Posts

Showing posts with the label समर्पण

गीता अमृत - 24

समर्पण प्रभु से जोड़ता है यहाँ हमें गीता के निम्न सूत्रों को देखना है तब गीता के अर्जुन के समर्पण की बात , कुछ स्पष्ट हो पायेगी । गीता श्लोक - 1.22, 2.7, 2.31, 2.33, 8.7, 10.9 - 10.11, 11.1, 11.37, 11.51, 18.62, 18.65 - 18.66, 18.72 - 18.73 अब पहले इनको देखते हैं ---- [क] भक्ति का प्रारंभ समर्पण से होता है । [ख] बुद्धि - योग की सिद्धि पर समर्पण भाव का उदय होता है । [ग] सकारण समर्पण मोह या कमजोर अहंकार की छाया है । [घ] निष्काम समर्पण , प्रभु से जोड़ता है । आइये ! अब चलते हैं गीता में जहां समर्पण से सम्बंधित श्री कृष्ण एवं अर्जुन को देखते हैं ---- [क] श्री कृष्ण महाभारत युद्ध को धर्म युद्ध कहते हैं [ गीता - 2.31, 2.33 ] और अर्जुन इसको ब्यापार कहते हैं [ गीता - 1.22 ] , अब आप यह देखें की जब दोनों की प्रारंभित सोच ही भिन्न - भिन्न है तो दोनों एक मत कैसे हो सकते हैं ? [ख] श्री कृष्ण स्वयं को परम ब्रह्म , परम धाम एवं सृष्टि के आदि - मध्य एवं अंत के रूप में स्वयं को बताते हुए कहते हैं ......तूं मेरी शरण में आजा , ऐसा करनें से तेरा कल्याण होगा और तू परम गति को प्राप्त करेगा [गीता - 8.7, 10...