें का अभ्यास उत्तम है लेकीन यह मार्ग बहुत लंबा है । अपरा भक्ति से परा में कोई - कोई लोग मीरा जैसे पहुँच पाते ह

गीता सन्देश

गीता श्लोक - 5.14 यहाँ प्रभु श्री कृष्ण कह रहे हैं ----- कर्म , कर्म-फल की चाह एवं कर्म करनें की इच्छा प्रभु से निर्मित नहीं होती , यह सब स्वभाव से होते हैं । गीता का छोटा सा सूत्र जो कह रहा है उसको सुननें वाले कितनें लोग हैं ? और जो सुन लिया वह प्रभुमय हो गया । इस सूत्र के सम्बन्ध में हमें कुछ और बातों को देखना है जो इस प्रकार हैं ------- * स्वभाव की रचना गुण समीकरण से होती है - गीता सूत्र ...3.5,3.27,3.33,18.59 * गुण समीकरण [ गीता सूत्र - 14.10 ] परिवर्तनीय है जो हर पल बदल रहा है । * कर्म करता गुण समीकरण है और यही कर्म करनें की ऊर्जा पैदा करता है । * तीन गुण प्रभु से हैं लेकीन प्रभु गुनातीत है - गीता सूत्र - 7.12 गीता के कुछ परम सूत्र आप के सामनें हैं चाहे आप इनको अपनें बुद्धि में रख कर संदेह में समय गुजारें , प्रश्न के बाद प्रश्न अपनें मन - बुद्धी में उठाते रहें या फिर अपनें में श्रद्धा की लहर उठा कर मन - बुद्धि से परे [ गीता - 12.3 - 12.4 ] पहुँच कर परम आनंद में प्रभु मय की अनुभूति में पहुंचें , सब कुछ आप के हाँथ मेंही है । ==== ॐ =====

ऐसा क्यों होता है ?

++ गोदी के बच्चे की किलकारियां हमें क्यों खीचती हैं ? ++ भौरों की गुनगुनाहट हमें क्यों बुलाती है ? ++ झरनें का नाद हमें क्यों अपना सा लगता है ? ++ कोयल की मधुर आवाज हमें क्यों आकर्षीत करती है ? ++ पूनम का चाँद हमारे मन को अपनी ओर क्यों खीच लेता है ? ++ आकाश में खिले सितारे हमें ऊपर देखनें के लिए क्यों बुलाते हैं ? ++ पंडित रवि शंकर , पंडित हरी प्रसाद चौरसिया और बिस्मिल्ला खान के संगीत हमें क्यों पकड़ते हैं ? ++ बुद्ध पुरुष के बचन हमें क्यों बुलाते हैं ? ढेर सारी बातें हैं और हमाने पास मन - बुद्धि का एक तंत्र है जिसके सहारे हम सब कुछ जानना चाहते हैं । सारा जीवन समझनें में गुजर जाता है और हम क्या जान पाते हैं , कुछ कहना संभव नही दिखता ? हम जीवन में जो कुछ करते हैं वह मात्र इस पर आधारित होता है की ------ हम एवं हमारा परिवार सुरक्षित रहे .... हम एवं परिवार खुश रहे ..... हमें लोग अच्छी नज़र से देखें .... ज़रा सोचना क्या अभी तक हमनें जो कुछ भी किया है उस से हम संतुष्ट हैं , यदि नहीं तो भूल कहा हो रही है ? ====== ॐ =======

क्रोध के रंग अनेक

** जब यह मह्शूश होनें लगे की मेरा कद छोटा हो रहा है तब क्रोध उपजता है । ** कामना टूटनें का भय , क्रोध उत्पन्न करता है । ** अहंकार पर जब चोट पड़ती है तब रोध उठता है । ** क्रोध अहंकार साकार रूप है । ** क्रोध रहित ब्यक्ति स्थिर बुद्धि एवं ग्यानी होता है । गीता प्रसाद रूप में यहाँ पांच सूत्र दिए गए हैं जो किसी भी ब्यक्ति को रूपांतरित करनें के लिए पर्याप्त हैं । क्रोध दो प्रकार का हो सकता है ; एक राजस गुण में और दूसरा तामस गुण में । राजस गुण का क्रोध परिधि पर होनें से स्पष्ट दिखता है लेकीन तामस गुण का क्रोध सिकुड़ा हुआ अत्य अधिक पैना , देर तक टिकने वाला बहुत खतरनाक हो सकता है और यह बाहर दिखता भी नहीं । मनुष्य के अन्दर एक ऊर्जा है जो स्वभावतः निर्विकार होती है लेकीन मन - बुद्धी तंत्र का संसार का अनुभव जो गुण आधारित होता है , वह इस ऊर्जा को सविकार बना देता है और यहाँ से मनुष्य का रुख प्रभु को ओर से भोग की ओर हो जाता है । राजस और तामस गुणों के तत्वों की पकड़ को ढीली करना ही गीता - योग है । ====== ॐ =======

