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Showing posts from March, 2011

प्रज्ञा समीकरण

गीता सूत्र – 2.67 इन्द्रियाणां हि चरतां यत् मन : अनुविधीयते तदस्य हरति प्रज्ञां वायु : नावं इव अम्भसि जैसे पानी में चल रही नाव को वायु हर लेती है वैसे बिषयों से सम्मोहित इन्द्रिय के बश में हुआ मन प्रज्ञा को हर लेता है Mind attracted by the roving senses keeps controls over pure intelligence . प्रज्ञा क्या है ? इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि . प्रज्ञा , आत्मा - इन शब्दों का आपस में गहरा सम्बन्ध है प्रज्ञा आत्मा की ऊर्जा को सबसे पहले प्राप्त करती है , यह आत्मा के अति समीप है जिस पर सम्मोहित मन का प्रभाव तो रहता है लेकिन सम्मोहित इन्द्रियों का सीधा कोई प्रभाव नहीं होता प्रज्ञा के लिए कोई अंग्रेजी में शब्द नहीं है गीता तत्त्व विज्ञान कि गणित को देखिये ------- बिषय इन्द्रियों को सम्मोहित करते हैं … .......... इन्द्रियाँ मन को सम्मोहित करती हैं … ............ मन प्रज्ञा को सम्मोहित करता है … ................. लेकिन प्रज्ञा के साथ स्थित आत्मा पर कोई किसी का असर नहीं होता ===== ओम =========

इन्द्रिय ध्यान

गीता सूत्र – 2.60 यतत : हि अपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्रित : इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मन : || आसक्ति की ऊर्जा वाली इन्द्रियाँ मन को गुलाम बना कर रखती हैं | Impetuous senses keep mind in their control . गीता यहाँ क्या बताना चाह रहा है ? आसक्ति कि ऊर्जा क्या है और कहाँ से आती है ? इन्द्रियों का स्वभाव है अपने - अपनें बिषयों में विहरना और बिषयों में राग द्वेष होते हैं जो इन्द्रियों को सम्मोहित करते हैं | बिषयों से सम्मोहित इन्द्रिय मन को भी अपनें पक्ष में रखती है | जब मन सम्मोहित होजाता हा तब उन मन के साथ रहनें वाली बुद्धि भ्रमित हो जाती है और हर बात पर संदेह होनें लगता है | भ्रमित मन – बुद्धि में अज्ञान होता है जो असत को सत् और सत् को असत सा दिखाता है | राजस और तामस गुणों की छाया जबतक मन – बुद्धि पर है तबतक उस मन – बुद्धि में अज्ञान ही रहता है | ====== ओम =====

गीता सूत्र - 3.37

गीता सूत्र – 3.37 काम : एष : क्रोध : एष : रजोगुण समुद्भव : क्रोध काम का रूपांतरण है दोनों राजस गुण से हैं Anger is a form of the sex – energy .. Both are from the natural mode – passionate .. प्रभु की बानी क्या है ? यदि यह मांन लिया जाए की गीता के सारे श्लोक किसी के द्वारा बोले गए एवं किसी और के द्वारा लिपीबद्ध किये गए हैं तो प्रश्न उठता है की … ....... क्या गीता में कोई भी ऐसा सूत्र नहीं जो प्रभु श्री कृष्ण द्वारा बोला गया हो ? आखिर प्रभु की बानी किसी होती होगी ? प्रभु की बानी सुननें के बाद कोई प्रश्न बुद्धि में नहीं उठता , यह है - परम बानी की पहचान ; परम बानी में वह ऊर्जा होती है जो मनुष्य के अंदर पहुँच कर तन , मन एवं बुद्धि में बह रही ऊर्जा को निर्विकार कर देती है और निर्विकार ऊर्जा में ज्ञान की किरणें होती हैं जो अज्ञान को समाप्त कर देती हैं आप ऊपर गीता का एक सूत्र देखा , क्या आप के मन में कोई संदेह इस सूत्र के प्रति उठ रहा है ? आप गीता के सूत्रों को शांत मन से श्रवन जब करेंगे तब आप को यह धीरे - धीरे अनुभव होनें लगेगा की गीता उस का नाम है -------- जिसमें वह ऊर्जा

गीता सूत्र - 8.3 में कर्म की परिभाषा को कैसे समझें ?

