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पराभक्ति एक माध्यम है

गीता में परा भक्ति क्या है ? According to Gita what is steadfast devotion ? गीता में परा भक्ति एवं परा भक्त को ठीक से समझनें के लिए अप निम्न सूत्रों को देख सकते हैं :--10.7 , 6.15, 6.19 ,8.8 ,12.6, 12.7, 18.54 -18.55 ,6.30 ,13.29 ,15.18 -15.19 ,14.26 ,18.68 आगे चल कर गीता के इन सूत्रों को अलग – अलग से देखा जाएगा अभीं इन सभी सूत्रों के भाव को समझते हैं [ We shall be going through all these sutras later on but here we are going to touch the essence of these sutras ] गीता में गीता के शब्दों के भाव को खोजना गीता की साधना बन जाता है और गीता के शब्दों का परम्परागत अर्थ लगा कर बैठ जाना ऐसे हैं जैसे किसी मुर्दा के ऊपर गीता - पुस्तक को रख देना / इतनी बात याद रखना , गीता आप की आत्मा को दिशा देता है , आत्मा में जो उर्जा है उसे गीता दिखाता है और ऐसे पवित्र आयाम को जब हम अपना गुलाम बना लेना चाहते तब यह आयाम हमारा गुलाम तो नहीं बन पाता पर हमसे काफी दूर जरुर हो जाता है / परा - अपरा , निराकार – साकार , निश्चयात्मक – अनिश्चयात्मक , अविकल्प – सविकल्प , स्वर्ग – नर्क और परम धाम ऐस

मन के प्रति होशमय रहो

गीता सूत्र – 6.26 अभ्यास – योग यतः यतः निश्चलति मनः चंचलम् अस्थिरम् ततः ततः नियम्य एतत् आत्मनि एव बशम् नयेत् स्वामी प्रभुपाद जी इस सूत्र को कुछ इस प्रकार से देखते हैं ------ मन अपनीं चंचलता तथा अस्थिरता के कारण जहां कहीं भी विचरण करता हो , मनुष्य को चाहिए कि उसे वहाँ से खींचे और अपनें बश में लाये // Dr Sarvapalli Radhakrishanan has seen this sutra as under ---- Whatsoever makes the wavering and unsteady mind wander away let him restrain and bing it back to the control of the Self alone . बुद्ध – महाबीर से J Krishnamurthy तक , शिव ध्यान सूत्रों से पतंजलि तक और आज के दर्शन शास्त्रियों के द्वारा जताए गए साधना विधियों का एक मात्र उद्देश्य है , मन को शांत करना और यह काम बहुत कठिन काम है / गीता में प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं , अनेक लोग मेरी तरफ चलते हैं , उनमें से कुछ की साधना सिद्ध भी हो जाती है और जितनों की साधनाएं सिद्ध होती हैं उनमें से एकाध ही मुझे तत्त्व से समझ पाता है / साधना करना सबके बश में है , साधना की सिद्धि प्राप्त करना

मन ध्यान एवं देह

गीता सूत्र – 6.18 यदा विनियतं चित्तं आत्मनि एव अवतिष्ठते नि : स्पृह : सर्व कामेभ्य : युक्तः इति उच्यते तदा स्थिर चित्त वाला सभी प्रकार के भोगों की आसक्ति से दूर रहता है / serenity of mind keeps away from the attachments गीता सूत्र – 6.19 यथा दीपो निवात – स्थ : न इन्गते सा उपमा स्मृता योगिनः यत – चित्तस्य युज्जतः योगं आत्मनः योगारूढ़ स्थिति में मन ऐसे शांत रहता है जैसे वायु रहित स्थान में रखे दीपक की ज्योति स्थिर रहती है // as a lamp in a windless place flickers not , to such is likened the yogi of subdued thought who practises union with the Self . गीता सूत्र – 14.11 सर्वद्वारेषु देहे अस्मिन् प्रकाशः उपजायते ज्ञानं यदा तदा विद्यात् विवृद्धम् सत्त्वं इति उत सात्त्विक गुण की ऊर्जा देह के सभी नौ द्वारों को प्रकाशित कर देती है the energy of goodness mode brings all the organs and senses of the body in awareness गीता के तीन सूत्रों को एक साथ दिया गया और उनके भावों को भी दिखाया गया , गीता यहाँ कह रहा है , ध्यान से मन शांत होता

