गीता श्लोक - 6.4

यदा हि न इंद्रिय अर्थेषु न कार्मेषु अनुषज्जते /
सर्वसंकल्प संन्यासी योगारूढ़ : तदा उच्यते      /
जिस समय मनुष्य की इन्द्रियाँ न अपनें बिषयों से आकर्षित हों और न ही कोई कर्म से आकर्षित हों , उस काल में वह ब्यक्ति :-----
[क] संकल्प रहित होता है ....
[ख] योग में होता है //

If senses donot cling with their objects and also when no work attracks them , then at that particular moment that man is said to be ascended in Yoga .
गीता में प्रभु श्री कृष्ण अर्जुन को स्पष्ट कर रहे हैं कि योगी कौन होता है /
अर्जुन युद्ध न करनें के लिए सभीं बुद्धि स्तर पर प्रयाश करते हैं लेकिन
बुद्धि - योगी परम श्री कृष्ण उनको उनकी द्वारा कही गयी बातों को और निर्मल करके उनको ही वापिस देते हैं ; इस बात को समझना होगा /
प्रभु अर्जुन को यहाँ योगी के सम्बन्ध में क्यों बता रहे हैं ?
इस प्रश्न को समझते हैं :
गीता का अध्याय - 06 अर्जुन के उस प्रश्न से सम्बंधित है जिसको वे
अध्याय - 05 के प्रारम्भ में पूछते हैं , प्रश्न कुछ इस प्रकार से है : -----

अर्जुन कहते है -----

हे प्रभु !
आप कभीं कर्म संन्यास की प्रशंसा करते हैं और कभीं कर्म योग की , आप मुझे वह स्पष्ट रूप से क्यों नहीं बता रहे जो मेरे लिए कल्याणकारी हो ?
अर्जुन यहाँ कर्म न करनें को कर्म संन्यास समझ रहे हैं जबकी प्रभु कर्म संन्यास उसे कहते हैं जिस कर्म के होनें के पीछे कोई गुण तत्त्व की ऊर्जा काम न कर रही हो
अर्थात .........
कर्म में आसक्ति , कामना , क्रोध , लोभ , मोह , भय एवं अहँकार की ऊर्जा की अनुपस्थिति उस कर्म को कर्म संन्यास बनाती है /
ऊपर बताए गए भोग तत्त्वों की साधाना कर्म के माध्यम से कर्म योग है और कर्म में इन तत्त्वों का त्याग ही कर्म संन्यास है /
कर्म - योग एवं कर्म संन्यास एक सिक्के के दो पहलू हैं /
===== ओम् ======

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