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Gita Tatva Vigyan: गीता अमृत - 54

Gita Tatva Vigyan: गीता अमृत - 54

गीता अमृत - 54

त्याग के तीन रूप देखिये गीता श्लोक - 3.27, 4.20 - 4.21, 5.6, 5.10 - 5.13, 6.1 - 6.2, 6.4, 18.1 - 18.12 गीता कहता है ...... तीन प्रकार के गुण हैं और गुणों के आधार पर तीन प्रकार के लोग हैं एवं तीन प्रकार के ही त्याग हैं । शरीर कष्ट के कारण किया गया त्याग राजस त्याग है , भय के कारण किया गया त्याग तामस त्याग है और कर्मों में आसक्ति एवं करता भाव का त्याग है - सात्विक त्याग । अब देखिये गीता श्लोक -- 2.48, 2.49, 3.19 - 3.20, 18.49 - 18.50 को जो कहते हैं ...... आसक्ति रहित कर्म , योग है , संन्यास है और इस से बैराग्य में प्रवेश मिलता है । गीता श्लोक - 7.20, 18.72 - 18.73 कहते हैं .... कामना एवं मोह अज्ञान की जननी हैं । कामना राजस गुण का तत्त्व है और मोह है तामस गुण का तत्त्व । राजस एवं तामस गुण प्रभु की ओर रुख करनें नहीं देते और सात्विक गुण में जब अहंकार प्रधान होता है तब भी रुख प्रभु की ओर न हो कर , भोग की ओर होता है । भोग जीवन में भोग तत्वों की पकड़ को ढीली करनें के लिए राजस एवं तामस त्यागों की मदद से ही सात्विक त्याग में पहुंचा जा सकता है । जब तक त्याग करता यह समझता है की वह त्याग कर रहा

गीता अमृत - 53

परम द्वार [क] परस्तस्यातु भाव: अन्यः अब्याक्तात सनातनः । यः स सरवेषु भूतेषु नश्यत्सु न बिनश्यति ॥ 8।20 ॥ [ख] अब्यक्त: अक्षर इत्युक्तस्तमाहु: परमां गतिम् । यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्भाव परमं मम ॥ 8।21 ॥ [ग] पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्त्वनन्यया । यस्यान्तः स्थानि भूतानि येन सर्वमिदं ततं ॥ 8।22 ॥ गीता के तीन श्लोक परम द्वार की ओर संकेत दे रहे है , यह कहते हुए की ------- अनन्य भक्ति से अब्यक्त भाव भरता है ....... अब्यक्त भाव में अब्यक्त अक्षर की धुन ह्रदय में भरती है ..... जब यह धुन ह्रदय से चल कर तीसरी आँख पर पहुंचती है ..... तब वह योगी तन , मन एवं बुद्धि से अपनें को अलग देखता है ..... जो योगी इस भाव दशा में अपना प्राण छोड़ता है उसे .... परम गति के माध्यमसे परम पद मिलता है । मनुष्य जीवन का एक मात्र उद्देश्य है - परम पद पाना जिसके पानें से .... मनुष्य आवागमन से मुक्त हो जाता है । ===== ॐ=====

गीता अमृत - 52

गांठे तो खुलेंगी ही ....... गांठें तो खुलेंगी ही -- चाहे आज खुलें या कल -- चाहे इस जनम में खुलें -- या अगले जनम में -- गांठें तो खुलेंगी ही । तीन तत्त्व और उनकी अपनी अपनी गांठें मनुष्य को इस भोग स्थल संसार में कही रुकनें नहीं देती । काम , क्रोध , लोभ , मोह , भय , आलस्य , कामना, अहंकार - आठ गुण तत्त्व हैं जो मनुष्य को सत से दूर रखते हैं । लोग कहा करते हैं - शरीर समाप्ति के बाद क्या होता है , कौन जानता है ? बात भी भोग की दृष्टि से सत लगती है लेकीन गीता कुछ और बोलता है । गीता कहता है - शरीर समाप्ति के बाद आत्मा मन को अपनें संग रखता है और मन जीवन भर की कामनाओं का ब्लैक बोक्स है । मन आत्मा को विवश कर देता है , नया शरीर धारण करनें के लिए जिससे अतृप्त कामनाओं को पूरा किया जा सके [ गीता - 8.6, 15.8 ] मन अपने अधीन पांच ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से मनुष्य को संसार में भ्रमण कराता रहता है । मनुष्य का मन - बुद्धि तंत्र गुणों का गुलाम है । मनुष्य के अन्दर जिस काल में जो गुण ऊपर होता है मनुष्य संसार में उस गुण के तत्वों के रूप में संसार को देखता है । संसार और मनुष्य के चेतना के मध्य मन - बुद्धि त

