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Showing posts from April, 2013

गीता अध्याय - 13 भाग - 17

गीता श्लोक - 13.24  ध्यानेन आत्मनि पश्यन्ति केचित् आत्मानं आत्मना  अन्ये साङ्ख्येन योगेन कर्म योगेन च अपरे  " ध्यान माध्यम से किसी - किसी को प्रभु की झलक ह्रदय में मिलती है " " किसी - किसी को सांख्ययोग के माध्यम से मिलती है " " किसी - किसी को कर्म - योग के माध्यम से मिलती है " " Meditation , intelligence based yoga and action - yoga , these are the available sources through which one can reach to the ultimate realization of the Supreme " मनुष्य मात्र एक ऐसा प्राणी है जो अपनें लिए तो घर बनाता ही है प्रभु के लिए भी घर बनाता है और वह यह भी चाहता है कि प्रभु उसके ही घर में उसके परिवार का एक सदस्य बन कर रहें /  प्रभु कैसा है ? प्रभु कहाँ है ? प्रभु क्या है ? ऐसे एक नहीं अनेक प्रश्न हैं , मनुष्य की बुद्धि में और जब इन प्रश्नों को समझनें का मौक़ा आता है तब हम चूक  जाते हैं / ऐसा कोई मनुष्य नहीं होगा जिसके जीवन में प्रभु की एक झलक न मिली हो लेकिन ज्योही झलक मिलनी होती है , हमारी आँखें झपक पड़ती हैं /  मंसूर को जब झलक मिली तब वह बोल उठा - अन

गीता अध्याय - 13 भाग 16

गीता श्लोक - 13.23  यः एवं वेत्ति पुरुषं प्रकृतिम् च  गुणै: सह सर्वथा वर्तमानः अपि न सः भूयः अभिजायते  " जो प्रकृति - पुरुष को समझता है , उसका वर्तमान चाहे जैसा हो पर वह आवागमन मुक्त होजाता है " " The awareness of Prakriti [ nature ] and Purush [ the omnipresence ] takes to  liberation ." अध्याय - 13 के प्रारम्भ में प्रभु कहते हैं - क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ का बोध ही ज्ञान है / क्षेत्र अर्थात देह और क्षेत्रज्ञ अर्थात देह को चलानें वाली ऊर्जा का परम श्रोत प्रभु का अंश जीवात्मा /  अब देखिये गीता श्लोक - 13.20 जहाँ प्रभु कह रहे हैं ..... कार्य और करण प्रकृति से हैं / पांच बिषय और पञ्च महाभूत तत्त्व विज्ञान में कार्य कहलाते हैं और 10 इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि एवं अहँकार को करण कहते हैं / गीता श्लोक - 13.21 में प्रभु कहते हैं , प्रकृति में ही पुरुष स्थित है / अब इस तत्त्व ज्ञान को समझते हैं कुछ इस प्रकार से ----- एक परमेश्वर जिसका कोई साक्षी नहीं , कोई गवाह नहीं , कोई द्रष्टा नहीं तब जब प्रकृति न हो / परमेश्वर से परमेश्वर में तीन गुणों की उसकी मा

गीता अध्याय - 13 भाग - 15

गीता श्लोक - 13.22 उपद्रष्टा अनुमन्ता च भार्ता भोक्ता महेश्वरः / परमात्मा इति च अपि उक्तः देहे अस्मिन् पुरुषः परः // " अस्मिन देहे पुरुषः परः , उपद्रष्टा , अनुमन्ता , भर्ता , भोक्ता , महेश्वर च परमात्मा इति उक्तः " " इस देह में पुरुष परम है , उपद्रष्टा  है , यथार्थ सम्मति देनेवाला है [ अनुमन्ता ] , धारण- पोषण कर्ता है [ भर्ता ] , भोगनें वाला है , महेश्वर है और उसे परमात्मा कहा जाता है "  यहाँ इस सूत्र के साथ आप गीता के निम्न सूत्रों कोभी देख सकते हैं :----- 10.20 , 13.29 , 13.32 , 15.7 ,15.9 ,  15.11 ,  उपद्रष्टा शब्द ध्यान की दृष्टि से अपनी अलग जगह रहता है ; द्रष्टा वह होता है जो यह समझता है कि मैं देख रहा  हूँ , यहाँ देखनें के साथ मैं का भाव होता है और उपद्रष्टा  में मैं की अनुपस्थिति होती है और भाव रहित स्थिति में द्रष्टा दृष्य पर केंद्रित रहता है / देखनें का काम है आँखों का और आँखों को जो ज्योति देखनें को मिलती है वह देह में स्थित उप द्रष्टा से मिलती है / देह में दृष्य को देखनें वाला मूलतः मन है , मन गुणों का गुलाम होता है , जो गुण मन पर भावी होता ह