क्या सिद्ध योगी को खोजना पड़ता है ?

आप को इस प्रश्न के लिए गीता के 27 श्लोकों का सारांश देखना है जिसको यहाँ दिया जा रहा है ।
गीता को भय के साथ न उठायें , यह तो आप का मित्र है ।
मित्र वह होता है जो बाहर - अंदर दोनों चहरे को देखनें में सक्षम होता है ।
गीता-श्लोक 7.3 कहता है -------
सदियों के बाद कोई एक सिद्ध - योगी हो पाता है और हजारों सिद्ध - योगियों में कोई एक परमात्मा तुल्य योगी होता है ।
श्री कृष्ण यह बात अर्जुन के प्रश्न - 7 के सन्दर्भ में कह रहे हैं और प्रश्न कुछ इस प्रकार है ........
अनियमित लेकिन श्रद्धावान योगी का योग जब खंडित हो जाता है तथा उसका अंत हो जाता है तब उसकी गति कैसी होती है ?
परम से परिपूर्ण बुद्ध को खोजना नहीं पड़ता , उनको खोजनें लायक होना पड़ता है । हम-आप बुद्ध को क्या खोजेंगे ? , वे संसार में भ्रमण करते ही इस लिए हैं की कोई ऐसा मिले जो उनके ज्ञान - प्रकाश को लोगों तक पहुंचा सके ।
दक्षिण के पल्लव राजाओं के घरानें का राजकुमार पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व कोच्ची से चीन मात्र इसलिए पहुँचा की
वह बुद्ध - ज्ञान की ज्योति को उस ब्यक्ति को दे सके जो इस काम के लिए जन्मा है । इस महान योगी को
लोग बोधी धर्म का नाम दिया और जिसनें चीन से जापान तक एक नए धर्म की हवा फैला दी जिसको
झेन कहा जाता है । अब आप सोचिये जरा की बोधीधर्म को भारत से चीन क्यों जाना पड़ा ? सिद्ध योगी
को अपनें शिष्य की खुशबू मिल जाती है जब वह इस लायक हो जाता है की वह गुरु से ज्ञान - ज्योति ले सके ।
परम हंस रामकृष्ण जब नरेन्द्र को देखा तो दौड़ कर उनको गले लगा कर रोने लगे और बोले --नरेन्द्र !
इतनें दिन तूं कहाँ था ? मैं कब से तेरी प्रतीक्षा कर रहां हूँ । सिद्ध योगी को कोई क्या खोजेगा ? और कैसे खोजेगा ?
वह तो स्वयं उसे खोजता है जो उस से वह ले सके जिसको वह अपनें गरु से प्राप्त किया था ।
सिद्ध योगी तीर्थों में आश्रम नही बनाते वे जहाँ होते हैं वह जगह आश्रम बन जाती है । योग के नाम पर जो ब्यापार कर रहे हैं वे मन्दिर-तीर्थ को अपना घर बना देते हैं और सिद्ध योगी जिस घर में पैर रखता है वह घर तीर्थ बन जाता है ।
घर और मन्दिर में क्या फर्क है ? घर वह है जहाँ एक ब्यक्ति विशेष एवं उसके परिवार के लोगों के भोग-तत्वों का चुम्बकीय क्षेत्र होता है और मन्दिर वह है जहाँ भोग-तत्वों की पकड़ समाप्त होती है । अंग्रेजी में दो शब्द हैं ---
magnetising and demagnetising , इनमें पहला घर है और दूसरा मन्दिर है । मन्दिर वह है जहाँ की शून्यता मनुष्य के अन्दर की शून्यता को जगाती है जिसमें ॐ की परम धुन का संगीत मिलता है ।
गीता सूत्र 6,41-6.42, 7.3 से यह मालुम होता है की योगी दो प्रकार के हैं ; एक ऐसे हैं जिनकी उनके
पिछले जन्म में साधाना बैराग्यावस्था तक पहुंचनें से पहले खंडित हो गयी होती है और किसी कारन बश उनके शरीर का अंत आगया होता है तथा दूसरी श्रेणी ऐसे लोगों की होती है जो बैराग्यावस्था में पहुँच तो जाते हैं लेकिन वहाँ पहुंचनें के बाद उनकी साधना खंडित हो जाती है । दूसरी श्रेणी के योगी बर्तमान में जन्म से बैरागी होते हैं लेकिन ऐसे योगी दुर्लभ होते हैं ।
भोग तत्वों के प्रभाव में होने वाले सभी कर्म भोग कर्म है [गीता सूत्र 2.45, 3.27, 3.33], जिनके करनें में
सुख मिलता है लेकिन उस सुख में दुःख का बीज होता है[गीता सूत्र 2.14, 5.22, 18.38 ] और ऐसे कर्म
प्रभु से दूर रखते हैं [ गीता सूत्र 7.12-7.13 ] तथा भोग तत्वों से अप्रभावित कर्म करनें वाला गुनातीत होता है ।
गुनातीत योगी प्रभु को खोजता नहीं वह स्वयं प्रभु तुल्य होता है [गीता सूत्र 2.55,5.24,6.29-6.30 ].
कर्म-योगी आसक्ति रहित कर्म से गुनातीत योगी बनता है [गीता सूत्र 3.4,3.19-3.20,5.10,18.49-18.50 ]
जो हमसे हो रहा हो उसमें होश बनाना , कर्म योग है ।
=====ॐ=========

Comments

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