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Showing posts from September, 2011

गीता संकेत भाग सात

गीता संकेत – 07 गीता सूत्र – 7.29 जरा मरण मोक्षाय माम् आश्रित्य यतन्ति ये / ते ब्रह्म तत् विदु : कृत्स्त्रम् अध्यात्मम् कर्म अखिलम् // वह जो बृद्धावस्था , मृत्यु एवं मोक्ष के लिए यत्नशील हैं , वे बुद्धिमान ब्यक्ति मेरी शरण में आते हैं , ऐसे ब्यक्ति अध्यात्म कर्मों को एवं ब्रह्म को समझते हैं / Those who take refuge in Me and strive for deliverance from old age and death they know the Brahman and the Adhyam – Actions . गीता सूत्र – 7.29 का जो भाव ऊपर प्रस्तुत किया गया है वह मेरा नहीं उन लोगों का है जो गीत के सूत्रों पर अपना मत ब्यक्त किये हैं और लोगों द्वारा पूज्य हैं / अब आप मेरा भावार्थ भी देखें ------ प्रभु श्री कृष्ण एक सांख्य – योगी के रूप में अर्जुन को बता रहे हैं कि … ...... वह जो मेरी शरण को स्वीकारा है वह बृद्धावस्था , मृत्यु से भयभीत नहीं होता और मोक्ष से आकर्षित भी नहीं होता तथा जो अध्यात्म एवं अध्यात्म के मध्यम से ब्रह्म को समझता है // वह मन – बुद्धि जिनमें बंधन ही बंधन भरे हों उसमें प्रभु कैसे समा सकते हैं ? गीता में प्रभु यह

गीता संकेत भाग छः

गीता सूत्र – 2.42 , 2.43 , 2.44 , 2.45 यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्ति अविपश्चितः / वेदवादरता : पार्थ न अन्यत् अस्ति इति वादिनः // गीता 2.42 कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम् / क्रियाविशेष बहुलाम् भोग ऐश्वर्य गतिम् प्रति // गीता 2.43 भोग ऐश्वर्य प्रसक्तानाम् तया अपहृत – चेतासाम् / ब्यवसाय – आत्मिका : बुद्धिः समाधौ न बिधीयते // गीता 2.44 त्रै - गुण्य विषया : वेदाः निः त्रै गुण्य : भव अर्जुन / निः द्वन्द्वः नित्य – सत्त्व – स्थ : निः योग – क्षेम : आत्मवान् // गीता 2.45 ऊपर दिए गए सूत्रों में झाँकनें से पूर्व पहले गीता सूत्र – 10.35 का यह अंश देखते हैं ----- बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छंदसामहम् / अर्थात सामवेद में बृहत्साम गीत मैं हूँ और छंदों में गायत्री मैं हूँ , यह बात प्र भु श्री कृष्ण अर्जुन को बता रहे हैं , अब आगे -------- गीता सूत्र – 2.42 , 2.43 यहाँ प्रभु कह रहे हैं … .... अज्ञानी लोग वेदों के उन सन्दर्भों से अधिक आकर्षित होते हैं जो स्वर्ग प्राप्ति को परम लक्ष्य बताते हैं एवं अच्छे जन्म की प्राप्ति के उपाय बताते है

गीता संकेत भाग पांच

गीता संकेत – 05 गीता सूत्र – 12.6 , 12.7 ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संयस्य मत् - परा : / अनन्येन एव योगेन माम् ध्यायंत : उपासते // तेषाम् अहम् समुद्धर्ता मृत्यु संसार सागारात् / भवामि न चिरात् पार्थ मयि आवेशित चेतासाम // प्रभु का परा भक्त जो भी करता है , प्रभु के लिए करता है … .. और पराभक्त आवागमन से मुक्त हो जाता है // Those who are in unswerving devotion , their all actions ; meditation and worships are always for the Supreme One and such Bhaktas get liberation from the time – cycle [ birth , life and death ] . मनुष्य बार – बार जन्म लेता है , जीता है , मर ता है और पुन : जन्म लेता है , आखिर यह आवागमन का चक्र क्यों है और इस चक्र का केंद्र क्या है ? मन , मन है इस आवागमन चक्र का केन्द्र ; मन गुण तत्त्वों का गर्भ है और गुण तत्त्व ऎसी मादक मदिरा हैं जो मनुष्य की चेतना को बाहर झाकनें भी नहीं देते / वह ब्यक्ति जो इस सोच पर रुक गया कि आखिर हम बार – बार क्यों आते हैं और क्या जो हम कर रहे हैं यही करनें के लिए हमें बार – बार आना पड़ता है

