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Showing posts from November, 2009

क्या सिद्ध योगी को खोजना पड़ता है ?

आप को इस प्रश्न के लिए गीता के 27 श्लोकों का सारांश देखना है जिसको यहाँ दिया जा रहा है । गीता को भय के साथ न उठायें , यह तो आप का मित्र है । मित्र वह होता है जो बाहर - अंदर दोनों चहरे को देखनें में सक्षम होता है । गीता-श्लोक 7.3 कहता है ------- सदियों के बाद कोई एक सिद्ध - योगी हो पाता है और हजारों सिद्ध - योगियों में कोई एक परमात्मा तुल्य योगी होता है । श्री कृष्ण यह बात अर्जुन के प्रश्न - 7 के सन्दर्भ में कह रहे हैं और प्रश्न कुछ इस प्रकार है ........ अनियमित लेकिन श्रद्धावान योगी का योग जब खंडित हो जाता है तथा उसका अंत हो जाता है तब उसकी गति कैसी होती है ? परम से परिपूर्ण बुद्ध को खोजना नहीं पड़ता , उनको खोजनें लायक होना पड़ता है । हम-आप बुद्ध को क्या खोजेंगे ? , वे संसार में भ्रमण करते ही इस लिए हैं की कोई ऐसा मिले जो उनके ज्ञान - प्रकाश को लोगों तक पहुंचा सके । दक्षिण के पल्लव राजाओं के घरानें का राजकुमार पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व कोच्ची से चीन मात्र इसलिए पहुँचा की वह बुद्ध - ज्ञान की ज्योति को उस ब्यक्ति को दे सके जो इस काम के लिए जन्मा है । इस महान योगी को लोग बोधी धर्म का नाम द

रहस्यों का रहस्य

न्यूटन का विज्ञानं 200 वर्षों तक विज्ञानं जगत पर छाया रहा लेकिन 20 वी शताब्दी के प्रारम्भ में अपनी पकड़ क्यों खोनें लगा ? सन 1918-1933 के मध्य ऐसा क्या हुआ की विज्ञान की दिशा बदल गई ? अब आप इस सम्बन्ध में पहले कुछ वैज्ञानिकों के विचारों को देखिये जो नोबल पुरष्कार प्राप्त किया है --- A- Max Plank , noble prize----1918 He says...... science can not solve the ultimate mistery of nature------every advance in knowledge brings us face to face to face the mystery of our own being. B- Albert Einstein, noble prize-----1921 He says......... When I read Bhagvad Gita and reflect upon how God has created this unverse, every thing else seems superflous. C- Werner Karl Heisenberg, noble prize ----1932 He says............ In all the world there is no kind of frame work within which we find Consciousness in the plural. This is something we construct because of the temporal plurality of indivisuals. But it is a false construction ......The only solution to this conflict, in so far as any is available to

हमारा वर्तमान

हमारा वर्तमान दो खूटियों पर लटक रहा है और ऐसे की स्थिति तनाव मुक्त कैसे रह सकती है ? दो खूटियाँ क्या हैं ? गीता कहता है ----कामना - मोह अज्ञान की जननीं हैं और करता भाव अहंकार की छाया है ....देखिये गीता सूत्र -- 7.20, 18.72, 18..73 और 3.27 राजस-तामस गुणों का योग एवं अहंकार --ये दो खूटियाँ हैं जो मनुष्य के वर्तमान को लटका कर रखती हैं । मनुष्य का भूत कब और कैसे गुजर जाता है , पता नहीं लग पाता वर्तमान में जब आँखें खुलती हैं तब तक दो खूटियों की तरंगे इन्द्रियों से बुद्धि तक भर चुकी होती हैं और मनुष्य अज्ञान में वही करता है जो भूत में कर रहा होता है । सम्मोहित मनुष्य जिसके ऊपर राजस-तामस गुणों एवं अहंकार का सम्मोहन होता है , वह सोचता है ------ मैं दुनिया में सबसे ऊँचा ब्यक्ति हूँ , परमं ज्ञानी हूँ , लोग मेरे इशारों पर चलते हैं और ऐसा ब्यक्ति स्वयं अपनीं पीठ रह - रह कर ठोकता रहता है । अज्ञान से भरा वर्तमान जिसके कण-कण से अहंकार एवं गुणों की बूंदे टपक रही हों , वह तनाव मुक्त कैसे हो सकता है ? अब देखते हैं वर्तमान की एक झलक ---------------------- [क] आज हम जिनके लिए संसार में इतना ब्यस्त हैं क

