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गीता अमृत - 25

जो है , वह किससे है ? सन्दर्भ गीता सूत्र 8.16 - 8.20, 3.22, 7.4 - 7.6, 13.5 - 13.6, 14.3 - 14.4, 13.19 13.33, 15.1 - 15.3, 15.6, 15.16, 14.20, 2.28 जो है , जो था और जो होनें वाला है सब अब्यक्त से है , अब्यक्त से था औरर अब्यक्त से होगा - यह बात गीता सूत्र 2.28 कहता है । वह अब्यक्त - प्रभु , परमात्मा , ब्रह्म एवं अनेक नामों से संबोधित किया जाता है लेकीन नाम मात्र इशारा होते हैं । अब्यक्त से तीन गुणों का एक माध्यम है जो सीमा रहित है सनातन है जिससे एवं जिसमें वैज्ञानिक टाइम स्पेस है और सभीं सूचनाएं हैं । इस माध्यम का नाम है - माया । माया से माया में दो प्रकृतियाँ हैं - अपरा एवं परा । अपरा प्रकृती को जड़ प्रकृति भी कहते हैं जिसमें आठ तत्त्व हैं - पृथ्वी , जल , अग्नि , वायु , आकाश , मन , बुद्धि एवं अहंकार । परा प्रकृति चेतना को कहते हैं । प्रकृति - पुरुष के योग से जीव हैं जिनमें पुरुष आत्मा - परमात्मा है जो निर्विकार सनातन समयातीत है और प्रकृति के रूप में देह है जो समयाधींन है एवं जो विकारों से परिपूर्ण है । गीता कहता है - समय की एक सायकिल है जिसको कल्प कहते हैं - एक कल्प एक ब्रह्मा