गीता संकेत चार

गीता सूत्र – 15.8 शरीरं यत् अवाप्नोती यत् च अपि उत्क्रामति ईश्वरः / गृहीत्वा एतानि संयामी वायु : गंधान् इव आशयत् // जैसे वायु गंध को अपनें साथ रखती है वैसे आत्मा मन – इन्द्रियों को अपनें साथ रखता है // when Jiivaatma [ The Supreme Soul ] leaves the physical body It carries mind ans the senses as the wind carries perfumes from their places . गीता में प्रभ श्री कृष्ण का यह सूत्र जन्म – जीवन – मृत्यु - जन्म चक्र सिद्धांत का बुनियाद है / अकर्ता आत्मा जीवन – ऊर्जा का श्रोत है , प्रभु का अंश है और मन का गुलाम भी है / मन क्या है ? मन देह में वह ब्यवस्था है जो मनुष्य के सही - गलत सभीं कृत्यों के अनुभव का संग्रह करता रहता है और जिस समय जो अनुभव प्रभावी होता है मनुष्य उस समय वैसा ही कर्म करता है / आत्मा जब देह छोड़ता है तब इसके स्वचालित पंख [ मन ] इसे भ्रमण कराता रहता है जबतक कि मन को यथा उचित गर्भ नहीं मिलता और जब यथोचित गर्भ दिखनें लगत है तब आत्मा को साथ ले कर उस गर्भ में प्रवेश कर जाता है / स्त्री - पुरुष गर्भ के लिए जब आपस में मिलते हों उस समय उन दोनों की मनोदशा अपने

गीता संकेत तीन

गीता संकेत में हम गीता के उन सूत्रों को देख रहे हैं जिनका सम्बन्ध मनुष्य , मृत्यु एवं परमात्मा से है / आइये देखते हैं इस सम्बन्ध में अगला सूत्र क्या कह रहा है ------ गीता सूत्र – 7.30 स – अधिभूत अधिदैवम् माम् स – अधियज्ञम् च ये विदु : / प्रयाण काले अपि च माम् ते विदु : युक्त – चेतसः // वह जो अधिभूत [ समयाधीन बस्तुओं में ] , अधिदैव [ ब्रह्मा के रूप में ] एवं अधियज्ञ [ यज्ञों के मूल रूप में ] मुझे देखता है , वह अंत समय में भी मुझे देखते हुए पूर्ण होश में प्राण त्यागता है और मुझे प्राप्त करता है // यह सूत्र कह रहा है ----- वह जिसका जीवन प्रभु केंद्रित रहा होता है वही अंत समय में भी प्रभु को देखता है // जब कोई आखिरी श्वास भर रहा होता है तब घर के सभीं लोग बहुत ब्यस्त जो जाते हैं . कोई भाग रहा है गंगा जल की खोज में , कोई भाग रहा है तुलसी दल की तलाश में , कोई गीता खोज रहा है और कोई डाक्टर को बुलानें गया होता है यह सुनिश्चित करनें के लिए , अभीं प्राण तन में तो नहीं कहीं अटक रहा / गीता में प्रभु यह नहीं कहते कि वह जिसका जीवन काम ,

