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गीता मर्म - 10

कर्म त्याग क्या है ? पहली बात जो यहाँ समझनी चाहिए , वह है , त्याग क्या है ? लोग आम तौर पर कहते हैं ..... मैं शराब पीनी छोड़ दी....... मैं सिगरेट पीली छोड़ दी .... मैं शक्कर खानीं छोड़ दी .... आखिर यह छोड़ना क्या है ? मनुष्य एक ऐसा जीव है जो ----- कभी कुछ पकड़ता है और फिर कभी उसे छोड़ता है , मनुष्य की यह आदत क्यों है ? अन्य जीवों का मन - बुद्धि इतना नहीं सोचता जितना मनुष्य का सोचता है । मनुष्य की सोच मनुष्य में संदेह पैदा करता है और संदेह मनुष्य को कहीं रुक्नें नही देता । त्याग किया नहीं जाता , यह स्वतः हो जाता है , जो काम मन - बुद्धि स्तर पर किया जाता है उसमें अहंकार की गंध होती है और त्याग पभु का द्वार है । गीता कर्म के माध्यम से त्यागी , बैरागी , ग्यानी एवं गुनातीत योगी बनाना चाहता है और ऐसा योगी स्वतः प्रभु मय होता है । भोग कर्मों में भोग तत्वों की पकड़ का न होना उस कर्म को कर्म योग बना देता है । कर्म जब कर्म - योग बन जाता है तब वह योगी आसक्ति , कामना , संकल्प एवं अहंकार रहित स्थिति में कर्म करता है और इस दशा में वह यह नहीं समझता की ---- वह कर्म करता है .... वह समझता है की ----- गुण