इन्द्रिय ध्यान
गीता सूत्र –2.60
यतत:हि अपि कौन्तेय
पुरुषस्य विपश्रित:
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि
हरन्ति प्रसभं मन: ||
आसक्ति की ऊर्जा वाली इन्द्रियाँ मन को गुलाम बना कर रखती हैं|
Impetuous senses keep mind in their control .
गीता यहाँ क्या बताना चाह रहा है?
आसक्ति कि ऊर्जा क्या है और कहाँ से आती है?
इन्द्रियों का स्वभाव है अपने-अपनें बिषयों में विहरना और बिषयों में
राग द्वेष होते हैं जो इन्द्रियों को सम्मोहित करते हैं|
बिषयों से सम्मोहित इन्द्रिय मन को भी अपनें पक्ष में रखती है|
जब मन सम्मोहित होजाता हा तब उन मन के साथ रहनें वाली बुद्धि
भ्रमित हो जाती है और हर बात पर संदेह होनें लगता है|
भ्रमित मन – बुद्धि में अज्ञान होता है जो असत को सत् और सत् को असत सा दिखाता है |
राजस और तामस गुणों की छाया जबतक मन – बुद्धि पर है तबतक उस मन – बुद्धि में अज्ञान ही रहता है |
====== ओम =====
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