गीता की एक ध्यान विधि

गीता श्लोक - 8.12 , 8.13

[क] सभीं द्वार बंद हों
[ख] मन ह्रदय में स्थित हो
[ग] प्राण तीसरी आँख पर केंद्रित हो
[घ] देह से पोर - पोर से ओंम् धुन गूँज रही हो

" ऐसे आयाम में सहस्त्रार चक्र से प्राण को देह छोड़ते हुए का जो द्रष्टा बना होता है , उसे परम गति मिलती है / "

गीता का यह ध्यान तिब्बत के लामा लोगों का बारडो ध्यान जैसा है
और
जैन परम्परा में ऐसा ही ध्यान है - संथारा

* देह में नौ द्वार हैं [ देखिये गीता सूत्र - 5.13 ]
* मन का ह्रदय में बसना अर्थात मन का संदेह रहित होना अर्थात पूर्ण समर्पण
आप गीता की इस विधि को समझें लेकिन करें नहीं क्योंकि ------
भोग से परम गति तक की मनुष्य की यात्रा में यह ध्यान आखिरी सोपान है जहाँ प्रभु उस योगी के लिए दृश्य नहीं रह जाते /
मनुष्य की नजर तो प्रभु पर कभीं टिकती नहीं
लेकिन प्रभु की नजर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की सभीं सूचनाओं से कभी हटती भी नहीं /
==== ओम् =====

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