क्या सब के अपनें - अपने धर्म हैं ?

देखिये गीता के श्लोक ----
3.35, 18.47
2.45, 3.5, 3.27, 3.33
18.59 - 18.60, 8.3
गीता यहाँ इन श्लोकों के माध्यम से कह रहा है ----
दोष रहित दूसरे का धर्म दोष युक्त अपनें धर्म से अच्छा नहीं होता , अपनें धर्म में स्वभाव के अनुकूल कर्म होते हैं
जिनके करनें से पाप नहीं होता । पराये धर्म को धारण करनें में भय होता है ।
गीता के ऊपर दिए गए सूत्रों को जब आप गहराई से देखेंगे तो आप को यह बात मिलेगी ------
गुण समीकरण हर ब्य्यक्ति में होता है जो हर पल बदलता रहता है । मनुष्य गुण - समीकरण का गुलाम है और वह जो भी करता है वह गुणों के प्रभाव में करता है । गुण स्वभाव का निर्माण करते हैं , स्वभाव से कर्म होते हैं और
कर्मों के आधार पर जातियों का निर्माण हुआ है ।
जब गुण सब के श्रोत हैं और गुण परिवर्तनशील हैं तो फिर स्थीर जातियां कैसे हो सकती हैं ?
आज हम सब को जो गीता उपलब्ध है वह , वह गीता नहीं है जो कुरुक्षेत्र में श्री कृष्ण एवं अर्जुन के माध्यम से प्रकट
हुआ था , यह गीता पिछले पांच हजार वर्षों में परिवर्तन से गुजरा है लेकीन इसमें लगभग दो सौ श्लोक ऐसे जरूर हैं
जिनको कोई श्री कृष्ण जैसा ही बोल सकता है ।

धर्म को जाती से जोड़ कर लोग धर्म को अधर्म बना दिया और आज सभी धर्म की परिभाषा में भ्रमित हैं ।
धर्म वह है -----
जो मनुष्य को प्रकृति से एक मय बनाता है , धर्म जोड़ का नाम है , यह लोगों को जोड़ता है बिभाजित नहीं करता ।

====ॐ======

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