गीता अमृत - 51

माया से मायातीत गीता के निम्न श्लोकों के आधार पर माया से मायातीत और मायातीत में माया पति की अनुभूति का मार्ग देखा जा रहा है जिसमें आप आमंत्रित हैं ------- 2.48 - 2.51, 2.16, 7.4 - 7.6, 7.12 - 7.15, 13.5 - 13.6, 13.19, 14.3 - 14.4, 14.20, 14.22 - 14.27, 16.8, 18.40 गीता कहता है --- माया वह परदे की जाल है जिसकी समझ वह दृष्टि देती है जिससे माया से परे की अनुभूति होती है और उस अनुभूति का नाम है एक ओंकार सत नाम । प्रभु से प्रभु में तीन गुणों का एक सीमारहित माध्यम है , जिसको माया कहते हैं । माया से माया में ब्रह्म लोक सहित सभी लोक हैं और सभी लोक जन्म , जीवन एवं मृत्यु चक्र में हैं । माया का आधार दो प्रकृतियाँ हैं ; अपरा एवं परा । अपरा में आठ तत्त्व हैं - पञ्च महाबूत , मन , बुद्धि एवं अहंकार और चेतना परा प्रकृति है । अपरा - परा जब आपस में मिलते हैं तब यदि ऐसी स्थिति पैदा हो जो जीवात्मा - परमात्मा को अपनें में आकर्षित कर सके तब जीव पैदा होता है । जीवों का मूल श्रोत चूंकि तीन गुण हैं अतः उनमें तीन गुणों का होना भी तय है । तीन गुणों के तत्त्व हैं - काम , कामना , आसक्ति , क्रोध , लोभ , अहंका

गीता अमृत - 50

निर्वस्त्र पृथ्वी रो रही है सन्दर्भ गीता श्लोक - 7.4 - 7.6, 13.5 - 13.6, 14.3 - 14.4 पृथ्वी , जल , अग्नि , वायु एवं आकाश - इन पांच तत्वों को पञ्च महा भूत कहते हैं । पञ्च महाभूत जीव निर्माण के मूल तत्त्व हैं । जब तक पृथ्वी या पृथ्वी जैसी परिस्थिति न हो तब तक जल एवं वायु का होना संभव नहीं है । जल - हाईड्रोजेन एवं आक्सिजेंन का योग है और विज्ञान में हाईड्रोजेन वह आदि [ Primeval Atom ] एटम है जिस से ब्रहमांड की रचना प्रारम्भ हुई थी । अब से लगभग 4.5 billion वर्ष पूर्व पृथ्वी एक आग के गोले के रूप में प्रकट हुई थी और लगभग 800 million वर्ष पूर्व में आकर वर्तमान रूप में आई और तब से अपने शरीर को ढकनें में लगी है । पृथ्वी और चाँद का गहरा आपसी सम्बन्ध है । पृथ्वी सूर्य के चारों तरफ तीस किलो मीटर प्रति सेकेंड की चाल से घूम रही है और इसकी चाल का नियंत्रण , चाँद करता है । जैसे - जैसे विज्ञान अपना पंख फैला रहा है वैसे - वैसे पृथ्वी का संकट सघन होता जा रहा है । विज्ञान से यदि सबसे अधिक नुक्सान किसी को हुआ है तो वह है प्रकृति की माँ - पृथ्वी । पिछले लगभग चार सौ वर्षों में पृथ्वी को गंजा बना दिया गया , प

