अर्जुन का प्रश्न - 16

अर्जुन कहते हैं [ गीता श्लोक 18.1 ] , हे प्रभू! मैं संन्यास एवं त्याग को तत्त्व से जानना चाहता हूँ ।
अर्जुन का यह आखिरी प्रश्न है जिसके सम्बन्ध में श्री कृष्ण के 71 श्लोक [ आखिरी श्लोक 18.72] हैं , अर्जुन का एक और श्लोक 18.73 है तथा इस अध्याय के आखिरी पाँच श्लोक संजय के हैं।
इस प्रश्न के सम्बन्ध में कुछ बातों को देख लेना जरुरी लग रहा है क्योंकि प्रश्नों के आधार पर गीता का समापन आ चुका है और अर्जुन अभी भी उसी मोह की स्थिति में दीखरहे हैं ।
बिषय, इन्द्रिय, मन, बुद्धि , भोग-तत्त्व [ आसक्ति , कामना , क्रोध, काम, लोभ, मोह , भय , अंहकार ] ,कर्म ,कर्म-योग , ज्ञान , कर्म-संन्यास , बैराग्य , प्रकृति- पुरूष - संसार - समीकरण तथा आत्मा - परमात्मा को सुननें के बाद अर्जुन का यह प्रश्न अर्जुन की दयनीय मनो दशा की ओर इशारा करता है ।
अर्जुन अपनें प्रश्न दो एवं प्रश्न पाँच में कर्म- ज्ञान तथा कर्मयोग- कर्म संन्यास को जान चुके हैं और पुनः
उन्हीं बातों को जाननें की इच्छा ब्यक्त कर रहें हैं - यह बात कुछ हलकी सी लगती है ।
यहाँ दूसरी बात देखनें की यह है --अध्याय तीन एवं अध्याय पाँच में कर्म , कर्मयोग, कर्म संन्यास एवं ज्ञान
से संबंधों को बताया गया है लेकिन कर्म की परिभाषा श्लोक 8.3 में तथा ज्ञान की परिभाषा श्लोक 13.3 में
दी गई है - अर्जुन बिना कर्म-ज्ञान की परिभाषाओं को समझे कर्म-ज्ञान को कैसे समझें होंगे?
आप गीता में अर्जुन के सोलह प्रश्नों को देखा क्या आप समझते हैं की अर्जुन गीता से प्रभावित हो कर
युद्ध में उतरे होंगे ? हमें तो ऐसा नहीं लगता । अर्जुन की अस्थिर बुद्धि का पता इस बात से लगता है की
वे जिस बिषय पर चर्चा हो रही है उस बिषय पर नहीं रुकते , भागते हैं और खोजते हैं नए-नए बिषयों को ।
श्री कृष्ण उनको पकडनें का काम करते हैं और अर्जुन मौका पाते ही भाग लेते हैं , यह क्रम चलता रहता है
और गीता समाप्त हो जाता है ।
भोग जब योग में परिवर्तीत होता है तब भोग तत्वों की पकड़ समाप्त हो जाती है जिसको कर्म संन्यास
कहते हैं जिसमें कर्म अकर्म दिखता है और अकर्म कर्म सा दिखनें लगता है तथा इस में भोग तत्वों के भावों
का न उठना उन तत्वों का त्याग कहलाता है ।
त्याग स्व का प्रयास नहीं है यह योग सिद्धि में मिला प्रभू का प्रसाद है ।
====ॐ========

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