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गीता मर्म - 06

गीता श्लोक - 8.8 प्रभु मय होनें के लिए प्रभु को अपनें मन में बसाना होता है । मनुष्य के मस्तिष्क में प्रभु की खोज की ग्रंथि क्यों है , क्यों प्रभु को पकड़ना चाहता है ? सभी जीवों के पास सिमित बुद्धि है और मनुष्य के पास असीमिति , इस कारण से मनुष्य सभी जीवों का सम्राट है । मनुष्य सब को अपना गुलाम बनाना चाहता है और सोचता है -- सब को तो देख लिया कुछ मजा न आया क्यों न उसे देखा जाए जो संभवतः सब का मालिक है जैसा सभी धर्म कहते हैं । मनुष्य को मंदिर जाते देख कर भ्रमित नहीं होना चाहिए , उसे प्रभु से कोई लेना देना नहीं , वह तो अपनी चाह पूरी करानें का माध्यम तलाश रहा है और जब कोई नहीं मिलता तो चल पड़ता है , मंदिर को । गीता में प्रभु कहते हैं --- यदि तुम मुझे समझना चाहते हो तो मेरे को अपनें मन में बसाओ और यह भी कहते हैं - गीता - 12.3 - 12.4 में -- प्रभु की अनुभूति मन - बुद्धि से परे की है , इस बात को समझना चाहिए । साकार उपासना का आधार मन है और निराकार की उपासना मन - बुद्धि से परे की है । साकार साधना निराकार का द्वार खोल सकती है यदि रुकावट न आये । जो भक्त साकार में रुक गया , उसकी साधना खंडित ही हो जा