बुद्धि योग गीता - 09

गीता श्लोक - 01 धृत राष्ट्र कह रहे हैं अपनें साथी संजय से ------- धर्म क्षेत्र कुरुक्षेत्र में हमारे और पांडू के पुत्र युद्ध की कामना से इकठ्ठे हुए हैं , वे क्या कर रहे हैं ? धृत राष्ट्र जी एक अंधे ब्यक्ति हैं उनकी मदद के लिए संजय जी उनके साथ हैं । धृत राष्ट्र से रहा नहीं जा रहा , उनके अन्दर जिज्ञाशा उमड़ रही है , यह जाननें के लिए की युद्ध - क्षेत्र में अभी युद्ध क्यों नहीं प्रारम्भ हो पाया । यहाँ हमें मात्र एक बात पर सोचना है , और वह है ....... महा भारत युद्ध होनें से पहले कुरुक्षेत्र धर्म क्षेत्र कैसे था ? आज जहां कुरुक्षेत्र है उसे आजादी से पूर्व गीता के अलावा और कौन जानता था ? श्री गुलजारी लाल नंदा जी वर्त्तमान कुरुक्षेत्र का विकाश करवाए और आज एक गाँव से तीर्थ बन गया है । कुरुक्षेत्र में जब आप पहुंचेंगे तो वहाँ दो नाम आप को मिलेंगे ; एक कुरुक्षेत्र और दूसरा थानेश्वर । थानेश्वर राजा हर्षवर्धन की राजधानी थी । यहाँ के शिव मंदिर पर लगभग दसवी सताब्दी के अंत नें अफगान के एक राजा नें आक्रमण किया था क्यों की वहाँ काफी धन भरा पडा था । थानेश्वर ४१ शक्ती पीठों में से एक है लेकीन कुरुक्षेत्र क

बुद्धि योग गीता - 08

गीता का अब्यक्त क्या है ? अब्यक्त का अर्थ है वह जिसके होनेकी अनुभूति तो हो लेकीन इन्द्रियों से जिसको ब्यक्त न किया जा सके । अब्यक्त को ब्यक्त करनें का कोई माध्यम नहीं है , अब्यक्त की कोई गणित भी नही बन सकती । वह जिसको अब्यक्त की अनुभूति हो जाती है वह कस्तूरी मृग जैसा हो जाता है , बेचैन हो उठता है उसे ब्यक्त करनें के लिए लेकीन कुछ करनें में ना कामयाब रहता है । बीसवी शताब्दी के प्रारम्भ में आइन्स्टाइन को जिन - जिन परम सत्यों की अनुभूति हुई उस समय विज्ञान के पास कोई साधन न थे ब्यक्त करनें के लिए और उनमें से कुछ की गणित कुछ समय बाद तो बन गयी लेकीन बहुत सी सूचनाओं की खोज आज भी जारी है । आइन्स्टाइन उससमय कहे --- ब्रह्माण्ड में कोई अज्ञात ऎसी शक्ती है जिसको आज डार्क ऊर्जा एवं डार्क पदार्थ कहते हैं , वह सभी सूचनाओं को एक दुसरे से दूर भगा रही है और हो सकता है यही ब्रह्माण्ड के अंत का कारन भी बने । आज बैज्ञानिक कह रहे हैं की ब्रह्माण्ड का 90% भाग डार्क मैटर क़ा है लेकीन इसका अभी तक कोई गणित नही है । गीता का अब्यक्त , अब्यक्त भाव वह है जिससे एवं जिसमें बिज्ञान क़ा ब्रह्माण्ड है । आप ज़रा गीता के अ

बुद्धि योग गीता भाग - 08

गीता में प्रभु कहे हैं ------ पृथ्वी के धारण करनें की शक्ति [ गुरुत्वाकर्षण ] मैं हूँ । सत्रहवीं शताब्दी में न्यूटन सेव के फल को नीचे गिरते देख कर गुरुत्वाकर्षण की गणित बनाई लेकीन पूर्ण रूप से इसे स्पष्ट न कर पाए । बीसवी शताब्दी के प्रारम्भ में आइन्स्टाइन भी ग्रेविटी पर सोचना प्रारम्भ किया और अपना पूरा जीवन ग्रेविटी की खोज में लगा दिए पर ठीक ढंग से ब्यक्त न कर पाए । आइन्स्टाइन कहते हैं --- टाइम स्पेस करव सीधी रेखाओं से निर्मित नहीं है , करव रेखाओं से है , जिसके फल स्वरुप सभी ग्रहों की अपनी - अपनी ग्रेविटी हैं । ब्रह्माण्ड की सभी सूचनाएं तीन प्रकार की गतियों से प्रभावित हैं : सभी सूचनाएं अपनें केंद्र के चारों ओर घूम रही हैं , सभी अपने सौर्य मंडल के प्रमुख के चारों तरफ चक्कर लगा रही हैं और सभी गलेक्सी अपनें - अपनें केन्द्रों के चारों ओर बहुत तेज गति से भाग रही हैं , सभी सूचनाएं इस गति से भी गहरी प्रभावित होती होंगी । ब्रह्माण्ड की तीन गतियाँ गुरुत्वाकर्षण शक्ति का कारन हैं - यह मेरा विचार है । गीता में प्रभु वह है जो ब्यक्त न किया जा सके पर उसकी अनुभूति हो । आइन्ताइन के सामनें यही समस्या