भोजन-भजन

भोजन भजन में और भजन भोजन में जब होता है तब वह योगी होता है । भोजन जब तक भूख मिटानें का साधन है तब तक वह भोजन सात्विक भोजन है और जब यह स्वाद आधारित होता है तब राजस - भोजन होता है। आइये पहले गीता के कुछ श्लोकों को देखते हैं --------- श्लोक 17.7---17.10 गुणों के आधार पर तीन प्रकार के लोग हैं और उन सबका अपना-अपना भोजन हैं । सात्विक लोग साकाहारी एवं सरल भोजन पसंद करते हैं, राजस गुन धारी मिर्च-मसाला वाला तीखा भोजन पसंद करते हैं और तामस गुन धारी लोग गंध युक्त भोजन चाहते हैं । सात्विक लोग ताजा भोजन करते हैं और अन्य दो बासी भोजन में रूचि रखते हैं । श्लोक 18.40 प्रकृति के कण-कण में तीन गुन हैं । श्लोक 14.10 मनुष्य में तीन गुणों का एक समीकरण होता है जो हर पल बदलता रहता है । श्लोक 14.5 तीन गुन आत्मा को देह में रोक कर रखते हैं । श्लोक 14.20, 13.19, 7.14 माया तीन गुणों का माध्यम परमात्मा से है जिस में प्रकृति-पुरूष को जोडनें का काम तीन गुन करते हैं और फल स्वरूप भूतों की रचना है । भोजन को समझनें के लिए हमें निम्न बातों को समझना चाहिए ------- भोजन तैयार करनें का जब भाव मन में उठे तब से भोजन करनें त

गीता का विज्ञान

यहाँ आप गीता के निम्न सूत्रों को देखें --------- 7.8, 7.9, 9.19, 10.23, 15.12, 15.15 यह गीता के छः सूत्र कह रहे हैं .......प्रकाश , ऊष्मा , पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण तथा आकाश का शब्द धारण करनें की क्षमता परमात्मा हैं । हम यहाँ ऊपर की चार बातों को अलग-अलग देखनें जा रहे हैं --------- प्रकाश Max Plank, Einstein, Broglei, Schrodinger, Heisenberg, C.V. Raman , Sarfatti इन सब को नोबल पुरस्कार मिला है और इनके बिषय किसी न किसी प्रकार प्रकाश से सम्बंधित रहें हैं । आज के विज्ञान का मुख्य बिषय प्रकाश ही है । आइन्स्टाइन का सारा शोध इस पर आधारित है की प्रकाश की गति परम गति है । प्रकाश पिछले तीन सौ वर्षों से विज्ञान का केन्द्र बना हुआ है लेकिन अभी भी असली राज राज ही है तो फ़िर क्या समझा जाए ? जो तब भी राज था , अब भी राज है और आगे भी राज ही रहनें वाला दीखता हो तो उसे क्या कहना चाहिए ? उष्मा 19th C.C.E.,Max Plank आग देख कर heat quanta की बात कही और इनकी यह बात आगे चल कर Quantum Mechanics की बुनियाद बन गयी , और इस ऊष्मा - कण की खोज के आधार पर कई लोगों को नोबल - पुरष्कार मिला । पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण 1

