गीता मर्म - 01

गीता श्लोक - 5.6

योग में बिना उतरे सन्यासी बनना कष्ट प्रद होता है ।

योग में उतरना अपनें बश में है , योग को अपनाना अपनें हाँथ में है , और जैसे - जैसे योग का रस मिलनें लगता है ,
संन्यास - त्याग स्वयं घटित होते हैं ।

संन्यास किसका ? और त्याग किसका ?
वह त्याग त्याग नहीं जिसमें अहंकार की बॉस हो , त्याग स्व का कृत्य नहीं , यह साधना में स्वयं घटित होता है ।
कहते हैं - एक हाँथ से दो और दुसरे हाँथ को पता तक न चले , यह है , त्याग ।
त्याग और संन्यास पर्याय बाची शब्द हैं । संन्यास भी स्व घटित घटना है । जैसे - जैसे योग गहराता है , भोग की
पकड़ ढीली होनें लगती है और भोग तत्वों की ओर पीठ होनें लगती है जिसको संन्यास का आगमन कह सकते हैं ।
योग के फल के रूपमें ज्ञान मिलता है [ गीता सूत्र - 4.38 ] जिसकी ऊर्जा से त्याग एवं संन्यास घटित होता है ।
घर , परिवार ताथा जिमेदारियों से भाग कर साधू वेश धारण करके भीख मागना , संन्यास नहीं है , यह एक
मनो वैज्ञानिक रोग है । सूफी एवं झेंन फकीरों को आसानी से खोजना संभव नहीं , सत फकीर पानें के लिए
स्वयं को रूपांतरित करना पड़ता है । क्या पता रेलवे स्टेशन पर चाय बनानें वाला कोई सिद्ध सूफी फकीर हो ।
क्या पता तांगा चलानें वाला कोई झेंन फकित हो , ये लोग अपनें जीवन निर्वाह के लिए स्वयं कुछ करते हैं ,
भीख नहीं मांगते ।
गीता में धीरे - धीरे उतरनें का अभ्यास करें , आप में भी श्री कृष्ण ऊर्जा भरी पड़ी है ।

==== ॐ =======

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