समय चक्र

टाइम – स्पेस रहस्य भाग – 02 ऋग्वेद कहता है … ...... वह धडकनें लगा [ It started pulsating ] और इस धडकन से सब कुछ जो है , जो हो रहा है और जो आगे होगा हो रहा है और हो - हो कर इसी में अब्यक्त भी हो रहा है // कौन है वह , ऋग्वेद के ऋषि का ? और विज्ञान कहता है … .... . आज से लगभग 14.7 billion साल पूर्व में अंतरिक्ष में कहीं एक 100 million light years क्षेत्रफल का hydrogen – atom बना और स्वत : फूट पड़ा और उसके फूटने से जो टुकड़े हुए उनमें से एक अति शूक्ष्म कण जो लगभग एक proton के बराबर का रहा होगा , उसमें फैलाव होनें लगा और फैलाव के फलस्वरुप Time- space का निर्माण शुरू हो गया और धीरे - धीरे सम्पूर्ण ब्रहमांड की सूचनाएं बनी , बन रहीं हैं और बनती रहेंगी / आप यदि विज्ञान में रुची रखते हो तो आप जानते भी होंगे की प्रकृति में सब अपनें प्रतिनिधी को पैदा कर रहे हैं जैसे पेड़ – पौधे , जीव – जंतु , पशु - पंछी एवं मनुष्य और गलेक्सियाँ भी तारों को जन्म दे रही हैं ; हमारी गलेक्सी श्वेत - गंगा लगभग 10 तारों को हर साल पैदा करती है / यहाँ प्रभु के राज्य में सब कु

टाइम स्पेस रहस्य

गीता ब्रह्माण्ड रहस्य एवं जीव उत्पत्ति यहाँ देखते हैं गीता के निम्न सूत्रों को 3.5 3.27 3.33 5.13 7.4 7.5 7.6 7.8 7.9 7.12 7.13 7.14, 7.15 8.16 8.17 8.18 8.19 820 8.21 8.22 9.8 10.21 13.6 13.7 13.13 1320 13.21 13.34 14.3 14.4 14.5 14.11 14.19 14.21 14.27 15.6 15.7 15.12 15.16 15.17 15.18 गीता के 10 अध्यायों से 41 सूत्रों को चुनकर यहाँ दे रहा हूँ . आप लोग इनको खूब पी सकते हैं / Prof. Albert Einstein कहते हैं … .... जब मैं गीता में ब्रह्माण्ड रहस्य को पढता हूँ कि परमात्मा ब्रह्माण्ड एवं जीवों का निर्माण कैसे किया ? तब मुझे संदेह रहित ऐसा ज्ञान मिलता है जैसा कहीं और नहीं देखता / अब आप को गीता के 41 सूत्रों का भाव मैं देने की कोशीश कर रहा हूँ और आप सबसे प्रार्थना है कि आप लोग इन सूत्रों को जरुर पढ़ें ------- परमात्मा सम्पूर्ण टाइम – स्पेस का नाभि केंद्र है ; परमात्मा से परमात्मा में तीन गुण माया का निर्माण करते और ये गुण परमात्मा से हैं लेकिन परमात्मा गुणातीत है /

अभ्यास योग एवं निर्वाण

गीता सूत्र – 6.15 युज्जन् एवं सदा आत्मानं योगी नियत – मानसः / शांतिम् निर्वाण परमां मत् - संस्थाम् अधिगच्छति // yujjan evam sada atmaanam yogi niyat – manasah / shantim nirvan paramaam mat – sansthaam adhugachchhati // इस सूत्र को स्वामी प्रभुपाद जी कुछ इस प्रकार से देखते हैं ----- इस प्रकार शरीर , मन तथा कर्म में निरंतर संयम का अभ्यास करते हुए संयमित मन वाले योगी को इस भौतिक अस्तित्व की समाप्ति पर भगवद्धाम की प्राप्ति होती है // Dr . S . Radhakrishanan says ------- The Yogin of subdued mind , ever keeping himself thus hormonized , attains to peace , the supreme nirvana , which abides in Me . इस सूत्र में निम्न बातें हैं ----- नियमित अभ्यास करना तन , इन्द्रियों एवं मन को प्रभु केंद्रित रखना परम शांति की प्राप्ति निर्वाण की प्राप्ति परम धाम की प्राप्ति अब देखते हैं इन बातों में क्या कोई आपसी सम्बन्ध दिखता है ? तन , इंद्रियों एवं मन को प्रभु केंद्रित रखनें वाला अभ्यास – योग में होता है जहां उसे परम शांति मिलती है जो निर्वाण का द्वार है और नि

