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Showing posts from November, 2010

इतनी गहरी कामना और ------

इतनी गहरी कामना और ----- जा रहे हैं , कहीं और नहीं ------ मंदिर को ॥ ससार में इतनी गहरी कामनाओं की पूर्ति की जब सारी आशाएं टूट जाती हैं तब ........ कुछ फल ..... कुछ फूल ..... कुछ पूजा की सामाग्री के साथ ..... एक लोटा जल के साथ , हम चलते हैं - मंदिर को कुछ इस प्रकार की शायद ही हम स्वयं को पहचाननें में सक्षम हों । आँखें झुकी हुयी ..... मन में एक की प्राप्त के लिए अनेक विकल्पों का चक्रवात घूमता हुआ लेकीन बाहर से एक परम शांति में चलता हुआ एक पुतला ऐसा दिखता है , जैसे तुसामी चक्रवात में आया समुद्र के मध्य में एक पूर्ण शांत शिवलिंगम स्थित हो । गीता कहता है :--- कामना .... मोह ...... अहंकार , प्रभु के मार्ग के सबसे बड़े अवरोध हैं और हम ...... मंदिर का निर्माण करते ही है केवल ---- कामना .... मोह और ... अहंकार की पूर्ति के लिए , अब आप सोचना ------- कामना पूर्ति के लिए , मोहन प्यारे से हम कैसी मिल सकते हैं ? जबतक हमें भय का स्पर्श नहीं होता , हम मोहन प्यारे को कैसे याद कर सकते हैं ? तबतक हम मोह से अप्रभावित हैं , हमारा मन मोहन प्यारे को कैसे याद कर सकता है ? हम जिस दिशा की ओर गमन करते हैं , उस द

इतना गहरा भय और .......

प्रभु से इतना गहरा भय है लेकीन ----- हम प्रति दिन मंदिर जाते हैं , क्या कारन हो सकता है ? कहते हैं ------ शुद्ध प्यार में प्रभु का बसेरा होता है लेकीन ...... कौन जानना चाहता है की ...... शुद्ध प्यार है क्या ? दैनिक जीवन में हमारी उसकी ओर पीठ होती है , जिस से हम भयभीत रहते हैं और ...... इस स्थिति में प्रभु को हम कैसे देख सकते हैं ? हम प्रभु से क्यों इतना भयभीत हैं ? ----- [क] क्या प्रभु मंदिर की मूरत के रूप में हमसे कुछ कहता है और हम उसको करनें में सफल नहीं होते ? [ख] मंदिर जाते समय यदि मार्ग में कोई मिलता है और उसके साथ गप्प लगानें में हमारा पंद्रह मिनट लगता है तो मंदिर के अन्दर ज्यादा से ज्यादा हम पांच मिनट से अधिक नहीं रुक पाते - ऐसा क्यों ? मूरत के सामनें खडा होते ही हमारी आँखे बंद क्यों हो जाती हैं ? भय उसे होती है ----- जो अपनें गलती को समझता है ..... जो कुछ प्राप्त करनें के लिए गलत मार्ग चुनता है , और ---- जब प्रभु की मूरत के सामनें हम खड़े होते हैं ...... तब सच्चाई का सामना हम कर नहीं पाते और भय में ..... बाहर भागते हैं ॥ अगले अंक में देखते हैं ---- शुद्ध प्यार क्या है ? ====

गीता में क्या है ?

