सोच की दौड़ - क्यों और कहाँ तक ?गीता अमृत - 23

ज़रा आप इनको देखें ------
[क] मनुष्य संसार में दुसरे नंबर पर नहीं रहना चाहता ।
[ख] मनुष्य अपनें बंद मुट्ठी में कुछ और भरना चाहता है ।
[ग] मनुष्य की कामना दुस्पुर है ।
[घ] मनुष्य सोचता है - जो नहीं है वह हमारे पास हो और जो है वह सरकनें न पाए ।
[च] मनुष्य की कामना उसके आत्मा को दुबारा शरीर धारण करनें के लिए विवश करती है ।
[छ] गुणों के साथ परमात्मा नहीं दीखता और गुण ही आत्मा को शरीर में रोक कर रखते हैं ।
[ज] गुनातीत या मायामुक्त योगी दुर्लभ हैं ।
अब आप इनको समझनें के लिए देखिये गीता सूत्र - -----
8.6, 15.8, 2.62 - 2.63, 6.24, 7.20, 18.72 - 18.73, 14.14, 6.41 - 6.42, 7.3, 7.19 - 7.20, 12.5
14.15, 7.4, 10.22
मनुष्य की सोच यदि भोग से सम्बंधित है तो वह उस ब्यक्ति से उसका वर्तमान छीन लेती है ।
भोग की सोच में मनुष्य सोचता है की वह आगे जा रहा है लेकीन ऐसा होता नहीं है - मैक्स प्लैंक - एक नोबल पुरष्कार प्राप्त वैज्ञानिक कहते हैं ----
खोज में उठा कदम कहता है की तुम आगे जा रहे हो लेकीन आगे जानें के बाद ऐसा लगता है की हम जहां थे , अब उससे भी पीछे चले गए हैं ।
आप सोचिये की आप की सोच आप को कहाँ ले जा रही है ?

=====ॐ======

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