क्या है विज्ञान और ज्ञान

गीता सूत्र – 6.8 ज्ञान - विज्ञान तृप्त आत्मा कूटस्थो विजित – इन्द्रियः युक्तः इति उच्यते योगी सम लोष्ट्र अश्म कांचन : // जिसकी इन्द्रियाँ उसके इशारे पर चलती हैं , वह ज्ञान – विज्ञान से परिपूर्ण समभाव – योगी होता है A man with fully control over his senses , is a man having pure perceptions and he is a man of super wisdom . Such a man is said to be settled in Evenness – Yoga . गीता के इस सूत्र में निम्न बातें हैं -------- इंद्रिय नियोजन समभाव – योग ज्ञान – विज्ञान से परिपूर्ण गीता इन तीन तत्त्वों का समीकरण हमें दे दिया और बोला , अब आगे तेरे को अकेले यात्रा करनी है , तूं जिसे उचित समझे वैसे कर / संसार माया से माया में है , माया तीन गुणों का एक माध्यम है जिसका कोई अंत नहीं और जो समयाधीन भी नहीं और जो हर पल बदलता रहता है / जहां बदलाव है वहाँ गति भी होगी ही अतः यह हर पल गनिमान भी है लेकिन इसकी गति ऎसी है जैसे हमारे ह्रदय की धडकन / संसार में हमारे इंद्रियों को आकर्षित करनें के बिषय हैं ; विषय के प्रति उठा होश ही इंद्रिय नियोजन है और इंद्र

कर्म ,देह एवं आत्मा संबंध

गीता सूत्र – 5.13 सर्व कर्माणि मनसा संन्यस्य आस्ते सुखं वशी नव – द्वारे पुरे देही न एव कुर्वन् न कार्यन् शब्दार्थ मनसा सर्व कर्माणि संन्यस्य नव द्वारे पुरे देही न एव कुर्वन न कार्यन् सुखं वशी वह देहधारी जिसके कर्मों का उसके मन से त्याग हो गया होता है , वह बिना कुछ किये - कराये अपनें नव द्वारों वाले देह रूपी नगर में सुख से रहता है // नौ द्वार कौन – कौन से हैं ? दो आँखें , दो नाक , दो कान , एक मुख , एक मॉल इंद्रिय , एक काम इंद्रिय / मन से कर्मों का त्याग कैसे संभव है ? मन से कर्मों का त्याग होना तब होता है जब कर्म में पूर्ण होश उठ जाता है और होश में हो रहे कर्म के होनें के पीछे कोई अपना निहित स्वार्थ नहीं होता / मनुष्य का वह कर्म जिसके होनें के पीछे , काम , कामना , क्रोध , लोभ , मोह , भय , आलस्य एवं अह्नाकार की ऊर्जा न हो वह कर्म कर्म संन्यासी बनाता है / He who has conrol over his nature [ action is the function of nature and nature is formed by the combination of three natural modes ] ,

भोग से आगे

गीता सूत्र – 2.71 विहाय कामान् य : सर्वान् पुमान् चरति नि : स्पृह : निः ममः निः अहंकार : स : शांतिम् अधिगच्छति // काम , स्पृहा , ममता एवं अहंकार अप्रभावित , परम शान्ति में रहता है // One who is free from sex , attachement , mineness and ego , remains in complete peace . गीता सूत्र – 2.72 एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ न एनाम् प्राप्य विमुह्यति स्थित्वा अस्याम् अंत : काले अपि ब्रह्म – निर्वाणम् ऋच्छति // ऊपर सूत्र – 2.71 की स्थिति जब मिलती है तब वह योगी गुण – तत्त्वों से अप्रभावित रहता हुआ बरम मय स्थिति में अंत काल में ब्रह्म – निर्वाण को प्राप्त करता है // The state as explained in Gita – 2.71 is a divine frame of mind and intelligence and through this frame one gets Brahm – Nirvana . गीता के दो सूत्र हमें क्या बताना चाह रहे हैं ? हम इस समय जिस आयाम में हैं [ भोग – आयाम ] , गीता अपने दो सूत्रों से हमें वहाँ से उस आयाम को दिखाना चाह रहा है जो परम – आयाम है अर्थत … .. . भोग से सीधे ब्रह्म के आयाम में पहुंचानें का क

