गीता अमृत - 20


किं तद्ब्रह्म ?

अर्जुन के आठवें प्रश्न का एक अंश ऊपर का प्रश्न है जिसका अर्थ है -- ब्रह्म क्या है ?

परम श्री कृष्ण कहते हैं ----
अक्षरं ब्रह्म परमं अर्थात परम ब्रह्म अक्षर है [जिसका कभी अंत न हो ]

ब्रह्म , इश्वर , प्रभु , परम अक्षर , परमात्मा काम चलानें के नाम हैं जिनसे उस ऊर्जा को ब्यक्त किया जाता है जो अब्याक्तातीत है । ऋषि शांडिल्य- लाउत्सू कहते हैं -

उसका कोई नाम नहीं है और गीता कहता है ----
वह बिष - अमृत , सत - असत है और न सत है न असत है [ गीता - 9.19 + 13.12 ] , अब उसे आप किस भाव में समझेंगे ? यह आप को पता चलेगा । गीता में ब्रह्म को समझनें के लिए आप निम्न श्लोकों को देखें --

अध्याय - 2 .....श्लोक - 16, 28, 42 - 44 तक ।

अध्याय - 5......श्लोक - 14 - 15

अध्याय - 7.....श्लोक - 8, 15, 24, 25,26,

अध्याय - 8....श्लोक - 3, 20 - 22 तक

अध्याय - 9....श्लोक - 4 - 6, 16 - 17, 19, 29

अध्याय - 10..श्लोक - 2 - 6, 8 , 20 - 40

अध्यायh - 11 श्लोक - ६ - ७, ३२, ५२ - ५५

अध्याय - 1२ - 1 - 7

अध्याय - 13 .. श्लोक - 12 - 17, 22, 24, 27, 30 - 31

अध्याय 15...श्लोक - 7, 12 - 18

अध्याय - 18...श्लोक - 61


गीता में 83 ऐसे श्लोक हैं जो परमात्मा को ब्यक्त करते हैं पर
प्रभु की अनुभूति मन - बुद्धि की नहीं है [ गीता - 2।42 - 2।44, 12।3 - 12.4 ] , खुदा के लिए सौ नामों की चर्चा है - कुरान में , लेकीन गणना करनें पर 99 नाम मिलते हैं ।

अब गीता के आधार पर आप ब्रह्म को समझें ।



=====ॐ=====

Comments

Popular posts from this blog

क्या सिद्ध योगी को खोजना पड़ता है ?

पराभक्ति एक माध्यम है

गीतामें स्वर्ग,यज्ञ, कर्म सम्बन्ध