गीता कब लिखा गया ...... गीता को लिखनें वाला कौन है ? .... इन प्रश्नों में ऐसे लोग उलझते हैं , जो ...... तर्क के बाहर निकलना नहीं चाहते ॥ दो बातें हैं ...... तर्क , और ..... समर्पण ॥ जो बुद्धि से कुछ कमजोर है , वह प्रारम्भ में समर्पित हो जाता है , और जो ..... बुद्धि के धनी हैं , वे थकनें के बाद समर्पण में पहुँचते हैं ॥ गीता का लेखक चाहे कोई भी रहा हो लेकीन वह ...... पूर्ण रूप से बुद्धि का धनी ब्यक्ति रहा होगा ॥ गीता के शब्दों को देखिये ----- योगी , सन्यासी , कर्म - योगी , सांख्य - योगी , ज्ञान - योगी , बैरागी , स्थिर - प्रज्ञ , ... कुछ इस प्रकार के शब्दों की श्रृंखला है , और दूसरी श्रृंखला है ..... आसक्ति , काम , कामना , क्रोध , लोभ , मोह , भय , आलस्य और अहंकार जैसे शब्दों की , और .... योग- युक्त , ब्रह्म युक्त , तत्ववित्तु , गुनातीत , परा भक्त , कुछ ऐसे भी शब्द हैं ॥ कुछ ऐसे शब्द हैं जैसे - प्रकृति , पुरुष , आत्मा , जीवात्मा , ब्रह्म , माया , परमेश्वर , क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ ॥ अलजबरा [ बीज गणित ] में एक अध्याय है - पर्मुतेसन और कम्बिनेसन का जिसमें गिनतियों के जोड़ों को लेकर अनुमान

प्रभु कहते हैं ------

गीता सूत्र - 9.18 सृष्टि और प्रलय का कारण , मैं हूँ ॥ गीता सूत्र - 9.19 सत - असत , मृत्यु और अमृत , मैं हूँ ॥ गीता सूत्र - 13.13 निराकार ब्रह्म मेरे अधीन है , जो न तो सत है न ही असत ॥ गीता सूत्र - 11.32 मैं महा काल हूँ ॥ जब अमेरिका जापान पर एटम बम्ब फेका और लाखों लोग मरे तब ------ महान वैज्ञानिक - ओपन हीमर इस श्लोक को कहते हुए ..... अपनें पद से स्तीफा दे दिया था , उनका कहना था .... मैं मृत्यु हूँ , यह मुझे पता न था , इतनें लोगों के खून के धब्बे को मैं धो नही पाउँगा ॥ ===== ॐ ======

गीता में प्रभु कहते हैं ---------

हे अर्जुन ! तूं अपनें कर्म को माध्यम बना कर मेरे रहस्य में झाँक सकते हो ॥ तेरा कर्म तब माध्यम बनेगा जब तेरे कर्म में ......... [क] आसक्ति न हो ----- [ख] कोई कामना न हो ---- [ग] क्रोध की ऊर्जा न हो --- [घ] मोह की छाया न पड़ती हो , उस कर्म पर ........ [च] क्रोध की अग्नि में बैठ कर कर्म न किया जा रहा हो ....... [छ] और अहंकार के सम्मोहन में कर्म न हो रहा हो ....... गीता के कर्म - योग का सारांश आप ऊपर देख रहे हैं अब सोचिये -------- ** जहां हम - आप अभी हैं क्या संभव है की ....... हम से कर्म तो हो रहा हो और जैसा होना चाहिए ठीक वैसे ही हो रहा हो लेकीन ....... उस कर्म के पीछे कोई कारण न हो ? बिना कारण कौन सा कर्म का होना संभव है ? बिना कारन कर्म कब हो सकता है ? क्या उस स्थिति तक पहुंचनें के लिए कुछ करना पड़ेगा ? आप कर्म - योग के सम्बन्ध में जो बातें ऊपर बताई गयी हैं उन पर गहराई से सोचें क्यों की गहराई से सोचनें से ही कुछ मिल सकता है । प्रोफ़ेसर आइन्स्टाइन कहते हैं :------ मेरे पास भी वही दिमाक है जो औरों के पास है , फर्क एक है ------ लोग समस्या को पीठ दिखा कर भाग लेते हैं और मैं ---- समस्या में बस