भूत भाव उद्भव कर : विसर्ग : इति कर्म : गीता - 8.3 K arma is the name given to the creative force that brings into existence . This is the explaination given by Dr. Radhakrishanan . K arma infact is the creative impulse out of which life,s forms issue . T he whole cosmic evolution is called karma . गीता के इस श्लोक को समझनें के लिए आप को गीता के कुछ सूत्रों को समझना पड़ेगा जो आगे दिए जा रहे हैं । गीता - 2.62 - 2.63 मन में हो रहे मनन से आसक्ति बनाती है ----- आसक्ति कामना पैदा करती है ----- कामना राजस गुण के तत्त्व की ऊर्जा से है जिसका मूल है - काम ऊर्जा । काम - कामना दो नहीं एक ही हैं , कामना टूटनें का संदेह क्रोध उत्पन्न करता है .... क्रोध में ज्ञान अज्ञान से ढक जाता है और ..... अज्ञान में पाप कर्म होनें की ऊर्जा होती है ॥ गीता - 3.19 - 3.20 आसक्ति रहित कर्म प्रभु की अनुभूति कराता है ॥ गीता - 5.10 आसक्ति रहित कर्म करनें वाला भोग में कमल के पत्ते की भाँती रहता है उसे भोग की हवा तक नहीं छू पाती ॥ गीता के पांच सूत्र आप को ऊपर दिखाए गए , ये सूत्र उस ज्ञान - मार्ग के एक अंश मात्र हैं जि

Gita param shanti sutra

गीता परम शांति सूत्र यहाँ इस श्रृंखला में हम गीता के 116 उन परम सूत्रों को देख रहे हैं जिनका सीधा सम्बन्ध कर्म - योग से है । आप यदि चाहें तो इन सूत्रों को एक जगह एकत्रित करके अपनें लिए गीता ध्यान माला तैयार कर सकते हैं । आइये अब उतरते हैं अगले सूत्रों में ---------- ध्यायत : विषयां पुंस : संग : तेषु उपजायते । संगात सज्जायते काम : काम : कामात क्रोध : अभिजायते ॥ गीता 2.62 क्रोधात भवति सम्मोह : सम्मोहात स्मृति विभ्रम : स्मृति - भ्रंशात बुद्धि - नाश : बुद्धि - नाशात प्रणश्यति ॥ गीता 2.63 गीता के इन दो सूत्रों को देखिये जो कर्म योग की बुनियाद को दिखा रहे हैं ---------- बिषय के ऊपर जो मनन करता है ......... उसके मन में आसक्ति उपजती है । आसक्ति काम ऊर्जा का तत्त्व है जो कामना उत्पन्न करती है ....... कामना में पड़ी रुकावट ...... क्रोध की जननी है । क्रोध में सम्मोहन होता है ..... जो बुद्धि को सम्मोहित करके अज्ञान से ज्ञान को ढक देता है ॥ इस बात से अधिक स्पष्ट बात आप को और कहाँ मिलेगी ? आप गीता से क्यों दूर - दूर रह रहे हैं ? ------------------------------------------------ एक बात जो बातों की बा

गीता दृष्टि

इन्द्रिय - बिषय से सम्बंधित छ : बातें आँख , कान , नाक , जिह्वा और त्वचा के माध्यम से ------ द्रश्य , रूप - रंग , ध्वनि , गंध , स्वाद और संवेदना के माध्यम से हम प्रकृति से जुड़े हुए हैं ॥ बिषय अपनें अन्दर राग - द्वेष की ऊर्जा रखते हैं और हम उनसे आकर्षित होते रहते हैं ॥ राग - भय और क्रोध रहित ब्यक्ति प्रभु में होता है ॥ राग , भय एवं क्रोध रहित ब्यक्ति ज्ञानी होता है ॥ इन्द्रिय सुख लगता तो भला है पर उसका परिणाम दुःख में होता है ॥ इन्द्रिय , मन और बुद्धि में जिस गुण की ऊर्जा होती है मनुष्य का वैसा स्वभाव होता है और वैसा वह सोचता एवं करता है ॥ ===== ॐ ======

गीता किरण

बिषय इन्द्रिय संयोगात यत तत् अग्रे अमृत - उपमं परिणामे बिषम इव तत् सुखं राजसं स्मृतं गीता - 18.38 इन्द्रिय - बिषय सहयोग से जो सुख मिलता है वह प्रारम्भ में अमृत सा लगता है लेकिन उसका परिणाम बिष के समान होता है और ऐसे सुख को ........ राजस सुख कहते हैं ॥ Pleasure perceived by senses through their objects is passionate pleasure । Passionate pleasure appears as nector in the beginning but its result always lies in poison । LET US SEE ...... What is our perception about the pleasure we get through our senses and what is the definition of this pleasure in Gita ? गीता यह नहीं कहता की यह न करो । गीता कहता है ----- जो कर रहे हो उसे समझो ॥ गीता कहता है ---- जो कर रहे हो वह क्या है ? गीता कहता है ----- जो कर रहे हो वह तुमको कहाँ ले जा सकता है ? गीता आप का परम मित्र है , इस बात को आप को - हमें समझना है ॥ ===== ओम ======