अपनें देह को समझो

गीता सूत्र – 18.20 सर्वभूतेषु येन एकम् भावं अब्ययम् ईक्षते अविभक्तं विभक्तेषु तत् ज्ञानं विद्धि सात्त्विकं जिस ऊर्जा से कोई जब सब में समभाव में एक अब्यय को देखता है , तब वह उर्जा सात्त्विक गुण की उर्जा होती है / T he energy through which one realizes the presence of Imperishable uniformally , that energy is the energy of the Goodness – mode . सब में समभाव से एक अब्यय को जो दिखाए वह हैं सात्त्विक गुण , गीता का यह सूत्र आप को ध्यान में स्वतः खीच लाएगा , बश आप इस पर मनन करते रहें / यहाँ गीता के दो और सूत्रों को देखते हैं गीता सूत्र – 14.11 सात्त्विक गुण से देह के सभीं द्वार ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित रहते हैं // गीता सूत्र – 5.13 देह में नौ द्वार हैं , यह सूत्र यह बताता है // नौ द्वारों में आँख [ दो ] , नाक [ दो ] , कान [ दो ] , एक मुह , एक मल – इंद्रिय , एक मूत्र – इंद्रिय हैं सभीं द्वार ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित रहते हैं , इस बात का क्या भाव है ? अर्थात ऐसा मनुष्य जिसके रगों में सात्त्विक गुण की धरा बह रही होती है उसका तन , मन ,

गीता का समत्व योग

गीता सूत्र – 2.48 योगस्थ : कुरु कर्माणि संगम् त्यक्त्वा धनञ्जय / सिद्धि - असिद्ध्यो समः भूत्वा समत्वं योगः उच्यते // आसक्ति जिस कर्म में न हो वह कर्म समत्व – कर्म योग होता है // Action without attachement is Evenness – Yoga . गीता का सूत्र आप देखे गीता के सूत्र को अपनें सुना अब इस सूत्र को अपनें बुद्धि में बसाओ और आगे जो आप करें , करनें के पहले उस कर्म के प्रतिबिम्ब को इस सूत्र के आइनें में देखें / यह सूत्र उनके दिन की धडकन होता है जो ----- गीता - योगी हैं जो स्थिर प्र ज्ञ योगी हैं जो गुणातीत योगी हैं जो कर्म संन्यासी हैं और जो ----- स्वतः ब्रह्म स्तर के हैं // ============== ओम् ==============

क्या है ज्ञान - विज्ञान

गीता अध्याय – 06 गीता सूत्र – 6.7 ज्ञान – विज्ञान तृप्तम् आत्मा कूटस्थ : विजीत – इन्द्रिय : / युक्त : इति उच्यते योगी सम्लोष्ट्र अश्म कांचन : // वह जिसकी इन्द्रियाँ नियोजित हैं , वह सम भाव योगी ---- ज्ञान विज्ञान से परिपूर्ण होता है // Whose senses are controlled ----- he is said to be in Evenness – Yoga and ----- he is filled with wisdom and knowledge [ Gyan – Vigyan ] . क्या है ज्ञान – विज्ञान ? गीता में यदि आप ज्ञान का अर्थ खोजते हैं तो आप को यह मिलता है ------ क्षेत्र – क्षेत्र - ज्ञयो : ज्ञानं एत् तत् ज्ञानं मतं मम --- गीता - 13.3 अर्थात क्षेत्र – क्षेत्रज्ञ का बोध ही ज्ञान है / क्षेत्र है पञ्च महाभूत + [ मन , बुद्धि एवं अहंकार + चेतना + आत्मा + सभीं प्रकार के विकार + सभी प्रकार के द्वैत्य + धृतिका ] / क्ष ेत्रज्ञ के सम्बन्ध में प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं , यह मैं हूँ जो क्षेत्र को समझता है / ज्ञान – विज्ञान उसे कहते हैं जिससे साकार – निराकार का संदेह रहित बोध होता है / ज्ञान –