अहंकार - गीता सूत्र

गीता के चार सूत्र यहाँ दिए जा रहे हैं जिनका सीधा सम्बन्ध अहंकार से है ॥ गीता सूत्र - 18.24 अहंकार की ऊर्जा जिस कर्म में हो , वह राजस कर्म होता है ॥ गीता सूत्र - 18.17 जो अहंकार रहित है , वह अपनें इन्द्रियों , मन एवं बुद्धि का गुलाम नहीं होता ॥ गीता सूत्र - 2.71 अहंकार , ममता , कामना और इन्द्रिय - सुख से अनासक्त जो है , वह है - स्थिर - प्रज्ञ ॥ गीता सूत्र - 3.27 करता भाव , अहंकार का प्रतिबिम्ब है ॥ आप इन सूत्रों को गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित गीता में देखें और इनको अपनें जीवन में देखनें की कोशिश करते रहें ॥ गीता परिधि से केंद्र की यात्रा है जहां ..... एक दिन ----- न इन्द्रियाँ गुमराह करेंगी न मन भांग पिलाएगा न बुद्धि संदेह के पिजड़े में पहुंचाएगी न अहंकार का अता - पता होगा और जिसका पता मह्शूश होगा , वह हम सब के साथ ही है , बश- ऊपर चढ़े चादर को उठाना भर है ॥ ===== ॐ ====

अहंकार को समझो - 02

आखिर क्या है यह अहंकार ? कुछ बातें यहाँ दी जा रही है हो सकता है आप को कुछ सहूलियत मिले , अहंकार को समझनें में । [क] गुणों का द्रष्टा ज्ञानी होता है और अहंकार का द्रष्टा योगायुक्त योगी होता है ॥ [ख] अहंकार परायों को अपना और अपनों को पराया बना कर पेश करता है ॥ [ग] अहंकार एक ऎसी अग्नि है जिसमें धुँआ नही होता ॥ [घ] भिखारी का अहंकार ज्यादा बिषैला होता है राजा के अहंकार की तुलना में ॥ [च] अहंकार का नियंत्रण इन्द्रिय , मन और बुद्धि पर होता है ॥ [छ] अहंकार खाली पेट रहनें को बाध्य कर देता है ॥ [ज] अहंकार की ऊर्जा में मन की गति और तेज हो जाती है ॥ [झ] अहंकार सत की ओ र रुख नहीं करनें देता ॥ [त] अंततः अहंकार मौत के मुह में पहुंचा देता है ॥ ====ॐ=====

अहंकार को समझो

आप अपनें पौराणिक कथाओं पर एक नज़र डालें ----- हमारे ऋषियों को कुछ इस ढंग से प्रस्तुत किया गया है जैसे नशे में हों , जी लोगों का काम है ---- बात - बात पर श्राप देना ... जैसे जा तूं अगले जन्म में अजगर बनेगा ...... जा तूं अगले जन्म में छिपकली बनेगा , आदि - आदि ॥ हमारे ऋषि लोग जो अपनी सुरक्षा तो कर नही पाते , उनको बचानें के लिए अवतार होते हैं ---- संभवामि युगे - युगे [ गीता - 4।8 ] इस से साफ़ - साफ़ जाहिर होता है की अहंकार का असर तब तक रहता है जब तक तन में प्राण है । गीता में प्रभु कहते हैं ....... तीन गुणों की मेरी माया है , जिसमें दो प्रकृतियाँ ; अपरा और परा हैं । अपरा प्रकृति के आठ तत्वों में से एक तत्त्व है - अहंकार । अहंकार दो प्रकार के होते हैं - धनात्मक और रिनात्मक । धनात्मक अहंकार राजस गुण के तत्वों के साथ होता है और रिनात्मा अहंकार तानस गुणों के तत्वों के साथ यात्रा करता है । अहंकार एक ऐसा तत्त्व है जो बैराग्यावस्था में पहुंचनें तक पीछा नहीं छोड़ता और योगी, बैराग्य से गिर कर नीचे की योनियों में जन्म ग्रहण करता है । बुद्ध कहते हैं ---- हम दूसरों की गलती पर स्वयं को सजा देते हैं क्यो

