गीता अध्याय - 13 भाग - 02

क्षेत्र  - क्षेत्रज्ञ 

गीता श्लोक - 13.1 , 13.2 ,  13.3 ,

प्रभु के बचन 

क्षेत्र यह देह है जो विकारों से परिपूर्ण है और जो इसे समझता है , वह है , क्षेत्रज्ञ /

गीता श्लोक - 13.2 के माध्यम  से प्रभु कह रहे हैं -----

क्षेत्र में क्षेत्रज्ञ , मैं हूँ , 
और .....
क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ का बोध ही ज्ञान है 
क्षेत्र की रचना के सम्बन्ध में आप आगे देख सकते हैं , यहाँ आज मात्रा ध्यान का बिषय है .....
क्षेत्र 
आदि गुरु शंकराचार्य जी अपनें भारत जागरण यात्रा के दौरान काशी पहुंचे जिसे ज्ञान - विज्ञान का केंद्र कहा जा ताहै और जो क्षेत्र ज्योतिर्लिंगम का क्षेत्र भी है तथा जहाँ शक्ति पीठ भी है /
आदि गुरु गंगा स्नान के बाद जब श्री विश्वनाथ जी की गली से गुजर रहे थे तब उनको एक ऐसा ब्यक्त मिला जो कुछ कुत्तों को अपनें साथ रखा था और अपनी मस्ती में सैर करता हुआ जा रहा था / आदि गुरु उस ब्यक्ति को एक अपवित्र ब्यक्ति समझा और बोल पड़े ----
तूं अपवित्र ब्यक्ति मुझे छू दिया अब मुझे पुनः स्नान करना पडेगा / 
 आदि गुरु की बात सुन कर वह ब्यक्ति रो पड़ा और बोला ,
 गुरूजी ! आप कुछ दिनों से काशी में हैं और वेदान्त की चर्चा कर रहे है और मैं आप की हर चर्चा को सुनता हूँ / आप का दर्शन कहता है , आत्मा निर्विकार है और देह निर्विकार  कभीं हो नहीं सकता , फिर आप मुझे बताएं की आप पुनः स्नान करके किसे निर्विकार बनाना चाह रहे हैं ? आदि गुरु की यह दूसरी हार थी और कहते हैं कि वह अपवित्र , कुत्तों वाला ब्यक्ति और कोई नहीं था स्वयं शिव थे  जो आदि गुरु को सही राह दिखा रहे थे / 
ध्यान , योग , तप , सुमिरन , पूजा , पाठ , यज्ञ , यह सब क्या है ? यह सब तन - मन कि नियमित ढंग से पवित्र बनाए रखनें के ढंग हैं /

गीता में प्रभु कहते हैं -----

गीता - 5.11
योगी अपनी इंद्रियों , मन एवं बुद्धि से जो करता है वह कृत्य उसे और निर्मल बनाता है / 
मनुष्य और अन्य जीवों एन मात्र एक फर्क है , मनुष्य अपनें तन , मन , बुद्धि की अपवित्रता को देख सकता है लेकिन अन्य ऐसा करनें में समर्थ नहीं /

मनुष्य के लिए एक सहज योग 

यदि हम स्वयं की काया को हर पल भाव रहित स्थिति में देखते रहें तो एक दिन माया को समझनें में कामयाब हो सकते हैं और माया की समझ ही ज्ञान है , ज्ञान वह जो आवागमन से मुक्त कराये /

==== ओम् ======

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