गीता अमृत - 49

परम सत्य को समझो सन्दर्भ सूत्र - गीता ...8.6 , 15.8 , 14.5 गुरुवार रविन्द्र नाथ टैगोर कहते हैं ------ Butterfly counts not months but moments and has time enough क्या इस सोच वाला ब्यक्ति कभी बूढा हो सकता है ? जी नहीं । मंदिरों में लम्बी - लम्बी कतारें किनकी हैं ? कौन मौत की भय से मुक्त होना चाहता है ? कौन कभी मरना नही चाहता ? [क] जो अपनें वर्तमान को सुखों में देखते हैं और जिनको इस से राहत मिलनें की कोई राह नहीं दिखती , वे न चाहते हुए भी मौत को आमंत्रित करते हैं । [ख] जो भोग को परम समझते हैं , जिनके पास भोग के सभी साधन उपलब्ध हैं वे मौत से संघर्ष करते हैं और अमरत्व की दवा खोजते हुए कहीं रास्ते में दम तोड़ देते हैं । अब जीवन को देखिये ........ जीवन में दो किनारे हैं और दोनों का सम्बन्ध किसी न किसी रूप में मौत से सम्बंधित है ; जन्म मृत्यु को याद कराता है और जीवन का आखिरी छोर मृत्यु है ही । सब जानते हैं की मौत एक परम सत्य है लेकीन फिरभी मृत्यु के भय में अपना वर्तमान को खो रहे हैं - आखिर ऐसा क्यों है ? गीता कहता है भागना शब्द भय से है और भय तामस गुण का तत्त्व है । परम श्री कृष्ण कहते है

गीता अमृत - 48

मृत्यु एक परम सत्य है ** विज्ञान के पास मृत्यु से अछूता क्या है ? ** इतिहास का क्या होता , यदि मृत्यु शब्द न होता ? ** जन्मसे पहले और मृत्यु के बाद की गणित क्या विज्ञान के पास है ? ** क्या विज्ञान के पास अमरत्व की दवा है ? ** पृथ्वी से अंतरिक्क्ष तक में विज्ञान क्या खोज रहा है ? गीता कहता है [ गीता सूत्र 8.16 ] ब्रह्म लोक सहित सभी लोक एवं लोकों की सूचनाएं सब जन्म , जीवन मृत्यु एवं पुनः जन्म के चक्र में हैं । गीता कहता है - यदि तुम चाहो तो आवागम से मुक्त हो सकते हो .... कैसे ? देखिये गीता में यहाँ ------- [क] गीता - 12.7 - 12.8 ...... कृष्ण मय होनें पर ----- [ख] गीता सूत्र - 18.55 - 18.56 .... परा भक्त बन कर --- [ग] गीता सूत्र - 16.21 - 16.22 .... काम क्रोध लोभ की गणित को जान कर ---- [घ] गीता सूत्र - 15.51, 12.3 - 12.4, 14.19, 14.23 .... समभाव , द्रष्टा , साक्षी , मन - बुद्धि से परे की की अनुभूति वाला बन कर ----- [च] गीता सूत्र - 13.34, 14.20 .... क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ एवं प्रकृति को जान कर ------ [छ] गीता सूत्र - 13.30, 6.29 - 6.30 ..... सब को परमात्मा से परमात्मा में देखनें वाला होने