मोह सम्बंधित गीता सूत्र

यहाँ हम गीता के कुछ सूत्रों को देख रहे हैं जिनका सीधे सम्बन्ध है - मोह से । गीता में प्रभु के लगभग पांच सौ से भी कुछ अधिक सूत्र हैं और सब का रुख किसी न किसी तरह से मोह की ओर ही है क्योंकि ---- गीता अर्जुन के मोह की दवा है । गीता सूत्र - 1.28 - 1.30 तक यहाँ अर्जुन जो कुछ भी बोलते हैं जैसे ..... मेरा सर चकरा रहा है ..... मेरे बाल खड़े हो रहे हैं ....... शरीर में मेरे कम्पन हो रहा है ...... मेरा गला सूख रहा है ........ मेरी त्वचा में जलन हो रही है ...... मेरी स्मृति खंडित हो रही है ...... यह सब मोह के लक्षण हैं ॥ गीता सूत्र - 2.52 यहाँ इस सूत्र में प्रभु कहते हैं ----- मोह के साथ वैराग्य में कदम रखना असंभव है ॥ गीता सूत्र - 10.3 इस सूत्र में प्रभु कहते हैं ---- मोह वाला ब्यक्ति मुझको नहीं समझ सकता ॥ गीता सूत्र - 4.35 प्रभु कहते हैं ------ मोह क अंत होता है तब जब ज्ञान की किरण फूटती है ॥ गीता सूत्र - 18.72 - 18.73 गीता सूत्र 18.72 अर्जुन का है और सूत्र - 18.73 प्रभु का है लेकीन दोनों काया भाव एक ही है । दोनों सूत्र कहते हैं ------ अज्ञान , स्मृति का खंडित होना , भ्रम का उठाना - यह सब मोह मे

मोह की ऊर्जा क्या है ?

मोह , भय और आलस्य एक ऊर्जा के तीन रूप हैं जो तामस गुण की ऊर्जा है । मोह और भय एक साथ रहते हैं : कभी मोह आगे दिखता है तो कभी भय । गीता की मुख्य जड़ है - मोह ; अध्याय एक में अपनें सगे - सम्भंधियों को देख कर अर्जुन के अन्दर जो ऊर्जा बहती है , वह है , मोह की ऊर्जा । अर्जुन क्या करनें वहाँ - कुरुक्षेत्र में गए थे , जब उनको युद्ध नहीं करना था ? क्या वे पहले यह नहीं जानते थे की उनको किन - किन से युद्ध करना है ? कुरुक्षेत्र में दोनों सेनाओं के मध्य खड़ा हो कर अपनें सभी सगे सम्बन्धियों को देख कर अर्जुन भाउक हो उठते हैं , इसका सम्बन्ध उनके अन्दर स्थिति गुण समीकरण से हैं । वे गए तो थे , युद्ध के लिए लेकीन जब अपनों में नौजवानों , बुजुर्गों , गुरुओं और सगे सम्बन्धियों को देखते हैं तो उनके अन्दर का राजस गुण फीका पड़ जाता है और राजस का फीका पड़ना ही तामस गुण है । हो सकता है , वहाँ उपस्थित अपनें सगे - सम्बन्धियों में बहुतों को अर्जुन मुद्दत के बात देखें हो और उन लोगों को देखनें के बात भाउक हो उठना स्वाभाविक भी है । गीता में वे सभी रसायन हैं जो मोह को , चाहे वह कितनी पुरानी हो , उसे जड़ से निकालनें की

लोभ सम्बंधित कुछ गीता के सूत्र

गीता के तीन सूत्रों को यहाँ दिया जा रहा है जो आप को माया से परे पहुँचानें में एक ऊर्जा का संचार आप के अन्दर कर सकते हैं , बशर्ते आप इनको अपनाएं ॥ गीता सूत्र - 14.12 लोभः प्रवृत्ति आरम्भः कर्मणां अशमः स्पृहा । रजसी एतानि जायन्ते विवृद्धे भारत - रिषभ ॥ गीता सूत्र - 16.21 त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनं आत्मनः । काम: क्रोधः तथा लोभः तस्मात् एतत त्रयं त्यजेत ॥ गीता सूत्र - 5.23 शक्नोति इह एव य: सोढुं प्राक शरीर विमोक्षणात । काम - क्रोध उद्भवम वेगम स युक्तः स सुखी नरः ॥ गीता के तीन सूत्र कह रहे हैं ---- क्रोध राजस गुण का एक तत्त्व है । काम क्रोध , लोभ नरक के द्वार हैं । काम - क्रोध से अछूता , सुखी इन्शान होता है । ==== ॐ ======

लोभ क्या है ?

