गीता संकेत दो

गीता सूत्र – 8.8


अभ्यास – योग युक्तेन चेतसा न अन्य गामिना/

परम् पुरुषं दिब्यम् याति पार्थ अनुचिंतयन्//


मन में जिसके प्रभु बसते हों वह प्रभु में बसता है//


ऊपर के सूत्र का शाब्दिक अर्थ कुछ इस प्रकार से बनाता है-----

जब अभ्यास – योग इतना गहरा हो जाए कि मन – बुद्धि पूर्ण रूप से प्रभु पर स्थिर हो जाएँ तब वह योगी परम् पुरुष को चिंतन के माध्यम से प्राप्त करता है /


Through constant regular meditation fully attuned to the Self not wandering anywhere else , he reaches to the space where the realization of the absolute reality happens .


ऊपर के सूत्र मेंअभ्यास – योग युक्तेन पर आप सोचें ; अभ्यास और अभ्यास योग दोनों में क्या फर्क है ? जिस कृत्य के साथ योग शब्द लगता है उस कृत्य में मन चालक नहीं रहता , मन के इशारे पर तन – इन्द्रियाँ नहीं चलती , मन तो मात्र जो हो रहा होता है उसका द्रष्टा बना हुआ रहता है / योग वह साधन है जहां मनुष्य अपनें मन को समझता है और मन में बह रही ऊर्जा को निर्विकार करके जहां पहुचता है उस स्पेस की बात गीता सूत्र – 8.8 में की गयी है /


मनुष्य का मन एक तरफ राग से और दूसरी ओर वैराज्ञ से जुड़ा होता है / मन – साधना में मन के प्रति होश जगाना होता है जहां निर्विकार ऊर्जा के साथमन वह आइना बन जाता है जिस पर प्रभु प्रतिबिंबित होते हैं //


=====ओम===========



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