गीता अमृत - 2

गीता का आदि - अंत मोह से सम्बंधित है ---कैसे ?

गीता में परम श्री कृष्ण का पहला श्लोक 2.2 है जिसमें परम श्री कृष्ण अर्जुन से पूछ रहे हैं ...इस असमय में तेरे को मोह कैसे हो गया है ? और परम का आखिरी श्लोक है 18.72 जिसमें परम कहते हैं ....क्या तेरा अज्ञान जनित मोह समाप्त हो गया है ?

कुछ गीता से मैं आप को दे रहा हूँ और कुछ गीता में आप खोजें और जब दोनों मिलेंगे तो जो तैयार होगा वह परम सत्य होगा ---ऐसी मेरी सोच है ।
गीता में श्री कृष्ण अर्जुन की बातों को चुपचाप सुनते हैं [ गीता - 1.22 - 1.47 तक ] और अर्जुन जो कुछ भी यहाँ बोलते हैं उससे यह स्पष्ट होता है की ये मोह में हैं । अर्जुन कहते हैं ....मेरा शरीर शिथिल हो रहा है , मन- बुद्धि भ्रमित हो रहे हैं , त्वचा में जलन हो रही है और गला सूख रहा है ---यह सब मोह की निशानी हैं । अब आगे ----
मोह ,भय एवं आलस्य , तामस गुण के तत्व हैं , राजस - तामस गुण अज्ञान की जननी हैं और मोह- अहंकार अज्ञान के कारण बुद्धि में भ्रम पैदा करते हैं ....देखिये गीता - श्लोक ...18.59 - 18.60, 18.72 - 18.73, 2.71,
4.10, 4.23, 7.27, 14.8, 14.17,

गीता यह कहता है [ गीता- 2.52, 6.27 ].....राजस- तामस गुण प्रभु के मार्ग में मजबूत अवरोध हैं । गीता श्लोक 15.3 कहता है ----राजस- तामस गुणों के प्रति उठा होश ही बैराग्य है ।

गीता से डरते क्यों हो - यह तो भय की दवा है ।

====ॐ======

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