लोभ को कुछ इस प्रकार से समझते हैं : हम खुली मुट्ठी में जब किसी चीज को बंद करना चाहते हैं तो उसको कहते हैं - कामना । जब हम बंद मुट्ठी को बिना खोले उसमें कुछ और को कैद करना चाहे हैं तो इस भाव को कहते हैं - लोभ । काम , कामना , क्रोध और लोभ - इन सब का एक केंद्र है , एक ऊर्जा है , जिसको कहते हैं - राजस गुण [ Passion mode ]। राजस गुण की प्रारम्भिक ऊर्जा को आसक्ति कहते हैं , आसक्ति जब सघन होती है तब वह कामना बन जाती है , कामना के टूटनें का भय , क्रोध उपजाता है , और भय के साथ जो कामना होती है अर्थात कमजोर राजस ऊर्जा की कामना , उसे कहते हैं लोभ । जो हमारे पास है पर हम उसकी मात्रा को और बढ़ाना चाहते है चाहे उसकी जरुरत हो या न हो तो यह भाव जिस ऊर्जा से उठता है , उसे कहते हैं - लोभ । आगे अगले अंक में गीता के कुछ सूत्रों को देखते हैं जिनका सम्बन्ध लोभ से है ॥ ===== ॐ ======

क्रोध और गीता

क्रोध के सम्बन्ध में यहाँ हम गीता के कुछ सूत्रों को ले रहे हैं -------- गीता सूत्र - 2.62 - 2.63 इन्द्रिय - बिषय का मेल आसक्ति पैदा करता है , आसक्ति कामना का बीज है और ..... कामना टूटनें का भय , क्रोध का कारण बनता है । क्रोध पाप कर्मों का माध्यम है ॥ गीता सूत्र - 3.37 राजस गुण का मुख्य तत्त्व काम है और क्रोध काम ऊर्जा का रूपांतरण है ॥ गीता सूत्र - 4.10 राग , भय और क्रोध रहित , ज्ञानी होता है ॥ गीता सूत्र - 2.56 राग , भय , क्रोध रहित समभाव - योगी , स्थिर प्रज्ञ होता है ॥ गीता सूत्र - 5.19 समभाव वाला ब्रह्म में होता है ॥ गीता के इन सूत्रों को अपना कर क्रोध अग्नि को समझा जा सकता है और .... यह समझ धीरे - धीरे जैसे - जैसे सघन होगी , आप धीरे - धीरे ब्रह्म मय होते जायेंगे ॥ ब्रह्म मय योगी के लिए यह प्रकृति और इसकी सभी सूचनाएं ब्रह्म के फैलाव के कारण हैं ॥ ब्रह्म मय योगी के लिए प्रकृति के कण - कण मरण ब्रह्म ही ब्रह्म दिखता है ॥ ब्रह्म परमानंद का स्थाई श्रोत है ॥ ब्रह्म के ऊपर प्रभु जो ब्रह्म का भी आश्रय है , उसे ब्यक्त करनें का कोई रास्ता नहीं है ॥ ===== ॐ =======