गीता के दो संकेत

श्रोतं चक्षु : स्पर्शं च --- रसनं घ्राणं एव च । अधिष्ठाय मन: च --- अयं बिषयान् उपसेवते ॥ गीता - 15.9 जीवात्मा का सम्बन्ध देह से बाहर स्थित बिषयों से पांच ज्ञानेन्द्रियों एवं मन के माध्यम होता है ॥ The supreme Soul is connected with the five objects through five wisdom - senses and mind . यहाँ कुछ लोग आत्मा को भोक्ता समझ कर कुछ इस प्रकार से अर्थ लगाते हैं , इस सूत्र का ---- He enjoys the objects of the senses using the ear,the eye, the touch , the taste, the nose and the mind . सांख्य - योग में आत्मा मात्र द्रष्टा है अतः वह भावातीत स्थिति में रहता है अतः यह ऊपर का अर्थ भक्ति मार्गी - योगी के लिए तो उत्तम है लेकीन सांख्य - योगी के लिए नहीं । आत्मा प्रभु का ही एक नाम है और प्रभु करता नहीं करता तो गुण हैं , वह तो मात्र साक्षी है । मात्रा - स्पर्शा : तु कौन्तेय ---- शीतोष्ण सुख दुःखदा : । आगम अपयीन :अनित्या : तां तितिक्ष्स्व भारत ॥ गीता -2.14 इन्द्रिय सुख - दुःख तो क्षणिक होते हैं इनसे भ्रमित नहीं होना चाहिए ॥ Pleasure and pain are just feelings of senses and the come and go , one shouls

गीता की दो बूदें और ------

गीता तत्त्व विज्ञान में हम यहाँ एक सौ सोलह सूत्रों को एक - एक कर के देख रहे हैं । इस कड़ी के अंतर्गत कुछ और गीता ज्ञान - सूत्रों को देखते हैं ----- [क] वीत राग भय क्रोधा : मत - मया मां उपाश्रिता । वहव: ज्ञान तपसा पूता : मत भावं आगता ॥ सूत्र - 4.10 राग - भय क्रोध से आगे एक कदम और रखनें वाला ज्ञान में होता है और ज्ञान वह माध्याम है जिसमें प्रभु निराकार नहीं रह पाता, स्पष्ट दिखता रहता है ॥ not far away , just beyond one step from passion fer and anger is a gyaan medium [ wisdom medium ] where His abode is and for a man of wisdom HE does not remain invisible . [ख] सुखेषु अनुद्विग्र - मना सुखेषु विगत स्पृहा : स्थिति धी : मुनि उच्येत ॥ सूत्र 2.56 राग , भय क्रोध से अप्रभावित , मुनि होता है जो बुद्धि में स्थिर होता है ॥ He who is settled in intelligence is always unaffected by ---- passion .... fear ...... and anger AND such saint is always beyond all dualities गीता की दो अमृत - बूदें , देखते हैं ---- आप को कहाँ से कहाँ ले जाती हैं ॥ ==== ॐ ======

गीता के दो सूत्र

राग - द्वेष बिमुक्त ब्यक्ति प्रभु का प्रसाद पाता है ॥ गीता - 2.64 राग - द्वेष बिमुक्त ब्यक्ति प्रभु प्रसाद रूप में ----- परम आनंद और .... परम सत्य में रहता है ॥ गीता - 2.65 गीता की दो बातें आज के लिए पर्याप्त हैं ; आप इनको अपना कर परम सत्य की ओर चलनें की कोशिश कर सकते हैं ॥ क्या अर्थ लगाना ..... क्या गीता सूत्रों को पौराणिक बातों से जोड़ कर देखना ..... गीता तो ---- स्वयं में ...... परम गीत है ..... गुनगुनाते रहें और ..... इसी गुनगुनानें में नानक जी साहिब जैसा आप भी ..... उसमें कब और कैसे समा जायेंगे .... कुछ नहीं कहा जा सकता ॥ नानकजी साहिब को तेरह दुबोदिया था और ..... आप गीता में उस सूत्र को तलाश रहे हैं जो ..... आप को परम आनंद से मिला सके ॥ भागना नहीं ---- वह दिन दूर नहीं है ॥ ==== ॐ ======