मन मित्र एवं शत्रु दोनों है

गीता सूत्र – 6.5 , 6.6 उद्धरेत् आत्मना आत्मानं न आत्मानं अवसादयेत् / आत्मा हि आत्मनः बंधु : आत्मा एव रूपु : आत्मनः // मनुष्य का मन उसका मित्र एवं शत्रु दोनों है Mind is friend and enemy . बंधु : आत्मा आत्मन : तस्य येन आत्मा एव आत्मना जित : / अनात्मन : तु शत्रुत्वे वर्तेत आत्मा एव शत्रुवत् // जिसनें मन को जीत लिया है उसका मन उसका मित्र होता है पर जो मन जीता हुआ नहीं , वह शत्रु होता है / Conquered mind is a good friend but uncontrolled mind is enemy . गीता कह रहा है ------ नियंत्रित मन मित्र है और अनि यंत्रित मन शत्रु होता है // पहले तो यह समझना जरुरी है कि मित्र एवं शत्रु की परिभाषा क्या है ; कौन मित्र है और कौन शत्रु ? हम उसे अपना मित्र समझते हैं जो हमारे हाँ में हाँ मिलाए और ना में ना मिलाए , हम मित्र उसे कहते हैं जिसको हम रिमोट कण्ट्रोल करते हों और वह मौन रहता हो / जब हमें मित्र और शत्रु की परिभाषा समझ में आ जायेगी तब हमारा कोई न मित्र होगा और न कोई शत्रु क्योंकि मित्र – शत्रु कोई अलग अलग नहीं एक सिक्के के दो पहलू हैं

गीता संकेत भाग आठ

गीता सूत्र – 12.3 , 12.4 ये तु अक् षरं अनिर्देश्यम् अब्यक्तम् पर्युपासते / सर्वत्र – गम् अचिन्त्यम् च कूट – स्थं अचलम् ध्रुवं / संनियम्य इन्द्रिय – ग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः / ते प्राप्नुवन्ति माम् एव सर्व – भूत – हिते रताः // वह जो इंद्रियों को बश में करके अक्षर , अब्यक्त , स्थिर , अपरिवर्तनीय , अचल निराकार की उपासना समभाव में करते हैं वे भी अंततः मुझे हि प्राप्त करते हैं // But those who worship the Imperishable,the Undefinable,the Unmanifested , the Omnipresent , the Unthinkable , the Unchanging and the Immobile, the Constant by restraining all the senses , being evenminded in all conditions , rejoicing in the welfare of all creatures , they , too , finally come to Me. गीता में प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं , जो करना है करो लेकिन करो जरुर सभीं रास्ते मुझसे प्रारम्भ होते हैं और सनार का भ्रमण यदि होश मय रहा तो अंत में वे मुझ में बिलीन हो जाते हैं / प्रभु आगे कहते हैं , जो कहते हैं , मैं कृष्ण – भक्त हूँ , जो कहते हैं , मैं निराकार

गीता संकेत भाग सात

गीता संकेत – 07 गीता सूत्र – 7.29 जरा मरण मोक्षाय माम् आश्रित्य यतन्ति ये / ते ब्रह्म तत् विदु : कृत्स्त्रम् अध्यात्मम् कर्म अखिलम् // वह जो बृद्धावस्था , मृत्यु एवं मोक्ष के लिए यत्नशील हैं , वे बुद्धिमान ब्यक्ति मेरी शरण में आते हैं , ऐसे ब्यक्ति अध्यात्म कर्मों को एवं ब्रह्म को समझते हैं / Those who take refuge in Me and strive for deliverance from old age and death they know the Brahman and the Adhyam – Actions . गीता सूत्र – 7.29 का जो भाव ऊपर प्रस्तुत किया गया है वह मेरा नहीं उन लोगों का है जो गीत के सूत्रों पर अपना मत ब्यक्त किये हैं और लोगों द्वारा पूज्य हैं / अब आप मेरा भावार्थ भी देखें ------ प्रभु श्री कृष्ण एक सांख्य – योगी के रूप में अर्जुन को बता रहे हैं कि … ...... वह जो मेरी शरण को स्वीकारा है वह बृद्धावस्था , मृत्यु से भयभीत नहीं होता और मोक्ष से आकर्षित भी नहीं होता तथा जो अध्यात्म एवं अध्यात्म के मध्यम से ब्रह्म को समझता है // वह मन – बुद्धि जिनमें बंधन ही बंधन भरे हों उसमें प्रभु कैसे समा सकते हैं ? गीता में प्रभु यह

