बुद्धि योग गीता भाग - 07


असत से सत की ओर

गीता कहता है - कहीं भी कोई सत ऐसा नहीं जो असत से अछूता हो अर्थात सत की पकड़ तब संभव है
जब असत की गहरी समझ हो और असत की गहरी समझ तब संभव है जब संसार में ब्याप्त गुण - तत्वों
[ भोग तत्वों ] की गहरी समझ हो । वह जो भोग से भयभीत हो कर संसार से भाग कर संन्यासी बनना चाहते हैं क्या वे गीता - संन्यासी बन सकते हैं ? संन्यासी जैसा वेश - भूसा धारण करना कुछ और है और अंतःकरण से संन्यासी हो जाना कुछ और है । गीता कहता है - संन्यासी वह है जिसका मन - बुद्धि स्थीर हों , प्रभु पर और जो जो भी करता हो उस कृत्य में वह साक्षी भाव में रहता हो और यह तब संभव हो सकता है जब कर्म आसक्ति रहित हों ।
अर्जुन भी तो युद्ध से भाग कर संन्यासी का जीवन बिताना चाहते हैं पर होता क्या है ----- गीता आगे कहता है - सत भावातीत होता है । जब सत भावातीत होता है तब वह जो सत को समझता है , वह भी तो भावातीत में होना चाहिए क्योंकि भाव आधारित ब्यक्ति भावातीत को कैसे पहचान सकता है ?
छठीं सताब्दी इशापुर्ब में थेल्स बोले - जीव के होनें का कारण पानी है । थेल्स के शिष्य अनाक्शीमंदर तुरंत बोल उठे - गुरूजी ज्ञात के होनें का कारण ज्ञात कैसे हो सकता है , जो होगा वह अज्ञात ही होगा ?
भावातीत केवल और केवल प्रभु हैं और कोई नहीं और जब ध्यानी / योगी गुनातीत की स्थिति में पहुंचता है तबउसका आत्मा देह में आजाद होता है और वह योगी जिस आयाम में होता है उस आयाम में प्रभु ही प्रभु दिखता है सर्वत्र , और कुछ नहीं दिखता ।
एक बात जरुर समझना होगा की गुनातीत योगी शरीर में चंद दिनों तक ही रहता है अंततः उसे अपना शरीर भी छोड़ना पड़ता है । गीता कहता है सत एवं असत [ देह + आत्मा ] के योग का नाम ही मनुष्य है
और जब
देह में बहनें वाली ऊर्जा पुर्णतः निर्विकार होती है तब वह योगी गुनातीत हो उठता है और तब उसे ब्रह्माण्ड सत से परिपूर्ण दिखता है और वह कुछ नहीं दिखता । जर्मनी का कवि - गेटे जब आखिरी श्वास भर रहा था तब
बोला - सारे दिए बुझा दो , अब मुझे परम प्रकाश दिख रहा है और ऐसा होना भी चाहिए ।

===== ॐ =====

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