Posts

Showing posts from March, 2013

गीता आध्याय - 13 , भाग - 14

गीता श्लोक - 13.21  पुरुषः प्रकृतिस्थ: हि भुङ्क्ते प्रक्रितिजान् गुणां / कारणं गुणसंगः अस्य सद्सद्योनिजन्मसु // प्रकृति में पुरुष स्थित है .... प्रकृति में तीन गुणों के पदार्थ हैं .... प्रकृति में स्थित गुण - पदार्थों का भोक्ता पुरुष है .... यह भोग उसके अगले जन्म को निर्धारित करता है // गीता का सांख्य योग दर्शन कहता है ---- परमात्मा से तीन गुण हैं .... तीन गों का माध्यम माया है .... परमात्मा मायापति है .... परमात्मा में ये गुण नहीं हैं .... तीन गुणों के भाव प्रभु से हैं .... लेकिन प्रभु भावातीत है .... देह में आत्मा [ पुरुष ] प्रभु का अंश है ... देह में इसका केंद्र ह्रदय है लेकिन यह सर्वत्र है .... देह में प्रभु [ जीवात्मा रूप  में ] सभीं प्रकार के भाव उत्पन्न करते हैं .... भावों का सम्मोहन भोग में उतारता है .... जैसा भोग भाव होगा , वैसा भोग होगा , जैसा भोग होगा , उस जीवात्मा को उसी तरह की योनि मिलेगी .... मन कामनाओं का केंद्र है --- जीवात्मा जब देह त्यागता है तब इसके संग मन भी होता है ---- मन में उस समय जो अतृप्त सघन भोग भाव रहता है

गीता अध्याय - 13 भाग - 13

गीता श्लोक - 13.20  कार्यकरणकर्तृत्वे हेतु : प्रकृतिः उच्यते /  पुरुषः सुख्दुखानाम् भोक्तृत्वे हेतु : उच्यते // " कार्य और करण की उत्पत्ति प्रकृति से है .....   सुख - दुःख का भोक्ता पुरुष है "  Effects and causes are generated by the Prakriti [ nature ]  and experience of pleasure and pain is through Purusha [ undefinable ] . कार्य और कर्ण को समझते हैं :------- पांच बिषय और पांच महाभूत कार्य कहलाते हैं  और  10 इन्द्रियाँ + मन + बुद्धि + अहँकार को करण कहते हैं  अर्थात  05 बिषय , 10 इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि एवं अहँकार की उत्पत्ति प्रकृति से है  और  सुख - दुःख का अनुभव पुरुष के माध्यम से होता है // यहाँ गीता के इस श्लोक  के सम्बन्ध में आप गीता से गीता में निम्न श्लोकों को भी देखें -------- 9.10 , 13.5 - 13.6 , 14.3 - 14.4 , 7.4 - 7..6  बिषय , ज्ञान इन्द्रियाँ , मन - बुद्धि , कर्म इन्द्रियाँ और कर्म की सिद्धी गणित गीता में दी गयी है /  गीता कहता है ..... ज्ञान इंद्रियों का स्वभाव है अपनें - अपनें बिषयों की तलाश करते रहना और जब जिसको अपना बिषय मिल जाता है

गीता अध्याय - 13 भाग - 12

गीता श्लोक - 13.19 प्रकृतिम् पुरुषं च एव विद्धि अनादि उभौ अपि /  विकारान् च गुणान् च एव विद्धि प्रकृतिसंभवान् // " प्रकृति और पुरुष अनादि हैं , सभीं विकार एवं गुण प्रकृति से हैं " " Prakriti and Purush [ nature and consciousness ] both are beginningless and eternal and three natural modes and their elements are from the nature . " प्रकृति और पुरुष क्या हैं ? ये दो शब्द सांख्ययोग की बुनियाद हैं और सांख्ययोग गीता में प्रयोग तो किया गया है लेकिन उसके दर्शन को बदला गया है / गीता में प्रकृति दो प्रकार की हैं ; अपरा और परा / अपरा के आठ तत्त्व है ; पञ्च महाभूत , मन , बुद्धि एवं अहँकार और परा को चेतना कहते हैं / सभी चर - अचर इन दो प्रकृतियों से हैं / गीता का पुरुष एक नहीं दो हैं ; एक क्षर और दूसरा अक्षर [ श्लोक - 15.16 ] / क्षर पुरुष , है देह और अक्षर पुरुष है,  इसमें रहने वाली देही अर्थात प्रभु के अंश रूप में जीवात्मा / गीता में महेश्वर , परमेश्वर , ईश्वर , ब्रह्म और पुरुष इन सब शब्दों की एक परिभाषा दी गयी है और वह है,  श्री कृष्ण ही  निराकार रूप में पुरुष , आत