gita sutra – 6.33
यः अयं योग : त्वया
प्रोक्ता साम्येन मधुसूदन
एवस्य अहं न पश्यामि
चंचलत्वात स्थितिम स्थिरां //
आप जो समत्त्व - योग की बातें मुझे बता रहे हैं उनको मैं समझनें में समर्थ नहीं हूँ क्योंकि मेरा मन पूर्ण रूप से अस्थिर हुआ पड़ा है , उसकी यह चंचलता मुझे आप की बातों से दूर रख रही है //
the yoga of equanimity which is being explained to me by you , because of the wavering state of my mind , i am not in a position to understand it . the restlessness of my mind is keeping me away from your teachings .
अर्जुन तामस गुण में डूबा हुआ है , संदेह से जिसकी बुद्धि भरी हुयी है , वह ऎसी बातें कैसे कर पा रहा है ? यह सोच का बिषय है /
अर्जुन अपनें इस सूत्र में दो बातें कहते हैं :-----
[क] मेरा मन अस्थिर है -------
[ख] आप समत्त्व - योग की बातें कर रहे हैं ------
अर्जुन की ये दोनों बातें शत प्रतिशत सत हैं //
अर्जुन यह समझ रहे हैं की …….
प्रभु मुझे समत्त्व - योग में पहचाना चाहते हैं और उनकी यह सोच उचित भी है , पर लाचार हूँ, मन दिशाहीन गति में है //
अर्जुन की यह बात जो गीता के इस श्लोक में छीपी है , वह है उनके निर्मल ह्रदय की एक झलक जो मूलतः तो निर्मल है पर इस वक्त बिकारयुक्त हो गया है //
===== ओम ========
Comments