कर्म ,देह एवं आत्मा संबंध

गीता सूत्र –5.13

सर्व कर्माणि मनसा संन्यस्य आस्ते सुखं वशी

नव – द्वारे पुरे देही न एव कुर्वन् न कार्यन्

शब्दार्थ

मनसा सर्व कर्माणि संन्यस्य

नव द्वारे पुरे देही

न एव कुर्वन न कार्यन्

सुखं वशी


वह देहधारी जिसके कर्मों का उसके मन से त्याग हो गया होता है , वह बिना कुछ किये - कराये अपनें नव द्वारों वाले देह रूपी नगर में सुख से रहता है //

नौ द्वार कौन – कौन से हैं ? दो आँखें , दो नाक , दो कान , एक मुख , एक मॉल इंद्रिय , एक काम इंद्रिय /

मन से कर्मों का त्याग कैसे संभव है ? मन से कर्मों का त्याग होना तब होता है जब कर्म में पूर्ण होश उठ जाता है और होश में हो रहे कर्म के होनें के पीछे कोई अपना निहित स्वार्थ नहीं होता / मनुष्य का वह कर्म जिसके होनें के पीछे , काम , कामना , क्रोध , लोभ , मोह , भय , आलस्य एवं अह्नाकार की ऊर्जा न हो वह कर्म कर्म संन्यासी बनाता है /

He who has conrol over his nature [ action is the function of nature and nature is formed by the combination of three natural modes ] , whatever is done by him , does not have the doing energy of three modes , such a man in action [ Karma – Yogin ] remains happy with his physical boby having nine doors [ 02 ears , 02 nostrils , 02 eyes , 01 mouth , 02 organs of excretion and gereration ] .

  • गीता का सूत्र आप देखे

  • गीत के सूत्र का संस्कृत भाषा में कुछ भाव देखा

  • गीता के सूत्र का हिन्दी में भाव देखा

और

गीता - सूत्र का इंग्लिश भाषा में भी भाव को देखा

अब वक्त आ गया है की आप अपनी आँखों को बंद करें और गीता के इस सूत्र में बिना किस्ती के बहनें की कोशीश करे //


==========ओम्==========




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