गीता अमृत - 47

मनुष्य खोज रहा है .......... मनुष्य बेहोशी में परमं पद खोज रहा है , आइये ! इस रहस्य में झांकते हैं ------ [क] गीता सूत्र - 2.28 मनुष्य का वर्त्तमान उसके अब्यक्त से अब्यक्त की यात्रा का एक अंश है । [ख] गीता सूत्र - 8.20 - 8.21 अब्यक्त भाव परम गति के माध्यम से परमं पद में पहुंचाता है । [ग] गीता सूत्र - 8.12 - 8.13 यहाँ गीता ॐ के माध्यम से तीसरी आँख पर प्राण केन्द्रित करके अब्यक्त भाव में परम धाम या परम पद में पहुंचनें का एक ध्यान देता है जिसको बार्दो , संथारा ध्यान भी क्रमशः तिब्बत प्रथा एवं जैन प्रथा में कहते हैं । [घ] गीता सूत्र - 13.30 कण - कण में ब्रह्म की समझ , ब्रह्म से परिपूर्ण करती है । [च] गीता सूत्र - 13.34 क्षेत्र , क्षेत्रज्ञ एवं प्रकृति का ज्ञान , ब्रह्म मय बनाता है । [छ] गीता सूत्र - 2.48 ब्रह्मण वह है जो ब्रह्म से परिपूर्ण हो । [ज] गीता सूत्र - 14.19 , 14.23 गुणों को करता समझनें वाला , ब्रह्म से परिपूर्ण द्रष्टा एवं शाक्षी होता है । [झ] गीता सूत्र - 15.5 - 15.6 आसक्ति - कामना रहित कर्म करता , स्व प्रकाशित परम पद को प्राप्त करता है । [प्] गीता सूत्र - 16.21 - 16.22 काम ,

गीता अमृत - 46

मृत्यु के बाद सम्बंधित गीता - सूत्र 8.6, 15.8, 11.8, 18.75, 7.3, 7.19, 12.5 मनुष्य का शरीर जब समाप्त हो जाता है तब उसकी आगे की यात्रा कैसी होती होगी ? यह एक दार्शनिक एवं वैज्ञानिक प्रश्न है । विज्ञान कहता है [ क्वांटम मेकैनिक ] - कोई भी सूचना पुरी तरह समाप्त नहीं होती , भौतिकी कहता है - ऊर्जा न बनाई जा सकती है न समाप्त की जा सकती है और विज्ञान यह भी कहता है - जो है वह सब एक ऊर्जा का रूपांतरण है ... वह है कौन ? इस बात पर विज्ञान एक मत पर नहीं है । स्थूल शरीर के बाद आत्मा या तो नया शरीर धारण करता है या प्रभू में बिलीन हो जाता है जिसको परम पद कहते हैं अर्थात वह आत्मा वाला पुनः जन्म नहीं लेता । भोगी मनुष्य भूतों से डरते हैं और योगी भूतों से वार्तालाप करते हैं । भूत क्या हैं ? ऐसे आत्माएं जो अगले जन्म के लिए नया शरीर खोजते रहते हैं , जो भ्रमणकारी हैं जिनके पास इन्द्रियाँ एवं मन है , भूत कहलाते हैं । भूत वह हैं जो अतृप्त आत्मा है जो ऐसा शरीर खोज रहा होता है जिसके माध्यम से वह अपनी कामना को तृप्त कर सके । सिद्ध योगी आत्माओं से किस तरह वार्ता करते हैं ? गुर्जिअफ़ , ओलिवर लांज , हब्बार्ड ,

गीता अमृत - 45

गीता का इशारा प्रभु की ओर गीता कहता है ....... [क] गीता सूत्र - 10.21, 10.23 सूर्य , चन्द्रमा एवं अग्नि - मैं हूँ , ऐसी बात प्रभु श्री कृष्ण कह रहे हैं । [ख] गीता सूत्र - 7.8 सूर्य एवं चन्द्रमा का प्रकाश , मैं हूँ - यह प्रभु श्री कृष्ण कह रहे हैं । [ग] गीता सूत्र - 9.19, 15.12, 7.9 सूर्य - चन्द्रमा के प्रकाशों का तेज एवं अग्नि का तेज , मैं हूँ । गीता कहता है ...... परमात्मा भावातीत एवं अविज्ञेय - अब्यक्तनीय है और अब इस बात के आधार पर विज्ञान की खोजों को देखिये की 19 वी एवं 20 वी शताब्दी के मध्य तक एवं आज तक वैज्ञानिक प्रकाश में क्या खोज रहे हैं ? और उनको क्या - क्या मिल रहा है ? न्यूटन [ 1666 ] से जैक सरफती [ 1967 ] तक जिनमें नोबल पुरष्कार प्राप्त वैज्ञानिक जैसे आइन्स्टाइन , लुईस ब्रागली , सी वी रमण , हेजेंनबर्ग , श्रोडिन्गर , एवं जैक सरफती आदि प्रकाश के माध्यम से जो पाया वह आज के विज्ञान की बुनियाद है लेकीन क्या ये लोग अपनी - अपनी खोजों से तृप्त हो पाए - जी नहीं हो पाए और अधिक अतृप्त हो कर आखिरी श्वास भरी - आखिर बात क्या थी ? आइन्स्टाइन का सारा विज्ञान प्रकाश की गति पर केन्द्रि

