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गीता मर्म - 40

सहजं कर्म कौन्तेय स- दोषं - अपि न त्यजेत । सर्व - आरम्भा: हि दोषेण धूमेंन अग्नि इव आब्रीता: ॥ 18।48 ॥ प्रभु श्री कृष्ण कह रहे हैं ------- अर्जुन ! सभी कर्म दोषयुक्त हैं ; जैसे अग्नि बिना धुँआ नहीं हो सकती वैसे कर्म बिना दोष के नहीं हो सकते लेकीन फिरभी सहज कर्मों को करना ही पड़ता है ॥ इस श्लोक से पहले दो गीता के श्लोक दिए जा चुके हैं ; श्लोक - 3.5 , 18.11 और इनके साथ ऊपर दिया गया श्लोक भी है , आप इन तीन श्लोकों को एक साथ समझें । प्रभु इन तीन सूत्रों में कह रहे हैं ......... सभी कर्म दोषयुक्त हैं , कर्म गुणों के सम्मोहन में होता है , मनुष्य तो द्रष्टा है , गुणों के माध्याम से होनें वाले कर्म दोषरहित हो नहीं सकते , ऎसी स्थिति में क्या करना चाहिए ? प्रभु कहते हैं ------- कर्म संसार में रहनें के लिए , शरीर को चलानें के लिए, तो करना ही पड़ता है , लेकीन यह एक सहज माध्यम है गुणों की साधाना के लिए । कर्म में कर्म बंधनों को समझना , कर्म योग है , जो कर्म योगी बना कर ज्ञान के माध्यम से गुनातीत परमात्मा की खुशबू से परिचय कराता है । जब कोई गुण - तत्वों से आकर्षित नहीं होता तो वह मायामुक्