चाह का फल

गीता कहता है ....चाह अज्ञान की जननी है ----श्लोक 7.20 गोदी का बच्चा माँ की गोदी छोड़ना नहीं चाहता और ज्यों- ज्यों बड़ा होता जाता है माँ से दूर भागनें लगता है ...ऐसा क्यों ? बच्चा गर्भ में माँ की संवेदनाओं को ग्रहण करता रहता है और भारतीय गर्भवती महिला का हर पल भय में गुजरता है ; कभीं वह इस बात से चिंतित रहती है की बेटा होगा या बेटी , कभी गर्भ में पल रहे शिशु की सुरक्षा को ले कर भय होता है और कभी उसे अपनी सुरक्षा का भय सताता है । घर का मोहौल , अपनीं एवं शिशु की सुरक्षा, गर्भवती महिला के लिए भय के कारण हैं । मनुष्य को गर्भ से मोह- भय एवं कामना का अनुभव मिला हुआ है । गीता कहता है ---कामना एवं मोह- भय अर्थात राजस-तामस गुण अज्ञान की जननी हैं [ गीता ॥ 7.20 , 18.72- 18.73 ], जिसको जो पार कर गया ...... वह सत्य को जान गया लेकिन ज़रा सोचना क्या हम उसको छोड़ना चाहते हैं जो हमारे मुट्ठी में बंद है ? भय साथ खोजती है और छोटा बच्चा जिसको गर्भ से भय मिला है उसको माँ के रूप में एक सुरक्षा -कवच दीखता है और वह माँ को छोड़ना नहीं चाहता । धीरे- धीरे वक्त गुजरता जाता है , बच्चा बड़ा हो जाता है , उसे संसार अ

गीता, अर्जुन एवं श्री कृष्ण - 2

परम श्री कृष्ण कहते हैं........ साधना में अब्यक्त भाव की स्थिति में अब्यक्त अक्षर की अनुभूति ही परम धाम है ---गीता 8.21 अब आप अपनी बुद्धि इस सूत्र पर कुछ देर लगाएं , ऐसा करनें से आप को जो मिलेगा वह आप का अपना होगा जिसको आप बाटना चाहेंगे पर बाट न पायेंगे । अब्यक्त भाव भावातीत का दूसरा नाम है और अक्षर वह है जो सनातन है , जो प्रकृति का नाभि केन्द्र [ nucleous ] है । परम पवित्र सनातन निर्विकार पुरूष से प्रकृति है , प्रकृति से प्रकृति में टाइम - स्पेस है , विकार शब्द मन-बुद्धि की उपज है और यह निर्विकार की सोच का बीज है , यदि विकार शब्द न हो तो निर्विकार की कल्पना कैसे होगी ? परम श्री कृष्ण कहते हैं [ गीता 4.3 , 9.28- 9.29 , 10.1 , 18.57 ]--तूं मेरा प्रिय है , इसलिए गीता -ज्ञान मैं तेरे को दे रहा हूँ , तूं अपनें को मुझे समर्पित कर दे , ऐसा करनें से तूं मुझे प्राप्त कर लेगा और यह भी कहते हैं -- मेरा कोई प्रिय- अप्रिय नहीं , मैं सब में सम भाव से हूँ । अब आप अर्जुन की नीति को देखें -------------- गीता -श्लोक 10.12--10.13 में अर्जुन कहते हैं ....आप सत- असत से परे परम अक्षर परम धाम परम ब्रह

गीता, अर्जुन एवं श्री कृष्ण

गीता के अर्जुन एक सामान्य सांसारिक ब्यक्ति हैं जो उसको छोड़ना नहीं चाहते जो उनको पकड़ रखा है । गीता के श्री कृष्ण गुणातीत स्थिर प्रज्ञ साँख्य- योगी हैं । श्री कृष्ण एवरेस्ट से बोलते हैं और उनको सुननें वाला नीचे तराई में है जिसके ऊपर- ऊपर से बातें निकल जा रही हैं । अर्जुन प्रारंभ में जिस युद्ध से वे भागना चाहते हैं उसे ब्यापार उद्ध कहते हैं [ देखिये गीता - 1.22 ] , श्री कृष्ण उस समय तो चुप रहते हैं लेकिन बाद में [ देखिये गीता - 2.31....2.33 ] इस उद्ध को धर्म - उद्ध कहते हैं । अर्जुन और श्री कृष्ण की सोचों में यह बुनियादी अन्तर है । अर्जुन शास्त्रों के आधार पर कहते हैं ---इस उद्ध से हम सब का जाति- धर्म एवं कुल - धर्म नष्ट होगा [ देखिये गीता- 1.40.....1.46 ] , श्री कृष्ण जाति -धर्म तथा कुल- धर्म के सम्बन्ध में कुछ नहीं कहते बस इतना कहते हैं ---तूं पंडित शब्द का अर्थ तो जानता नहीं पर पंडितों जैसी बातें करता है [ देखिये गीता- 2.11 ] और बाद में स्व - धर्म एवं पर- धर्म की बात जरुर करते हैं [ देखिये गीता- 3.35 , 18.47 ], अब आप सोचिये की इस उद्ध में स्व कौन हैं ? और पर कौन हैं ? दोनों दल एक परि