गीता अमृत - 44

गीता सूत्र - 14.21 यह श्लोक अर्जुन का है , अर्जुन जानना चाहते हैं ....... गुनातीत योगी की पहचान क्या है ? और गुनातीत योगी कैसे कोई बन सकता है ? गीता में श्री कृष्ण के कुल 556 श्लोक हैं जिनमें से अर्जुन अभी तक 408 श्लोकों को सुन चुके हैं और तब उनकी बुद्धि में यह प्रश्न उठ रहा है । श्री कृष्ण अर्जुन को मोह से मुक्त करानें के लिए अभी तक निम्न बातों को स्पष्ट कर चुके हैं ......... [क] स्थिर बुद्धि ब्यक्त की पहचान [ख] कर्म एवं ज्ञान [ग] कर्म योग एवं कर्म संन्यास [घ] प्रकृति - पुरुष सम्बन्ध [च] माया , आत्मा - परमात्मा रहस्य ... आदि , लेकीन इनसे अर्जुन तृप्त नहीं दीखते । अर्जुन का पहला प्रश्न , अध्याय - 2 में , स्थिर प्रज्ञा वाले योगी की पहचान से है इसके उत्तर में जो बातें बताई गयी हैं वही बातें गुनातीत योगी के सम्बन्ध यहाँ अध्याय - 14 में गीता सूत्र - 14.22 - 14.27 में बताई गयी हैं । गीता में अर्जुन का यह प्रश्न मात्र इस बात की ओर इशारा करता है की अभी तक सांख्य - योग की परम द्वारा कही गयी बातों का अर्जुन पर कई असर नहीं डाल पायी हैं , अर्जुन का मोह बढ़ता जा रहा है और गीता का समापन नजदी

गीता अमृत - 43

गीता श्लोक - 15.9 - 15.11 गीता श्लोक - 15.9 कहता है ...... कान , आँख , नाक , जिह्वा एवं त्वचा के माध्यम से आत्मा का संभंध ध्वनि , रूप - रंग , गंध , स्वाद एवं सम्बेदना के जरिये है । गीता श्लोक - 15.10 कहता है ..... ग्यानी आत्मा को समझता है । गीता श्लोक - 15.11 कहता है .... निर्विकार अन्तः करण वाला आत्मा को अपनें ह्रदय में महसूश करता है । अब आप इन सूत्रों के लिए निम्न श्लोकों को देखें ------- गीता श्लोक - 13.24 ध्यान के मध्य आत्मा की अनुभूति ह्रदय में होती है । गीता श्लोक - 4.38 योग सिद्धि पर ज्ञान के माध्यम से आत्मा का बोध होता है । गीता श्लोक - 10.20, 13,17, 13,22, 15.7, 15.11, 15.15, 18.61 देह में आत्मा ही परमात्मा है जिसका स्थान ह्रदय है । गीता श्लोक - 14.5 देह में आत्मा को तीन गुण रोक कर रखते हैं । गीता श्लोक - 18.40 कोई ऐसा सत्व नहीं जो गुणों से अछूता हो । गीता श्लोक - 2.16 सत्य भावातीत है । गीता श्लोक - 7.12 - 7.13 गुण और गुणों के भाव , परमात्मा से हैं लेकीन परमात्मा गुनातीत - भावातीत है । आप अपनी बुद्धि और मन को इन श्लोकों पर केन्द्रित रखें , आज नहीं तो कल इसका फल आप को म

