अर्जुन का प्रश्न - 13

अर्जुन प्रश्न करते हैं [गीता-12.1].....हे प्रभू ! आप मुझे यह बताएं कि सगुण उपासक एवं निर्गुण उपासक में उत्तम योग वेत्ता कौन है ?
प्रश्न के उत्तर में यहाँ हम गीता के 73 श्लोकों को देखेंगे [गीता- 12.2--14.20 तक ]जिनमें 25 निम्न श्लोक ध्यान के सूत्र हैं , आप इन पर ध्यान कर सकते हैं ..........
12.3-12.5, 13.1-13.3, 13.5-13.6, 13.12,13.15, 13.17, 13.19, 13.22, 13.24, 13.30, 13.32, 13.33,
14.3-14.5, 14.7-14.8, 14.17, 14.19, 14.20,
श्री कृष्ण अर्जुन के प्रश्न का सीधा उत्तर नहीं देते फलस्वरूप भ्रमित अर्जुन का भ्रम और गहरा जाता है , इस बात को आप यहाँ देख सकते हैं । परम श्री कृष्ण कहते हैं ----सगुण उपासक उत्तम है [गीता-12.2] लेकिन निर्गुण उपासक दुर्लभ होते हैं [गीता-12.3-12.5, + 7.3+ 7.19,+ 14.20]क्योंकि यह उपासना कठिन उपासना है ।
परम श्री कृष्ण आगे कहते हैं ---[गीता-12.13- 12.20 तक ] , सम भाव योगी हमें प्रिय हैं और सम भाव योगी सगुण उपासक हो नहीं सकता । गीता सूत्र --2.47- 2.51, 3.19-3.20, 5.10-5.11, 4.38, 18.40-18.50, 18.54- 18.55 को जब आप एक साथ देखेंगे तब पता चलता है कि सम भाव क्या है और यह कैसे मिलता है ?
सगुण उपासना का केन्द्र भाव हैं और निर्गुण उपासना भावातीत की अनुभूति है । सगुण अर्थात अपरा जिसको ब्यक्त किया जा सकता है तथा जो तन-मन से होती है । सगुण उपासना का परिणाम निर्गुण उपासना है ।
सगुण-निर्गुण दोअलग-अलग नहीं हैं और एक भी नहीं हैं , सगुण से निर्गुण का द्वार खुलता है तथा आगे क्या
होता है वह ब्यक्त नहीं किया जा सकता ?
कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो अपनें पिछले जन्म में बैराग तक की यात्रा करनें के पश्चात योग खंडित होनें पर
तथा मोक्ष न मिलनें के कारण पुनः जन्म लेते हैं , ऐसे लोग जन्म से बैरागी होते हैं और प्रारंभ से निर्गुण
उपासक हो सकते हैं [गीता-6.42] लेकिन इन श्रेणी के लोग हजारों साल के बाद दीखते हैं ।
श्लोक 13.1--14.20 तक में हम देखेंगे -------
अध्याय - 13 में सांख्य - योग के कुछ समीकरणों को ब्यक्त किया गया है और अध्याय - 14 में गुणों का विज्ञानं दिया गया है । श्लोक 3.1 -- अर्जुन के प्रश्न - 2 में श्री कृष्ण कर्म-ज्ञान को स्पष्ट किया है जबकि ज्ञान की परिभाषा गीता-श्लोक 13.3 में देते हैं तथा ज्ञान के लक्षणों को गीता-श्लोक 13.7--13.11 तक में देते हैं ।
श्री कृष्ण कहते हैं [गीता 13.1-13.3] , मनुष्य - शरीर को क्षेत्र कहते हैं जो समयाधीन है तथा जो विकारों से
भराहुआ है , इसको जो ऊर्जा चलाती है वह निर्विकार है और उसको क्षेत्रज्ञ कहते हैं- जो जीवात्मा है ।
गीता का सांख्य - योग समीकरण इन श्लोकों में है---------
7.4-7.6, 7.12-7.13, 13.5-13.6, 13.19-13.20, 14.3-14.4, 14.20, 16.16
यह समीकरण कुछ इस प्रकार है-----
क्षेत्र -क्षेत्रज्ञ के योग में अपरा-परा प्रकृति , आत्मा - परमात्मा के योग से भूतों कि रचना है । तीन गुन आत्मा को देह में रोक कर रखते हैं । सात्विक गुन परमात्मा कि ओर , राजस गुन भोग की ओर तथा तामस गुन मोह-भय से जोड़ता है और ईन सब के साथ अपरा - प्रकृति का तत्त्व अंहकार भी साथ-साथ रहता है ।
गुणों को समझनें वाला द्रष्टा/साक्षी होता है जो गुनातीत की स्थिति में आनंदित रहता है ।
ध्यान की गहराई में परमात्मा की खुशबूं मिलती है ।
सगुन उपासना तन,मन एव बुद्धि से होती है जिसको ब्यक्त करना आसान है लेकिन साधना जब कुछ और
गहरी होती है तब वह निर्गुण साधना हो जाती है जो अब्याक्तातीत होती है ।
=====ॐ=======

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