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Showing posts from June, 2010

बुद्धि योग गीता भाग - 07

असत से सत की ओर गीता कहता है - कहीं भी कोई सत ऐसा नहीं जो असत से अछूता हो अर्थात सत की पकड़ तब संभव है जब असत की गहरी समझ हो और असत की गहरी समझ तब संभव है जब संसार में ब्याप्त गुण - तत्वों [ भोग तत्वों ] की गहरी समझ हो । वह जो भोग से भयभीत हो कर संसार से भाग कर संन्यासी बनना चाहते हैं क्या वे गीता - संन्यासी बन सकते हैं ? संन्यासी जैसा वेश - भूसा धारण करना कुछ और है और अंतःकरण से संन्यासी हो जाना कुछ और है । गीता कहता है - संन्यासी वह है जिसका मन - बुद्धि स्थीर हों , प्रभु पर और जो जो भी करता हो उस कृत्य में वह साक्षी भाव में रहता हो और यह तब संभव हो सकता है जब कर्म आसक्ति रहित हों । अर्जुन भी तो युद्ध से भाग कर संन्यासी का जीवन बिताना चाहते हैं पर होता क्या है ----- गीता आगे कहता है - सत भावातीत होता है । जब सत भावातीत होता है तब वह जो सत को समझता है , वह भी तो भावातीत में होना चाहिए क्योंकि भाव आधारित ब्यक्ति भावातीत को कैसे पहचान सकता है ? छठीं सताब्दी इशापुर्ब में थेल्स बोले - जीव के होनें का कारण पानी है । थेल्स के शिष्य अनाक्शीमंदर तुरंत बोल उठे - गुरूजी ज्ञात के होनें का कार

बुद्धि योग गीता भाग - 06

गीता में बुद्धि को बसाओ विज्ञान तर्क आधारित है और प्रभु के मार्ग में तर्क एक अवरोध है । संसार में आसक्त ब्यक्ति प्रभु को भी पाना चाहता है केवल भोग तृप्ति के लिए और प्रभु में भी भोग को ही तलाशता है । प्रभु में बसा ब्यक्ति भोग में भी प्रभु को ही पाता है । गीता कहता है ........ भोग और भगवान् एक साथ एक बुद्धि में एक समय नही समाते और प्रभु की अनुभूति मन - बुद्धि से परे की है । अब आप अपनी बुद्धि गीता के ऊपर दिए गए बचनों में लगाएं और खोजें उस रहस्य को जिसको प्रभु श्री कृष्ण अर्जुन को समुझाना चाहते हैं । गीता पढ़ना आसान है , गीता के श्लोकों को याद करना भी आसान है लेकीन गीता गंगा में बहते रहनें का आनद कोई - कोई ले पाता है । जब तक आप के ह्रदय का स्पंदन प्रभु श्री कृष्ण की ऊर्जा से नहीं जुड़ता तबतक आप गीता गंगा में बहनें का आनंद नहीं ले सकते। ===== ॐ ======

बुद्धि योग गीता - भाग - 05

गीता परम सागर में तैरो ** गीता एक परम सागर है , इसमें तैरो , डरो नहीं , यदि डूब गए तो पता तक न चल पायेगा और आप होंगे परम धाम में । ** गीता की तैराकी में थकान नहीं है , जितना तैरोगे उतना ही और तरो ताजा होते जायेंगे । ** इतना अपनें अंदर बैठाकर गीता की ओर चलें की गीता अमृत - बिष दोनों है । ** गीता से उपजा अहंकार संखिया जहर है और जब गीता से अहंकार समाप्त हो तो यह अमृत है । ** गीता की मैत्री कृष्णमय बनाकर परम आनंदित करती है । कृष्णमय होना क्या है ? गीता का शंख , चक्र , गदा एवं पद्म धारण किया हुआ कृष्ण एक माध्यम है , अपरा भक्ति परा भक्ति में तब पहुंचाती है जब इसमें गति रहती है और परा भक्ति कृष्ण मय होनें का द्वार है । कृष्ण मय योगी भावातीत होता है , गुनातीत होता है और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का द्रष्टा होता है । ===== ॐ =====