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गीता अमृत - 34

सांख्य - योग मूल मंत्र आप को यहाँ गीता आधारित सांख्य - योग के कुछ मूल मन्त्रों को दिया जा रहा है जो संभवतः आप के अन्दर वह ऊर्जा प्रवाहित कर सकें इससे आप का रुख परमात्मा की ओर हो सके । [क] मनुष्य = प्रकृति + पुरुष .... गीता - 7.4 - 7.6 , गीता - 13.5 - 13.6 , गीता - 14.3 - 14.4 [ख] मनुष्य = क्षेत्र + क्षेत्रज्ञ ....... गीता - 13.1 - 13.३ , क्षेत्र बिकारों से परिपूर्ण है और क्षेत्रज्ञ निर्विकार है [ग] प्रकृति - पुरुष अज हैं ......... गीता - 13.19, 15.16 और राग - द्वेष इनसे हैं , क्ष्रेत्र क्या है ? जड़ + चेतन या अपरा एवं परा दो प्रकृतियों का योग , क्षेत्र है , जो समयाधीन है , जो सविकार है और जिसका आदि , मध्य एवं अंत है । क्षेत्रज्ञ क्या है ? आत्मा - परमात्मा निर्विकार , समयातीत , भावातीत सनातन , क्षेत्रज्ञ है आत्मा क्या है ? देखिये गीता के श्लोक - 2.18 - 2.30 तक जो कहते हैं - आत्मा अबिभाज्य , अपरिवर्तनशील , अति शूक्ष्म , मन - बुद्धि सीमा में न आनेंवाला ऐसा माध्यम है जो मनुष्य को जीवित की संज्ञा देता है । आत्मा क्या है ? देखिये गीता सूत्र - 10.20, 15.7, 13.22 - ये सूत्र कहत