गीता अमृत - 14

कर्म - अकर्म क्या हैं ? ----गीता - 4.18

[क] भोग में उपजा होश भोग - त्याग का कारण है ।
[ख] जिसनें भोगा , उसनें त्यागा ।
[ग] बिना भोग संसार का अनुभव नहीं , बिना संसार - अनुभव , ज्ञान नहीं ।
[घ] भोगी का कर्म योगी को अकर्म दीखता है और योगी का कर्म भोगी को अकर्म सा लगता है

गीता श्लोक 4.18 बुद्धि - योग के फल को स्पष्ट करते हुए कहता है ------
जो कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखता है वह बुद्धिमान है और सभी कर्मो को करनें में
सक्षम होता है ।
अब देखिये गीता के निम्न सूत्रों को --------
8.3, 2.48, 3.19, 3.20, 3.25, 4.20, 4.23, 5.10, 5.11
8.11, 18.49, 18.50, 18.54, 18.56,
गीता के चौदह सूत्र कहते हैं ......
भोग कर्म योग कर्म के मार्ग हैं । भोग कर्मों में कर्म के बंधनों को समझंना , उस ब्यक्ति को योग में पहुंचाते हैं ।
जब कर्म के होनें के पीछे गुणों के तत्वों की पकड़ नहीं होती तब वह भोग कर्म , योग - कर्म हो जाता है ।
योग - कर्म बिना आसक्ति के होते हैं , जिससे कर्म करता परा भक्ति में पहुँच जाता है जिसको कर्म- योग की
सिद्धि कहते हैं । आसक्ति रहित कर्म के लिए गीता सूत्र 8.3 कहता है ----
भूतभावोद्भव करो बिसर्ग: कर्मः अर्थात ....
जिसके करनें पर भावातीत की स्थिति मिले वह कर्म है और गीता सूत्र 2.16 कहता है ....
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत: अर्थात ----
सत भावातीत है ।
कर्म में अकर्म देखनें वाला भावातीत की स्थिति में भावातीत प्रभु मय होता है ।
एक कदम गीता में आप चलें , एक कदम मैं चलता हूँ और फिर दोनों कहाँ पहुंचते हैं ? यह आगे गीता ही
बताएगा ।

====ॐ=====

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