गीता अमृत - 51

माया से मायातीत

गीता के निम्न श्लोकों के आधार पर माया से मायातीत और मायातीत में माया पति की अनुभूति का
मार्ग देखा जा रहा है जिसमें आप आमंत्रित हैं -------
2.48 - 2.51, 2.16, 7.4 - 7.6, 7.12 - 7.15, 13.5 - 13.6, 13.19, 14.3 - 14.4, 14.20, 14.22 - 14.27,
16.8, 18.40

गीता कहता है --- माया वह परदे की जाल है जिसकी समझ वह दृष्टि देती है जिससे माया से परे की अनुभूति होती है और उस अनुभूति का नाम है एक ओंकार सत नाम ।
प्रभु से प्रभु में तीन गुणों का एक सीमारहित माध्यम है , जिसको माया कहते हैं । माया से माया में
ब्रह्म लोक सहित सभी लोक हैं और सभी लोक जन्म , जीवन एवं मृत्यु चक्र में हैं । माया का आधार
दो प्रकृतियाँ हैं ; अपरा एवं परा । अपरा में आठ तत्त्व हैं - पञ्च महाबूत , मन , बुद्धि एवं अहंकार और चेतना परा प्रकृति है । अपरा - परा जब आपस में मिलते हैं तब यदि ऐसी स्थिति पैदा हो जो जीवात्मा - परमात्मा
को अपनें में आकर्षित कर सके तब जीव पैदा होता है ।
जीवों का मूल श्रोत चूंकि तीन गुण हैं अतः उनमें तीन गुणों का होना भी तय है । तीन गुणों के तत्त्व हैं -
काम , कामना , आसक्ति , क्रोध , लोभ , अहंकार , मोह , भय एवं आलस्य ।
मनुष्य एक ऐसा जीव है जिसके अन्दर तीन गुणों का एक हर पल बदलता समीकरण होता है जो मनुष्य के जीवन को नियंत्रित करता है । गुण समीकरण , खान - पान एवं सोच के ऊपर निर्भर होता है ।
वह जो -----
माया को समझता है ......
गुणों को समझता है .....
गुणों के तत्वों की पकड़ को समझता है ....
वह -----
मायातीत योगी है और वह ......
माया पति को जानता है एवं
स्वयं माया पति तुल्य होता है ।
ऊपर दिए गए गीता सूत्रों को आप अपनाएं और अपनें भोग मार्ग को योग से गुजार कर
माया पति को ओर सरकाएं ।

======ॐ=====

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