गीता अमृत - 26

प्रकृति में मनुष्य



यहाँ आप गीता में यह देखनें जा रहे हैं की प्रकृति , पुरुष एवं प्रभु का क्या समीकरण है ? और इसके लिए आप गीता के निम्न सूत्रों को अपनाएं ------

7.14 - 7.16, 8.6, 15.8, 16.5 - 16.19, 17.4 - 17.22, 18.4 - 18.12, 18.19 - 18.39

अब आप गीता की उन बातों को देखें जो इन सूत्रों में बंद हैं ------

[क] मनुष्य प्रकृति - पुरुष के योग से एक ऐसा जीव है जो भोग - भगवान् दोनों को समझ सकता है लेकीन जीवों में सबसे अधिक तनहा जीव क्यों है ? क्यों की भोग में भगवान् की उसकी खोज बेहोशी की खोज है । मनुष्य जब भोग को योग का माध्यम समझनें लगता है तब वह तनहा नहीं रहता ।

[ख] तीन प्रकार के गुण हैं और तीन प्रकार के लोग हैं लेकीन राजस - तामस गुण धारियों को गीता एक जैसा समझते हुए कहता है -- ये लोग आसुरी स्वभाव वाले होते हैं जिनके जीवन का केंद्र भगवान् नहीं भोग होता है ।

[ग] भोगी दिशाहीन यात्रा करते हुए भोग में घूमता हुआ भोग में एक दिन शरीर छोड़ जाता है - इसका जीवन अतृप्ति में अतृप्त स्थिति में समाप्त होता है ।

[घ] योगी भोग से अपना जीवन प्रारम्भ करके योग में पहुंचता है जहां उसको भोग से बैराग्य हो जाता है और बैराग्य - अवस्था में ज्ञान के माध्यम के रूप में उसे आत्मा - परमात्मा का बोध उसे प्रभु मय बना देता है ।

भोगी और योगी - दोनों की यात्रा भोग से प्रारम्भ होती है , भोगी भोग के सम्मोहन
में ऐसा उलझता है उसे निकलना असभव सा हो जाता है और योगी भोग में होश उपजा कर प्रभु मय हो कर परम आनंद में रहता हुआ होश पूर्ण स्थिति में स्वतः अपना देह
छोड़ता है ।

आप क्या चाहते हैं ?



====ॐ=====

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