भोग - तत्त्व , क्रोध

गीता में क्रोध क्या है ? पहले हम क्रोध को समझते हैं और बाद में गीता के कुछ सूत्रों को देखेंगे जिनका सीधा सम्बद्ध क्रोध से है । राजस गुण के तत्त्व - काम , कामना , राग , लोभ और क्रोध में एक ही ऊर्जा होती है जिसको सहारा मिलता रहा है - अहंकार से । क्रोध दो प्रकार के हैं ; एक में अहंकार परिधि पर होनें से साफ़ - साफ़ दिखता है और दूसरा क्रोध कुछ इस प्रकार का होता है जिसमें राजस गुण कुछ कमजोर होनें से अहंकार अन्दर छिपा होता है । यह स्थिति क्रोध की तब आती है जब राजस गुण कमजोर हो रहा होता है और तामस गुण ऊपर उठ रहा होता है । कामना और काम की उम्मीद जब खंडित होती दिखती है तब क्रोध उठता है । गीता गुण - साधना में , गुण तत्वों की साधना करनी पड़ती है जिसमें क्रोध की साधना एक कठिन साधना है ॥ साधना से मनुष्य का स्वभाव बदलता है , स्वभाव से कर्म बदलता है और कर्म की गुणवत्ता का बदलाव मनुष्य को रूपांतरित करने लगता है और धीरे - धीरे गुण साधक साकार से निराकार में अर्थात प्रकृति से ब्रह्म की ओर अनजानें में कदम बढानें लगता है । गुण साधना का फल है - ज्ञान और ज्ञान है - वह जो प्रकृति - ब्रह्म के प्रति होश जगाय

कामना के सम्बन्ध में गीता - सूत्र

गीता सूत्र - 6.1 योगासनों से कर्म करनें की ऊर्जा को नष्ट करके कोई योगी - संन्यासी नहीं बन सकता । कर्म ऐसा होना चाहिए जिसमें कर्म - फल की पकड़ न हो , तब वह कर्म , योगी - संन्यासी बनाता है ॥ गीता सूत्र - 6.3 कर्म - योग एवं कर्म - संन्यास - दोनों मुक्ति पथ हैं ॥ गीता सूत्र - 4.12 यज्ञों के माध्यम से देव - पूजन करनें से इक्षित कामनाएं पूरी हो सकती हैं ॥ गीता - सूत्र - 4.19 कामना - संकल्प रहित कर्म - योगी , ज्ञानी होता है ॥ गीता सूत्र - 7.20 - 7.22 तक देव पूजन से कामनाएं पूरी हो सकती हैं ॥ गीता के कुछ सूत्रों के सारांशों को आप के सामनें रखा गया है , कुछ इस प्रकार से की गीता को वैज्ञानिक बुद्धि में बैठाया जा सके , अब आप इसका प्रयोग अपनें जीवन में किस तरह से करते हैं , यह आप के ऊपर है ॥ एक बात और स्पष्ट कर देते हैं : देव पूजन से इक्षित कामनाओं का पूरा होना क्या है ? जो मांगो ,वही मिलेगा - ऎसी बात नहीं है , मनुष्य को योगी जीवन जीनें के लिए जिन कामनाओं की आवश्यकता हो सकती है , केवल उनकी पूर्ति , देव पूजन से संभव है , वह भी यज्ञों के माध्यम से ॥ अब देखिये यज्ञ क्या हैं ? प्रभु मय होनें के लिए जो

कामना सम्बंधित गीता सूत्र

कामना के सम्बन्ध में जो कुछ भी पिछले अंक में बताया गया है उनसे सम्बंधित कुछ गीता सूत्रों को , हम यहाँ ले रहे हैं । सूत्र - 2.55 , 2.70 , 2.71 कामना रहित ब्यक्ति स्थिर - प्रज्ञ होता है और स्थिर प्रज्ञता साधाना की आखिरी स्थिति होती है ॥ सूत्र - 6.2 , 6.4 भोग से अनासक्त योगी , कामना - संकल्प रहित , योग में आरूढ़ होत्ता है , यहाँ इस बात को समझ लें की संकल्प और कामना का गहरा रिश्ता होता है ॥ सूत्र - 18.2 कर्म यदि बिना कामना के हो रहा हो तो ऐसा कर्म संन्यासी बनाता है ॥ गीता के छः सूत्रों को , इस दिवाली पर मेरे तरफ से एक प्यार के रूप में , आप को भेट ॥ ===== ॐ =====