गीतामें स्वर्ग,यज्ञ, कर्म सम्बन्ध

यहाँ हम एक जटिल बिषय पर गीता में झाकनें का प्रयत्न कर रहे हैं जिस के लिए निम्न श्लोकों को गहराई से देखना है , तो आइये पहले श्लोकों से परिचय करते हैं -------- 2.37- 2.38, 2.42- 2.46, 3.9- 3.15, 4.24- 4.33, 6.40- 6.45, 9.15, 9.20- 9.22, 17.11- 17.15 यहाँ गीता के अध्याय 2, 3, 4, 6, 9, तथा 17 के 38 श्लोकों में जो मिलता है वह कुछ इस प्रकार है ------- मनुष्य एक मात्र ऐसा जीव है जो प्रकृत से प्रकृत में है तो जरुर लेकिन अपनें को प्रकृत से अलग समझता है और यही कारण उसे सर्बोत्तम होनें पर भी सब से अधिक भयभीत रखता है । देखिये गीता-सूत्र 2.37- 2.38 श्री कृष्ण कहते हैं .....अर्जुन यदि तूं इस युद्ध में मारा जाता है तो तुझे स्वर्ग की प्राप्ति मिलेगी और यदि जीतता है तो राज्य का सुख मिलेगा , दोनों स्थितिओं में तेरा भला है अतः तूं युद्ध के लिए खडा हो जा । भोग का प्रलोभन दे कर युद्ध के लिए कह रहे हैं और आगे कहते हैं --यदि तूं सम- भाव में युद्ध करता है तो तेरे को कोई पाप भी नहीं लगेगा । अब आप श्री कृष्ण की आगे की बातों को देखिये ------ कर्म का होना मनुष्य के बस में नहीं है , मनुष्य गुणों के प्

अर्जुन का प्रश्न - 16

अर्जुन कहते हैं [ गीता श्लोक 18.1 ] , हे प्रभू! मैं संन्यास एवं त्याग को तत्त्व से जानना चाहता हूँ । अर्जुन का यह आखिरी प्रश्न है जिसके सम्बन्ध में श्री कृष्ण के 71 श्लोक [ आखिरी श्लोक 18.72] हैं , अर्जुन का एक और श्लोक 18.73 है तथा इस अध्याय के आखिरी पाँच श्लोक संजय के हैं। इस प्रश्न के सम्बन्ध में कुछ बातों को देख लेना जरुरी लग रहा है क्योंकि प्रश्नों के आधार पर गीता का समापन आ चुका है और अर्जुन अभी भी उसी मोह की स्थिति में दीखरहे हैं । बिषय, इन्द्रिय, मन, बुद्धि , भोग-तत्त्व [ आसक्ति , कामना , क्रोध, काम, लोभ, मोह , भय , अंहकार ] ,कर्म , कर्म -योग , ज्ञान , कर्म-संन्यास , बैराग्य , प्रकृति- पुरूष - संसार - समीकरण तथा आत्मा - परमात्मा को सुननें के बाद अर्जुन का यह प्रश्न अर्जुन की दयनीय मनो दशा की ओर इशारा करता है । अर्जुन अपनें प्रश्न दो एवं प्रश्न पाँच में कर्म- ज्ञान तथा कर्मयोग- कर्म संन्यास को जान चुके हैं और पुनः उन्हीं बातों को जाननें की इच्छा ब्यक्त कर रहें हैं - यह बात कुछ हलकी सी लगती है । यहाँ दूसरी बात देखनें की यह है --अध्याय तीन एवं अध्याय पाँच में कर्म , कर्मयोग, कर्