गीता अमृत - 42

गीता श्लोक - 8.11 - 8.15 सूत्र कहते हैं ....... [क] वेद जिनको ॐ , ओंकार एवं परम अक्षर कहते हैं ---- [ख] राग रहित योगी जिनमें प्रवेश करते हैं ----- [ग] ब्रह्मचारी जिनमें बसते हैं ----- उस परम पद को मैं बताता हूँ । गीता की इस बात के लिए हमें गीता के निम्न सूत्रों को देखना चाहिए -------- 4.12, 8.11 - 8.15, 8.20 - 8.22, 12.3 - 12.4, 13.30, 13.34, 14.19, 14.23, 15.5 - 15.6, 16.21 - 16.22, 18.55 - 18.56......... 21 श्लोक जब आप ऊपर के सूत्रों को बार - बार अपनी बुद्धि में लायेंगे तो आप के मन - बुद्धि में यह भाव भरनें लगेगा ....... परम पद कोई स्थान नहीं है जिसकी लम्बाई , चौड़ाई एवं उचाई या गहराई को मापा जा सके । परम पद का भाव हैं निर्विकल्प मन - बुद्धि के साथ आत्मा का परमात्मा में मिल जाना । यहाँ एक बात हमें ध्यान में रखनी चाहिए - जब तक मन - बुद्धि निर्विकार नहीं होते तब तक उस ब्यक्ति का आत्मा परमात्मा होते हुए भी परमात्मा से अलग रहता है । सविकार मन - बुद्धि आत्मा को बार - बार नया शरीर धारण करनें के लिए बाध्य करते रहते हैं और निर्विकार मन - बुद्धि वाला आत्मा स्वयं परमात्मा होता है । गुण - तत्

गीता अमृत - 41

निर्गुण सत्व नहीं है - गीता -- 18.40 गीता सूत्र - 18.40 में श्री कृष्ण कहते हैं ..... पृथ्वी , आकाश एवं देव लोक में कोई ऐसा सत्व नहीं जिसके ऊपर गुणों की छाया न हो ----इस बात को समझना चाहिए । गीता सूत्र - 3,38 में श्री कृष्ण कहते हैं --- जैसे धुएं से अग्नि , मैल से दर्पण एवं जेर से गर्भ ढका होता है वैसे काम का अज्ञान , ज्ञान को धक कर रखता है । आप गीता की बात को जमीं पर देखनें का प्रयास करें - क्या सोना बिना पत्थर मिलता है ? क्या हीरा बिना पत्थर दीखता है .... जी नहीं पत्थर के अन्दर सोना - हीरा छुपा होता है , इस बात की तरह जैसे गीता सूत्र - 3.38 और गीता सूत्र - 18.40 सत्व के बारे में कह रहे हैं । आदि गुरु शंकराचार्य [ 788 - 820 AD ] कहते हैं ... अहम् ब्रह्मास्मि - ब्रह्म सत्यम जगत मिथ्या , सरमद [ 1659 AD ] कहते हैं - ला इलाही इल अल्लाह , मंसूर [ 857 - 922 AD ] कहते हैं - अनल हक और बुद्ध [ 556 - 486 BC ] कहते हैं - यह कहना की परमात्मा है , कुछ कठिन है क्यों की परमात्मा हो रहा है -- ऐसे परम तुल्य लोग जो कुछ भी कहे हैं उनके पीछे उनका अपना - अपना संसार का अनुभव है , यों ही नहीं बोला

गीता अमृत - 40

गीता में ज्ञान शब्द क्या है ? लगभग गीता के 140 श्लोकों का सार यहाँ दिया जा रहा है जो आप को गीता में ज्ञान शब्द को स्पष्ट करेगा , आप इन बातों को अपनें स्मृति में बैठानें की कोशिश करें । Prof. Albert Einstein says - Information is not knowledge. गीता कहता है ------ [क] सूत्र - 7.27 .... इच्छा , द्वेष , द्वन्द एवं मोह रहित ब्यक्ति , ज्ञानी है । [ख] सूत्र - 13.2 .... क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ का बोध , ज्ञान है । [ग] सूत्र - 13.7 - 13.11 तक .... राजस - तामस गुणों के प्रभाव में जो न हो , वह ज्ञानी है । [घ] सूत्र - 15.10 - 15.11 ......... भोगी - योगी एवं आत्मा - परमात्मा को जो जानें , वह ज्ञानी है ॥ [च] सूत्र - 2.55 - 2.72 तक ...... स्थिर प्रज्ञा वाला , ज्ञानी है । [छ] सूत्र - 14.22 - 14.27 तक -- गुनातीत योगी , ज्ञानी है । [ज] सूत्र - 6.29 - 6.30 ............ सब को आत्मा - परमात्मा से एवं आत्मा - परमात्मा में देखनें वाला , ग्यानी है । आत्मा क्या है ? इसके लिए देखिये गीता सूत्र - 2.18 - 2.30, 10.20, 13.32 - 13.33, 15.7 - 15.8 15.11, 14.5 को जो कहते हैं --- आत्मा परमात्मा का अंश है जो ह्रदय में

