गीता संकेत भाग आठ

गीता सूत्र –12.3 , 12.4

ये तु अक्षरंअनिर्देश्यम्अब्यक्तम्पर्युपासते /

सर्वत्र – गम्अचिन्त्यम् चकूट – स्थंअचलम् ध्रुवं /

संनियम्य इन्द्रिय – ग्रामं सर्वत्र समबुद्धयः /

ते प्राप्नुवन्ति माम् एव सर्व – भूत – हिते रताः //

वह जो इंद्रियों को बश में करके अक्षर , अब्यक्त , स्थिर , अपरिवर्तनीय , अचल निराकार की उपासना समभाव में करते हैं वे भी अंततः मुझे हि प्राप्त करते हैं //

But those who worship the Imperishable,the Undefinable,the Unmanifested , the Omnipresent , the Unthinkable , the Unchanging and the Immobile, the Constant by restraining all the senses , being evenminded in all conditions , rejoicing in the welfare of all creatures , they , too , finally come to Me.

गीता में प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं , जो करना है करो लेकिन करो जरुर सभीं रास्ते मुझसे प्रारम्भ होते हैं और सनार का भ्रमण यदि होश मय रहा तो अंत में वे मुझ में बिलीन हो जाते हैं /

प्रभु आगे कहते हैं , जो कहते हैं , मैं कृष्ण – भक्त हूँ , जो कहते हैं , मैं निराकार ब्रह्म का उपासक हूँ , सभीं अज्ञानी हैं , वे नहीं बोलते , उनका अहंकार बोलता है और जबतक अहंकार की ऊर्जा प्रवाहित है तबतक मैं उनकी दृष्टि से दूर ही रहता हूँ / प्रभु को देखनें के लिए यथाउचित नेत्र चाहिए और नेत्र कहीं ऊपर से नहीं टपकते , ध्यान से भौतिक नेत्रों में वह रोशनी भर जाती है जो पारं सत्य को देखनें में सक्षम होती है /

वह जो प्रभु में बसा होता है,अपना बसेरा लोगों को नहीं दिखाता

वह जिसमें प्रभु के प्रीटी की धारा बह रही होती है,किसी को प्रमाण नहीं देता

वह जिसमें श्री कृष्ण की ऊर्जा भारी होती है,गीता पर प्रवचन नहीं करते

वह जिनको प्रभु के प्रसाद रूप में गुणातीत की स्थिति मिली है,रूप – रंग को नहीं देखते


=====ओम=========


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