gita sutra – 6.33

यः अयं योग : त्वया प्रोक्ता साम्येन मधुसूदन एवस्य अहं न पश्यामि चंचलत्वात स्थितिम स्थिरां // आप जो समत्त्व - योग की बातें मुझे बता रहे हैं उनको मैं समझनें में समर्थ नहीं हूँ क्योंकि मेरा मन पूर्ण रूप से अस्थिर हुआ पड़ा है , उसकी यह चंचलता मुझे आप की बातों से दूर रख रही है // the yoga of equanimity which is being explained to me by you , because of the wavering state of my mind , i am not in a position to understand it . the restlessness of my mind is keeping me away from your teachings . अर्जुन तामस गुण में डूबा हुआ है , संदेह से जिसकी बुद्धि भरी हुयी है , वह ऎसी बातें कैसे कर पा रहा है ? यह सोच का बिषय है / अर्जुन अपनें इस सूत्र में दो बातें कहते हैं :----- [क] मेरा मन अस्थिर है ------- [ख] आप समत्त्व - योग की बातें कर रहे हैं ------ अर्जुन की ये दोनों बातें शत प्रतिशत सत हैं // अर्जुन यह समझ रहे हैं की ……. प्रभु मुझे समत्त्व - योग में पहचाना चाहते हैं और उनकी यह सोच उचित भी है , पर लाचार हूँ, मन दिशाहीन गति में है // अर्जुन की यह बात जो गीता के इस श्लोक में छीपी है , वह है उनके

गीता यात्रा

  बीत राग भय क्रोधा: यत - मया मां उपाश्रिता : वहव : ज्ञान तपसा  पूता : मत् भावं आगता : गीता – 4.10   राग भय एवं क्रोध रहित ब्यक्ति का कदम ज्ञान में होता है // ज्ञान प्रभु मय बनाता है //   One step beyond the boundary of three natural modes viz sattvik , rajas and tamas lies the GYANA . It is gyana which purifies the intuitive energy and one gets filled with the absolute truth . Beyond the gravity of the three modes there is a strong gravity of the Real Supreme One . ==== om ======

गीता यात्रा

  कर्म में भगवान   गीता – 9.9   कर्मों में प्रभु करता रूप में नहीं ----- द्रष्टा रूप  में रहते हैं . In all actions the Supreme one is there as a …… witnesser and ….. not as a doer . As such actions do not bind Him   कर्म एक ऐसा माध्यम है जो सबको सर्वत्र एक समान मिला हुआ है / कर्म के बिया कोई एक पल भी नहीं रह सकता ----- कोई कर्म दोष रहित भी नहीं होता ------ कर्म करता मनुष्य नहीं , गुण हैं ----- प्रभु गुणों का जन्म देनें वाला है लेकिन स्वयम गुनातीत है ….. और यहाँ गीता कह रहा है की ------ कर्मों में प्रभु करता रूप  में नहीं ------ द्रष्टा रूप में रहते हैं / जिस दिन मनुष्य यह समझ लेगा की ---- वह जो कर रहा है उसमें प्रभु की भी उपस्थिति है उस दिन ----- उस घडी भोग कर्म योग कर्म में रूपांतरित हो जाएगा //   ===== ओम ========

गीता यात्रा

कर्म से भक्ति में कदम गीता में प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं ---- अर्जुन , ऐसा कोई नहीं जो कर्म बिना किये रह सके ; कर्म तो सब करते हैं और करते रहेंगे ॥ कर्म एक माध्यम है जो ........ सुख की ओर ले जा सकता है ---- जो दुःख का कारण भी बन सकता है ----- जो जीवन को नरक बना सकता है ..... और जो जीवन में स्वर्ग का अनुभव भी करा सकता है ॥ हम कर्म उसको समझते हैं जो ...... हमको भावों में बहाता रहता है , लेकीन ---- यह कर्म का प्रारम्भ है , कर्म तो एक मार्ग है जो ..... भोग से योग में पहुंचा कर उधर इशारा करता है ...... जिधर जो होता है उसको देखनें वाला वह होता है जिसका कर्म कर्म - योग बना गया होता है ॥ भावों से भावातीत में जो पहुंचाए ..... कर्म में जो अकर्म को दिखलाये ..... गुणों के सम्मोहन में जो निर्गुणी को दिखाए ---- वह है ..... वह कर्म , जिसकी चर्चा प्रभु अर्जुन से करते हैं ॥ ===== ॐ =====