गीता अमृत - 47

मनुष्य खोज रहा है ..........

मनुष्य बेहोशी में परमं पद खोज रहा है , आइये ! इस रहस्य में झांकते हैं ------
[क] गीता सूत्र - 2.28
मनुष्य का वर्त्तमान उसके अब्यक्त से अब्यक्त की यात्रा का एक अंश है ।
[ख] गीता सूत्र - 8.20 - 8.21
अब्यक्त भाव परम गति के माध्यम से परमं पद में पहुंचाता है ।
[ग] गीता सूत्र - 8.12 - 8.13
यहाँ गीता ॐ के माध्यम से तीसरी आँख पर प्राण केन्द्रित करके अब्यक्त भाव में परम धाम या परम पद में
पहुंचनें का एक ध्यान देता है जिसको बार्दो , संथारा ध्यान भी क्रमशः तिब्बत प्रथा एवं जैन प्रथा में
कहते हैं ।
[घ] गीता सूत्र - 13.30
कण - कण में ब्रह्म की समझ , ब्रह्म से परिपूर्ण करती है ।
[च] गीता सूत्र - 13.34
क्षेत्र , क्षेत्रज्ञ एवं प्रकृति का ज्ञान , ब्रह्म मय बनाता है ।
[छ] गीता सूत्र - 2.48
ब्रह्मण वह है जो ब्रह्म से परिपूर्ण हो ।
[ज] गीता सूत्र - 14.19 , 14.23
गुणों को करता समझनें वाला , ब्रह्म से परिपूर्ण द्रष्टा एवं शाक्षी होता है ।
[झ] गीता सूत्र - 15.5 - 15.6
आसक्ति - कामना रहित कर्म करता , स्व प्रकाशित परम पद को प्राप्त करता है ।
[प्] गीता सूत्र - 16.21 - 16.22
काम , क्रोध एवं लोभ रहित ब्यक्ति परम पद प्राप्त करता है ।
[फ] गीता सूत्र - 8.55 - 18.56
कर्म योगी आसक्ति रहित कर्म के माध्यम से परमात्मा केन्द्रित अब्यक्त भाव से परम गति में परम पद
प्राप्त करता है ।

मनुष्य विवाह , पुत्र प्राप्ति , धन - संग्रह , ख्याति - सोहरत आदि से जो सुख प्राप्त करता है वह सुख उसके
पास कितनें समय तक रुकता है ? पत्नी , पुत्र , धन , सोहरत समाप्ति का दुःख मनुष्य के पास कब तक
रहता है ? मनुष्य का हर सुख अपनें में दुःख का बीज क्यों रखता है ? मनुष्य आखिर कार क्या खोज रहा है जो
उसे पूर्ण रूप से तृप्त करदे ?

विज्ञान का विकास मनुष्य की बुद्धि को तर्क आधारित बना रहा है और तर्क का दूसरा नाम है - संदेह ।
जितना गहरा संदेह होगा , उतना गहरा विज्ञान निकलेगा लेकीन यह विज्ञान मनुष्य को और अधिक
अतृप्त कर देता है । विज्ञान का बीज संदेह है और भक्ति - योग का आधार है - श्रद्धा ।
संदेह और श्रद्धा दोनों विपरीत दिशा में चलते हैं और कोई भी वैज्ञानिक तबतक प्रभु मय नहीं होता जब तक
उसकी बुद्धि में तर्क होता है ।
संदेह से श्रद्धा .....
तर्क से तर्कातीत .....
वासना से शुद्ध प्यार ....
प्रभु - मार्क के चिन्ह हैं ।

======ॐ=======

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