गीता अमृत - 39

सभी मार्ग एक जगह पहुँचते हैं गीता श्लोक - 5.5 कहता है ......... योग सिद्धि पर सांख्य - योगी को जो मिलता है , अन्य योगी भी अपनें -अपनें योग सिद्धि पर उसको ही प्राप्त करते हैं । इस सम्बन्ध में हम गीता के निम्न सूत्रों को देखते है ------ [क] सूत्र - 4.38 ...... सूत्र कह रहा है -- योग सिद्धि से ज्ञान मिलता है । [ख] सूत्र - 13.2 ...... सूत्र कहता है --- क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ का बोध ही ज्ञान है । [ग] सूत्र - 13.7 - 13.11 ..... सूत्र कहते हैं -- आसक्ति अहंकार रहित सम भाव वाला ग्यानी होता है । [घ] सूत्र - 18.50 .... सूत्र कहता है -- नैष्कर्म्य की सिद्धि ज्ञान - योगकी परा निष्ठा है । [च] सूत्र - 18.49 .... सूत्र कहता है -- आसक्ति रहित कर्म से नैष्कर्म्य की सिद्धि मिलती है । गीता स्पष्ट रूप से कहता है -- मार्ग का चुनाव तो तेरे हाँथ में है लेकीन सभी मार्ग तेरे को जहां पहुंचाते हैं उसका नाम एक है और वह है ------- ## कर्म में कर्म - बंधनों को समझ कर कर्म में अकर्म का अनुभव प्राप्त करना । ## भोग में भोग बंधनों को समझ कर भोग - राग से मुक्त होना । ## अपनों के मोह - ममता को समझ कर सम भाव

गीता अमृत - 38

गीता श्लोक - 4.12 श्लोक कहता है ----- मनुष्य लोक में कर्म - फल प्राप्ति एवं कामना पूर्ति के लिए देव - पूजन उपयुक्त है । आइये ! हम गीत के इस सूत्र को अपनें ध्यान का माध्यम बनाते हैं ------ देखिये गीता सूत्र - 3.9 - 3,12, 4.24 - 4.33, 7.16, 9.25 तीन आदि देव - ब्रह्मा , विष्णु एवं महेश , तीन माध्यम - ब्रह्म , देवता एवं मनुष्य और तीन गुण - सात्विक , राजस एवं तामस - यह तीन का रहस्य ही हिन्दू दर्शन का आधार है । गुणों के आधार पर तीन प्रकार के लोग हैं और उनका अपना - अपना यज्ञ , कर्म , पूजा एवं देव हैं । गीता कहता है [ गीता - 7.16 ] - अर्थार्थी , आर्त, जिज्ञासु एवं ग्यानी - चार प्रकार के लोग अपनें - अपनें देवताओं की पूजा करते हैं । अब हम देखते हैं गीता श्लोक - 9.25, 17.4, 17.11, 17.13, 4.24 - 4.33, 9.15, 3.9 - 3.15 तक को ------ पूजा करनें वालों में देव पूजक , पितृ - पूजक एवं भूत - प्रेत पूजक होते हैं और सब अपनें - अपनें कामनाओं की पूर्ति के लिए अपनी - अपनी यज्ञ एवं पूजा करते हैं । गीता सूत्र - 7.20 एवं 18.72 में प्रभु कहते हैं --- कामना - मोह अज्ञान की जननी हैं और ऊपर यह भी कहते हैं की देव पू