गीता संकेत दो

गीता सूत्र – 8.8 अभ्यास – योग युक्तेन चेतसा न अन्य गामिना / परम् पुरुषं दिब्यम् याति पार्थ अनुचिंतयन् // मन में जिसके प्रभु बसते हों वह प्रभु में बसता है // ऊपर के सूत्र का शाब्दिक अर्थ कुछ इस प्रकार से बनाता है ----- जब अभ्यास – योग इतना गहरा हो जाए कि मन – बुद्धि पूर्ण रूप से प्रभु पर स्थिर हो जाएँ तब वह योगी परम् पुरुष को चिंतन के माध्यम से प्राप्त करता है / Through constant regular meditation fully attuned to the Self not wandering anywhere else , he reaches to the space where the realization of the absolute reality happens . ऊपर के सूत्र में अभ्यास – योग युक्तेन पर आप सोचें ; अभ्यास और अभ्यास योग दोनों में क्या फर्क है ? जिस कृत्य के साथ योग शब्द लगता है उस कृत्य में मन चालक नहीं रहता , मन के इशारे पर तन – इन्द्रियाँ नहीं चलती , मन तो मात्र जो हो रहा होता है उसका द्रष्टा बना हुआ रहता है / योग वह साधन है जहां मनुष्य अपनें मन को समझता है और मन में बह रही ऊर्जा को निर्विकार करके जहां पहुचता है उस स्पेस की बात गीता सूत्र – 8.8 में की

गीता संकेत भाग एक

गीता सूत्र – 8.6 यं यं वा अपि स्मरन् भावं त्यजति अन्ते कलेवरम् / तम् तम् एव एति कौन्तेय तत् भाव भावित : // प्रभु श्री कृष्ण अर्जुन को बता रहे हैं … ..... हे अर्जुन ! मृत्यु के समय मनुष्य जिस भाव में रहता है मृत्यु के बाद का उसका जन्म उस भाव की प्राप्ति के लिए होता है // Lord Krishna says ------ The Supreme Soul goes to that on which its mind remains set at the last moments . पिछले अंक में हमनें देखा जहां प्रभु कहते हैं … ..... आखिरी श्वास भरते समय जो मुझे अपनी स्मृति में रखता है वह मुझे प्राप्त करता है और यहाँ कह रहे हैं , अंत समय मन किस केन्द्र पर स्थिर रहता है उस ब्यक्ति का अगला जीवन भी उसी केंद्र पर केंद्रित रहता है / अब इस सूत्र के सम्बन्ध में कुछ सोचते हैं ------- चाहे कोई जाति का ब्यक्ति मरे उसे नहलाया जरुर जाता है दफनानें या जलाने के पहले / चाहे किसी जाती या धर्म का ब्यक्ति मरे , मरे हुए ब्यक्ति के साथ कुछ सुगन्धित चीजों को जरुर रखते हैं या जलाते हैं / हिंदू लोग चन्दन या धुप का प्रयोग करते हैं / यहाँ कुछ बातें बताई गयी जिसके बा

गीता संकेत भाग एक

गीता संकेत नाम से गीता के सूत्रों की एक श्रृंखला आज प्रारम्भ हो रही है , देखते हैं यह गीता मार्ग हमें कहाँ से कहाँ ले जाता है / गीता सूत्र – 8.5 अंत – काले च माम् एव स्मरन् मुक्त्वा कलेवरम् / यः प्रयाति सः मद्भावं याति नअस्ति तत्र संशयः // शाब्दित अर्थ --- यः अन्तकाले माम् स्मरन् मुक्त्वा कलेवरम् सः मद्भावं याति // अर्थात वह जो अंत समय आनें पर मात्र मुझे स्मरण करता है वह मेरे भाव को प्राप्त करता है // Whoever at the time of death gives up his body and departs keeping Me only in his mind alone , he touches Me , there is no doubt in it . गीता का यह सूत्र क्या इशारा दे रहा है ? क्या हरे राम हरे कृष्ण का जो जाप करता हुआ प्राण त्यागता है वह आवागमन से मुक्त हो जाता है ? वह जिसकी गर्दन कभीं नीचे न झुकी हो … .. वह जो अपना जीवन अहंकार की ऊर्जा से चलाया हो … . वह जिसके लिए काम ही जीवन का रस रहा हो … .. वह जो क्रोध , लोभ , ममता एवं भय में जीवन गुजारा हो … . वह यदि अंत समय में न चाहते हुए , मात्र मोक्ष प्राप्ति की कामना से …