कस्तूरी कुंडल बसे .......

एक खोजी , एक कटी पतंग की तरह भावों की सूक्ष्म डोर को पकड़ कर भावातीत के माध्यम से अनंत में झाकनें की कोशिश करता हुआ कह रहा है -------
कस्तूरी कुंडल बसे , मृग ढूढत बन माहि ,
ऐसे घट - घट राम है , दुनिया जाने नाहि

कस्तूरी मृग के कुंडल में कस्तूरी है , जिसकी गंध उसे विवश कर रही है की वह उस गंध के श्रोत को खोजे और मृग की यह तलाश उसे जंगल - जंगल भगा रही है । धन्य है वह मृग , जिसको गंध का तो पता है जिसके आधार पर वह
कस्तूरी की तलाश कर रहा है , हमारे पास क्या है ?

सत्रहवीं इश्बी के मध्य में एक ब्यापारी घुमते - घुमते बिहार पहुंचा , बिहार के एक गाँव में एक मिटटी की
कब्र में उसको परम नूर की झलक मिली और उस नूर की खोज में उसका अंत हो गया जिसकी कब्र दिल्ली के
जामा मस्जिद के सामनें आज भी देखी जा सकती है । वह ब्यापारी था , औलिया सरमद जो एक यहूदी था ।

मृग के पास कस्तूरी की गंध है ...
सरमद के साथ परम नूर की एक झलक थी और .....
हमारे पास क्या है ?
गर्भ से जन्म तक ....
जन्म से मृत्यु तक ...
पुनः मृत्यु से गर्भ तक की हमारी तलाश क्या है ?
[क] कौन तलाश करता है ?
[ख] किसकी तलाश कर रहा है ?
[ग] क्यों तलाश कर रहा है ?

तलाश करता , हमारा मन है , वह अपनें मूल की तलाश कर रहा है , जब वह उसे मिलता है तब वह अपनें मूल में बिलीन हो कर आवागमन से मुक्त हो जाता है .....देखिये गीता सूत्र ---8.6 , 15.8 , 10.22

क्या हम उसके गंध को जानते हैं ?
क्या हम उसके स्वाद को जनाते हैं ?
क्या हम उसकी संवेदना को समझते हैं ?
क्या हम उसकी आवाज को जानते हैं ?
क्या हम उसके रूप - रंग को समझते हैं ?

गीता कहता है ------
प्रभु की अनुभूति मन-बुद्धि से परे की है अतः तुम अपनें मन-बुद्धि को निर्विकार करो और जब तुम ऐसा कर लोगे तब --
मन-बुद्धि दर्पण पर प्रभु प्रतिबिंबित होगा ।

====ॐ=====


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