मन मित्र एवं शत्रु दोनों है
गीता सूत्र –6.5 , 6.6
उद्धरेत् आत्मना आत्मानं न आत्मानं अवसादयेत् /
आत्मा हि आत्मनः बंधु : आत्मा एव रूपु : आत्मनः //
मनुष्य का मन उसका मित्र एवं शत्रु दोनों है
Mind is friend and enemy .
बंधु : आत्मा आत्मन : तस्य येन आत्मा एव आत्मना जित : /
अनात्मन : तु शत्रुत्वे वर्तेत आत्मा एव शत्रुवत् //
जिसनें मन को जीत लिया है उसका मन उसका मित्र होता है पर जो मन जीता हुआ नहीं,वह शत्रु होता है/
Conquered mind is a good friend but uncontrolled mind is enemy .
गीता कह रहा है------
नियंत्रित मन मित्र है और अनि यंत्रित मन शत्रु होता है//
पहले तो यह समझना जरुरी है कि मित्र एवं शत्रु की परिभाषा क्या है ; कौन मित्र है और कौन शत्रु ? हम उसे अपना मित्र समझते हैं जो हमारे हाँ में हाँ मिलाए और ना में ना मिलाए , हम मित्र उसे कहते हैं जिसको हम रिमोट कण्ट्रोल करते हों और वह मौन रहता हो / जब हमें मित्र और शत्रु की परिभाषा समझ में आ जायेगी तब हमारा कोई न मित्र होगा और न कोई शत्रु क्योंकि मित्र – शत्रु कोई अलग अलग नहीं एक सिक्के के दो पहलू हैं , कोई किसी को हेड बना लेता है कोई किसी को लेकिन हेड – तेल में कोई फर्क नहीं होता / हम द्वैत्य की भाषा समझते हैं और द्वैत्य में सत्य नहीं होता / सत्य तो वह है जो अद्वैत्य हो /Max Planck says : Mind is the matrix of matters . Planck got noble prize in 1918 . मन से हम हैं और मन से भगवान भी है / गीता कहता है : जिस मन में भगवान की सोच है वह ब्यक्त स्वयं भगवान मय होता है //
========= ओम्=========
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