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गीता अमृत - 18

कर्म से संन्यास की ओर ------ लोग कहते हैं .......गीता कर्म का विज्ञान है लेकीन यह बात कितनें लोग जानते हैं --गीता कर्म के माध्यम से संन्यास की यात्रा है ? गीता का प्रारम्भ परम श्री कृष्ण सम - भाव ब्यक्ति को पंडित बताते हुए आत्मा से करते हैं और धीरे - धीरे यह यात्रा काम , कामना , क्रोध , लोभ , मोह , अहंकार के होती हुयी सनातन परम ब्रह्म में बिसर्जित होती है । परम कहते हैं -- मनुष्य के रूप में तुम आये हो , तेरा यह अवसर तेरे हाँथ से सरकना नहीं चाहिए , तुम इस अवसर को इस तरह इस्तेमाल करो की यह तेरे लिए परम धाम का मार्ग बन जाए । आइये ! अब देखते हैं गीता के कुछ श्लोकों को ----- [क] सूत्र - 5.3 कामना - द्वेष रहित कर्म करता - सन्यासी है । [ख] सूत्र - 5.3, 5.10, 5.11, 5.23, 16.21 काम क्रोध लोभ नरक के द्वार हैं , आसक्ति रहित कर्म करता भोग संसार में कमलवत रहता हुआ सन्यासी होता है । आसक्ति रहित इन्द्रिय , मन एवं बुद्धि से होना चाहिए । [ग] सूत्र -3.5, 18.11, 18.48, 2.45, 3.27, 3.33, 5.22, 2.14, 18.38, 14.19, 14.23, 18.54-18.55 कर्म करता मनुष्य नहीं गुण हैं , ऐसे कर्म भोग हैं , जिनके करने...