गीता संकेत भाग छः

गीता सूत्र – 2.42 , 2.43 , 2.44 , 2.45 यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्ति अविपश्चितः / वेदवादरता : पार्थ न अन्यत् अस्ति इति वादिनः // गीता 2.42 कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम् / क्रियाविशेष बहुलाम् भोग ऐश्वर्य गतिम् प्रति // गीता 2.43 भोग ऐश्वर्य प्रसक्तानाम् तया अपहृत – चेतासाम् / ब्यवसाय – आत्मिका : बुद्धिः समाधौ न बिधीयते // गीता 2.44 त्रै - गुण्य विषया : वेदाः निः त्रै गुण्य : भव अर्जुन / निः द्वन्द्वः नित्य – सत्त्व – स्थ : निः योग – क्षेम : आत्मवान् // गीता 2.45 ऊपर दिए गए सूत्रों में झाँकनें से पूर्व पहले गीता सूत्र – 10.35 का यह अंश देखते हैं ----- बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छंदसामहम् / अर्थात सामवेद में बृहत्साम गीत मैं हूँ और छंदों में गायत्री मैं हूँ , यह बात प्र भु श्री कृष्ण अर्जुन को बता रहे हैं , अब आगे -------- गीता सूत्र – 2.42 , 2.43 यहाँ प्रभु कह रहे हैं … .... अज्ञानी लोग वेदों के उन सन्दर्भों से अधिक आकर्षित होते हैं जो स्वर्ग प्राप्ति को परम लक्ष्य बताते हैं एवं अच्छे जन्म की प्राप्ति के उपाय बताते है

गीता संकेत भाग पांच

गीता संकेत – 05 गीता सूत्र – 12.6 , 12.7 ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संयस्य मत् - परा : / अनन्येन एव योगेन माम् ध्यायंत : उपासते // तेषाम् अहम् समुद्धर्ता मृत्यु संसार सागारात् / भवामि न चिरात् पार्थ मयि आवेशित चेतासाम // प्रभु का परा भक्त जो भी करता है , प्रभु के लिए करता है … .. और पराभक्त आवागमन से मुक्त हो जाता है // Those who are in unswerving devotion , their all actions ; meditation and worships are always for the Supreme One and such Bhaktas get liberation from the time – cycle [ birth , life and death ] . मनुष्य बार – बार जन्म लेता है , जीता है , मर ता है और पुन : जन्म लेता है , आखिर यह आवागमन का चक्र क्यों है और इस चक्र का केंद्र क्या है ? मन , मन है इस आवागमन चक्र का केन्द्र ; मन गुण तत्त्वों का गर्भ है और गुण तत्त्व ऎसी मादक मदिरा हैं जो मनुष्य की चेतना को बाहर झाकनें भी नहीं देते / वह ब्यक्ति जो इस सोच पर रुक गया कि आखिर हम बार – बार क्यों आते हैं और क्या जो हम कर रहे हैं यही करनें के लिए हमें बार – बार आना पड़ता है

गीता संकेत चार

गीता सूत्र – 15.8 शरीरं यत् अवाप्नोती यत् च अपि उत्क्रामति ईश्वरः / गृहीत्वा एतानि संयामी वायु : गंधान् इव आशयत् // जैसे वायु गंध को अपनें साथ रखती है वैसे आत्मा मन – इन्द्रियों को अपनें साथ रखता है // when Jiivaatma [ The Supreme Soul ] leaves the physical body It carries mind ans the senses as the wind carries perfumes from their places . गीता में प्रभ श्री कृष्ण का यह सूत्र जन्म – जीवन – मृत्यु - जन्म चक्र सिद्धांत का बुनियाद है / अकर्ता आत्मा जीवन – ऊर्जा का श्रोत है , प्रभु का अंश है और मन का गुलाम भी है / मन क्या है ? मन देह में वह ब्यवस्था है जो मनुष्य के सही - गलत सभीं कृत्यों के अनुभव का संग्रह करता रहता है और जिस समय जो अनुभव प्रभावी होता है मनुष्य उस समय वैसा ही कर्म करता है / आत्मा जब देह छोड़ता है तब इसके स्वचालित पंख [ मन ] इसे भ्रमण कराता रहता है जबतक कि मन को यथा उचित गर्भ नहीं मिलता और जब यथोचित गर्भ दिखनें लगत है तब आत्मा को साथ ले कर उस गर्भ में प्रवेश कर जाता है / स्त्री - पुरुष गर्भ के लिए जब आपस में मिलते हों उस समय उन दोनों की मनोदशा अपने