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गीता अमृत - 69

आसक्ति रहित कर्म , गीता का कर्म है यहाँ देखिये , गीत श्लोक --- 2.62 - 2,63 3.5 4.18 - 4.20 5.3, 5.6, 5.10 - 5.13 6.1 - 6.2, 6.4 10.7 18.4, 18.6, 18.9, 18.10 - 18.11, 18.33 - 18.35, 18.49, 18.50, 18.54 - 18.56 गीता कहता है .... कर्म रहित मनुष्य को एवं दोष रहित कर्म को खोजना असंभव है । मनुष्य कर्म रहित एक पल भी नहीं रह सकता और ऐसा कोई कर्म नहीं जिसमें दोष न हो । गीता कहता है .... मनुष्य जो कर्म करता है , वह गुणों के सम्मोहन का फल है , गुण प्रभावित कर्म , भोग कर्म हैं जिनके भोग काल में सुख मिलता है लेकीन उस सुख में दुःख का बीज होता है । गीता कहता है .... कर्म के होनें के पीछे यदि गुण तत्वों की पकड़ न हो तो वह कर्म , योग कर्म हैं । योग कर्म आसक्ति , कामना , संकल्प एवं अहंकार रहित होता है जिसके माध्यम से भावातीत की स्थिति मिलती है और भावातीत की स्थिति में प्रभु की झलक मिलती है । आसक्ति रहित कर्म से निष्कर्मता की सिद्धि मिलती है जो ज्ञान योग की परा निष्ठा है , परा भक्त हर पल प्रभु से परिपूर्ण रहता है । ====== ॐ =========