भोग तत्त्व - 02

कामना पहले , आसक्ति में बताया गया ----- आसक्ति कामना का बीज है , और अब ---- हम देख रहे हैं की ---- कामना क्या है ? बुद्ध कहा करते थे :------ कामना दुष्पूर होती है अर्थात ...... कामना वह है , जिसका प्रारम्भ तो है लेकीन अंत न हो ॥ एक कामना दुसरे को , दूसरी तीसरी को जन्म देती चली जाती है कामनाओं में घिर कर मनुष्य स्वयं को खोता चला जाता है , और उस दिन , जब ------ यम राज सामनें खड़े होते हैं तब सारी दुनिया को खरीदनें की औकात वाला भी एक पल की भीख मांगता है की एक पल और मिल जाए तो वह, वह काम करलें जो अधूरा है , लेकीन -------- कामनाएं हमें ठीक उस तरह फुसलाती है जैसे हम बच्चों को फुसलाते हैं । कामना करना तो ठीक है लेकीन कामना का गुलाम बन कर जीवन गुजारना , ठीक नहीं , यह एक नशा है । प्रभु के आयाम में कदम रखनें वाला भी कामना से यात्रा करता है और नरक में जानें वाला भी कामना की खिडकी से टिकट लेता है । कामना में उठी होश , प्रभु के द्वार को दिखाती है , और .... कामना का गंभीर नशा ...... नरक को स्वर्ग बताते हुए आगे - आगे भगाते हुए एक दिन ---- नरक के मध्य में खडा कर देता है ॥ अगले अंक में कामना की क

गीता सन्देश - 15

आसक्ति भोग ऊर्जा का बीज है आप ज़रा सोचना ----- भोग न होता तो योग की बात कैसे होती ? दुःख न होता तो सुख को कौन जानता ? पराये का भाव न होता तो अपनें शब्द का क्या होता ? हमारे पास ऎसी कौन सी ऊर्जा है जो सोचनें को मजबूर करती है ? हमारी सोच का मूल केंद्र क्या होता है ? हमारी सोच हमें सुख में पहुंचाती है या दुःख में ? सोचनें का परिणाम यदि दुःख है तो हम इतना सोचते क्यों हैं ? हमें कभी - कभी इन प्रश्नों के बारे में एकांत में बैठ कर सोचना चाहिए और इन की जो सोच होगी ....... वह सोच रहित होनें के रहस्य में पहुंचा सकती है । सोच , आसक्ति का बीज है ...... आसक्ति से कामना , संकल्प , विकल्प उठते हैं जो भोग तत्त्व हैं और हमें भोग का गुलाम बनाते हैं । कामना में बिघ्न पड़ने पर क्रोध उठता है , और ..... क्रोध अहंकार की ऊर्जा का सूचक होता है । यह मैं नहीं कह रहा , यह बातें प्रभु श्री कृष्ण गीता में ----- अर्जुन को बता रहे हैं ॥ गीता कोई सांप नहीं है ..... गीता से डरना और भयभीत रहना उनका काम है , जो ....... न आस्तिक हैं ---- और ...... न नास्तिक , ==== ॐ ======

गीता सन्देश - 14

आसक्ति एक भोग ऊर्जा है ------ हम इस समय गुण तत्वों में आसक्ति को देख रहे हैं , तो चलिए! आगे देखते हैं की ..... गीता क्या कह रहा है ? गीता सूत्र - 3.35 जैसे आसक्त ब्यक्ति कर्म करता है वैसे कर्म को एक अनासक्त ब्यक्ति को भी करना चाहिए ॥ गीता सूत्र - 3.26 + 3.29 अज्ञानी जो कर रहा है उसके कर्म में ज्ञानीजन को दखल नहीं देना चाहिए अर्थात धार्मिक बातों में उलझाकर उसके ध्यान को हिलाना नहीं चाहिए ॥ गीता सूत्र - 2.62 - 2.63 इन्द्रिय - बिषय मिलन से मन में मनन उठता है जो आसक्ति पैदा करता है , आसक्ति से कामना आती है और जब कामना टूटनें का अंदेशा दिखता है तो कामना की ऊर्जा क्रोध में बदल जाती है ॥ गीता की इन बातों में आप अपनें को घुलानें की कोशीश करें , कुछ और .... अगले अंक में ........ ==== ॐ ======