गीता मर्म - 03


आस्तिक और नास्तिक

प्रभु श्री कृष्ण गीता में 26 श्लोकों के माध्यम से कहते हैं [ श्लोक - 9.12 - 9.13 और अध्याय - 16 के 24 श्लोक ]

मनुष्य दो प्रकार के होते हैं ; दैवी प्रकृति एवं आसुरी प्रकृति के ।
दैवी प्रकृति के लोग

जिनके जीवन का केंद्र परमात्मा होता है , जो जो कुछ भी करते हैं , जो जो कुछ भी सोचते हैं , वह सब प्रभु के लिए होता है , ऐसे लोग इस श्रेणी में आते हैं ।
आसुरी प्रकृति के लोग
जिनका जीवन भोग के चारों ओर चक्कर काटता है , जिनके जीवन में काम , कामना , अहंकार , भय , मोह आदि गुण - तत्त्व , ऊर्जा के मुख्य श्रोत होते हैं , वे आसुरी प्रकृति के लोग होते हैं ।
अब एक और श्रेणी विकशित हो गयी है
आज विज्ञानं का युग है जहां हर वस्तु वर्ण संकर नश्ल की उपलब्ध है यहाँ तक की इन्शान भी ।
आज ज्यादा लोग ऐसे हैं जो दो कदम प्रभु की ओर चलते हैं और चार कदम भोग की ओर । जब प्रभु की ओर चलनें का इरादा करते हैं तब उनके मन में मांगों की लम्बी लिस्ट होती है जो भोग की अत्रिप्तता के सम्बन्ध में होती है । इस नश्ल के लोग प्रभु को मात्र भोग प्राप्ति के लिए प्रयोग करना चाहते हैं । कौन करे ध्यान ? कौन करे योग ? इन सब से क्या मिलेगा ? ऐसे लोगों के पास कभी न समाप्त होनें वाले प्रश्न होते हैं ।

जो लोग भोग को ही परम समझते हैं , वे हैं , आसुरी प्रकृति के लोग -----
जो लोग भोग को योग के साधन के रूप में देखते हैं , वे हैं दैवी प्रकृति के लोग ।

===== ॐ ======

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