अर्जुन का प्रश्न - 15

अर्जुन पूछते हैं [ गीता श्लोक - 17.1 ]----हे प्रभू ! कृपया आप मुझे बताएं , शास्त्र बिधियों से हट कर परन्तु श्रद्घा पूर्बक पूजा करनें वालों की स्थिति सात्विक, राजस एवं तामस में से कौन सी होती है ? उत्तर में अध्याय - 17 के सभी अन्य 27 श्लोकों को देखना पडेगा। अब एक बार अर्जुन की स्थिति को देखते हैं; अभी तक गीता में श्री कृष्ण के 556 श्लोकों में से 458 श्लोकों को अर्जुन सुन चुके हैं लेकिन उनका मोह यथावत बना हुआ है । श्री कृष्ण सांख्य - योग के माध्यम से कर्म, कर्म -योग, ज्ञान , कर्म-संन्यास , भोग, काम, क्रोध , लोभ, मोह, भय , अंहकार , बैराग्य तथा आत्मा-परमात्मा एवं प्रकृति- पुरूष सम्बन्ध - रहस्यों को स्पष्ट कर चुके हैं लेकिन उनका यह प्रयाश असफल होता दिख रहा है । चाह के साथ राम से जुड़ना और काम से जुड़ना एक सा है --यह बात मैं नहीं गीता बता रहा है । चाह के साथ राम से जुड़ना नासूर है और काम से जुड़ना एक मामूली सा जख्म है जिसका उपचार सम्भव है , आप पौराणिक कथाओं को देखें जीतनें भी महान असुर / दानव/ राक्षस हुए हैं वे सभी मुनियों के श्राप के कारण हैं । हमारे मुनि लोग बात-बात पर श्राप देते हुए द

अर्जुन का प्रश्न - 14

अर्जुन जानना चाहते हैं [ गीता-श्लोक 14।21]...... गुणातीत की पहचान क्या है और गुणातीत कैसे बना जा सकता है ? अर्जुन का अगला प्रश्न गीता-श्लोक 17.1 से है अतः यहाँ हमें गीता के 50 श्लोकों [ गीता श्लोक 14.22--16.24] को और साथ में आठ अन्य श्लोकों [2.45,3.5,3.27,3.33,9.12-9.13,18.59-18.60] को भी देखना है । आइये अब चलते हैं उन श्लोकों को देखनें जिनकी चर्चा ऊपर की गयी है । ## श्लोक 14.22 से 14.27 तक श्री कृष्ण कहते हैं --सम भाव गुणों को करता देखनें वाला , गुणातीत योगी होता है । ## श्लोक 15.1 से 15.20 तक यहाँ श्री कृष्ण आत्मा- परमात्मा एवं संसार के सम्बन्ध को स्पष्ट किया है । ##श्लोक 16.1 से 16.24 तक + श्लोक 9.12- 9.13 श्री कृष्ण यहाँ मनुष्यों की दो श्रेणीओं के बारे में बताया है । ## श्लोक 2.45, 3.5, 3.27, 3.33, 18.59-18.60 श्री कृष्ण यहाँ कहते हैं --गुणों से स्वभाव का निर्माण होता है और मनुष्य स्वभावतः कर्म करता है , ऐसे सभी कर्म भोग- कर्म होते हैं । परम श्री कृष्ण गुन , स्वभाव एवं कर्म का जो समीकरण गीता अध्याय 14, 2, 3 तथा 18 में दिया है , उस बिषय पर वैज्ञानिक अनजानें में कुछ प्रयोग किया

अर्जुन का प्रश्न - 13

अर्जुन प्रश्न करते हैं [गीता-12.1].....हे प्रभू ! आप मुझे यह बताएं कि सगुण उपासक एवं निर्गुण उपासक में उत्तम योग वेत्ता कौन है ? प्रश्न के उत्तर में यहाँ हम गीता के 73 श्लोकों को देखेंगे [गीता- 12.2--14.20 तक ]जिनमें 25 निम्न श्लोक ध्यान के सूत्र हैं , आप इन पर ध्यान कर सकते हैं .......... 12.3-12.5, 13.1-13.3, 13.5-13.6, 13.12,13.15, 13.17, 13.19, 13.22, 13.24, 13.30, 13.32, 13.33, 14.3-14.5, 14.7-14.8, 14.17, 14.19, 14.20, श्री कृष्ण अर्जुन के प्रश्न का सीधा उत्तर नहीं देते फलस्वरूप भ्रमित अर्जुन का भ्रम और गहरा जाता है , इस बात को आप यहाँ देख सकते हैं । परम श्री कृष्ण कहते हैं ----सगुण उपासक उत्तम है [गीता-12.2] लेकिन निर्गुण उपासक दुर्लभ होते हैं [गीता-12.3-12.5, + 7.3+ 7.19,+ 14.20]क्योंकि यह उपासना कठिन उपासना है । परम श्री कृष्ण आगे कहते हैं ---[गीता-12.13- 12.20 तक ] , सम भाव योगी हमें प्रिय हैं और सम भाव योगी सगुण उपासक हो नहीं सकता । गीता सूत्र --2.47- 2.51, 3.19-3.20, 5.10-5.11, 4.38, 18.40-18.50, 18.54- 18.55 को जब आप एक साथ देखेंगे तब पता चलता है कि सम भाव क्या है औ

