गीता के दो संकेत




श्रोतं चक्षु : स्पर्शं च ---
रसनं घ्राणं एव च ।
अधिष्ठाय मन: च ---
अयं बिषयान् उपसेवते ॥
गीता - 15.9
जीवात्मा का सम्बन्ध देह से बाहर स्थित बिषयों से पांच ज्ञानेन्द्रियों एवं मन के माध्यम होता है ॥
The supreme Soul is connected with the five objects through five wisdom - senses and mind .
यहाँ कुछ लोग आत्मा को भोक्ता समझ कर कुछ इस प्रकार से अर्थ लगाते हैं , इस सूत्र का ----
He enjoys the objects of the senses using the ear,the eye, the touch ,
the taste, the nose and the mind .
सांख्य - योग में आत्मा मात्र द्रष्टा है अतः वह भावातीत स्थिति में रहता है अतः यह ऊपर का अर्थ
भक्ति मार्गी - योगी के लिए तो उत्तम है लेकीन सांख्य - योगी के लिए नहीं ।
आत्मा प्रभु का ही एक नाम है और प्रभु करता नहीं करता तो गुण हैं , वह तो मात्र साक्षी है ।

मात्रा - स्पर्शा : तु कौन्तेय ----
शीतोष्ण सुख दुःखदा : ।
आगम अपयीन :अनित्या :
तां तितिक्ष्स्व भारत ॥
गीता -2.14
इन्द्रिय सुख - दुःख तो क्षणिक होते हैं इनसे भ्रमित नहीं होना चाहिए ॥
Pleasure and pain are just feelings of senses and the come and go ,
one shouls not be
deluded by them .
Now you can think about ----
what is that pleasure and pain which is , but not experienced by our senses ?
सोचिये !
वह सुख - दुःख क्या है जो इन्द्रियों की पकड़ से परे का होता होगा ?
हम समझे हुए को ही बार - बार समझते रहते हैं , नयी समझ के लिए हमारे पास जगह ही नही दिखती
और वह हर पल हो रहा है अर्थात ----
वह नयेपन में झाँकता रहता है ॥
पुराना अर्थात निर्जीव और नया अर्थात सजीव ।
उसे सजीव में देखना सुगम है और निर्जीं में उसे पकड़ना कुछ कठिन सा होता है ।
जब योग फलित होता है तब .....
वह सर्वत्र दिखनें लगाता है ॥

==== ॐ ========

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