अर्जुन का प्रश्न - 12

अर्जुन कहते हैं [ गीता - श्लोक 11.45 , 11.46 ] ....हे प्रभु ! मैं आप का उग्र रूप देख कर भयभीत हो गया हूँ , आप कृपया मुझे अपना विष्णु रूप दिखाएँ । प्रश्न के उत्तर में हमें गीता-श्लोक 11.47 से 11.55 तक को देखना है क्योंकि अर्जुन का अगला प्रश्न गीता- श्लोक 12.1 से है । अर्जुन को तामस गुण से सात्विक गुण पर केंद्रित करनें के लिए परम श्री कृष्ण अभी तक क्या- क्या नहीं किए ; अपनें को परमात्मा बताते हुए लगभग सौ से भी अधिक साकार एवं निराकार रूपों को दिखा चुके हैं लेकिन अर्जुन का तामस गुण कमजोर पड़नें के बजाय और मजबूत हो रहा है । अर्जुन को अपना ऐश्वर्य रूपों को दिखानें के लिए परम श्री कृष्ण दिव्य नेत्र [गीता श्लोक 11.8 ] भी दिए लेकिन अर्जुन अब भी तृप्त नहीं दिख रहे । अर्जुन के लिए यह युद्ध एक ब्यापार है [गीता-श्लोक 1.22 ] और परम के लिए [गीता-श्लोक 2.31, 2.33 ] यह धर्म युद्ध है गीता की रचना होनें का यही बुनियादी कारण है । यदि प्रारंभ में श्री कृष्ण अर्जुन को यह बात स्पष्ट कर दिए होते की यह युद्ध कैसे धर्म युद्ध है ? तो शायद बात इतनी लम्बी न चलती । अर्जुन गीता श्लोक 11.17 में श्री कृष्ण को मुक

अर्जुन का प्रश्न - 11

अर्जुन पूछते हैं [गीता श्लोक ..11.31 ]---कृपया बताएं की उग्र रूप वाले आप कौन हैं ? अध्याय 2 से 9 तक गीता के 325 श्लोकों में अर्जुन के 18 श्लोक हैं तथा इन आठ अध्यायों में आठ प्रश्न हैं लेकिन आगे अध्याय 10 से 12 तक में इनके गीता के कुल 97 श्लोकों में से 59 श्लोक हैं एवं सात प्रश्न हैं -- यह बात सोचनें लायक है ....आप सोचिये और अर्जुन की ब्याकुलता को समझिये । अर्जुन का अगला प्रश्न गीता-श्लोक 11.45 से है अतः यहाँ हम 11.32 से 11.44 तक के श्लोकों को देखेंगे , जिनमे तीन श्लोक श्री कृष्ण के हैं , एक श्लोक संजय का है और नौ श्लोक अर्जुन के हैं । श्री कृष्ण कहते हैं-------- उग्र रूप में मैं इस समय महा काल हूँ जो सभी लोकों का विनाश करता है । मैं प्रति पक्षी सेना के लोगों को मार चुका हूँ , तूं इन मुर्दा लोगों को मार कर अपना नाम कमा , तूं भय रहित हो कर युद्ध कर । तू निमित्त मात्र बनजा ये लोग तो पहले ही मारे जा चुके हैं । अर्जुन कहते हैं ---आप सत-असत से परे हैं , ब्रह्मा के भी आदि करता हैं । गीता में [गीता श्लोक 9.19,13.12] में श्री कृष्ण कहते है --मैं अमृत- मृत्यु ,सत - असत हूँ और न सत हूँ न अस