गीता अमृत - 22

कर्म करनें वाला कौन है ?

जो हमारी कर्म की परिभाषा है वह गीता के कर्म के माध्यम की परिभाषा है ।
गीता के कर्म के लिए हमें अपनें स्वभाव को बदलना होगा ।
स्वभाव बदलनें के लिए हमें अपनें अन्दर के गुण - समीकरण को बदलना होगा ।
गुण समीकरण को बदलनें के लिए हमें अपना ------
खान , पान , वाणी , तन , मन एवं बुद्धि को बदलना होगा , और यह सब तब संभव होगा जब हम गीता में दुबकी लेते रहनें का अभ्यास करेंगे ।
अब आप देखिये गीता सूत्र - 18.19, 18.23 - 18.28, 8.3, 14.6 - 14.12, 14.17 - 14.18,
3.27, 3.33, 18.59 - 18.60, 2.45, 5.22, 3.5,
2.47 - 2.51, 14.19, 14.23, 14.20, 13.19,
यदि आप किसी ढाबे पर रोटी खाते हैं तो एक वक्त की रोटी के लिए आप को जो खर्च करना पड़ता है उस में गीता - प्रेस - गोरखपुर से प्रकाशित गीता आप को मिल सकता है लेकीन गीता को कंधे पर टांग कर कौन चलना चाहता है ? गीता कहता है - तीन गुण हैं जो पुरे ब्रह्माण्ड में प्रत्तेक सूचना में हैं , गुणों के इस माध्यम को माया कहते हैं । गुणों के आधार पर तीन प्रकार के लोग हैं , सब का अपना - अपना कर्म है जिसको भोग कर्म कहते हैं, जिनकी पकड़ मनुष्य को परमात्मा की ओर देखनें नहीं देती और मनुष्य भोग से पैदा हो कर भोग में भ्रमण करते हुए एक दिन भोग में समाप्त हो जाता । गीता कहता है ---
भोग कर्मों में होश पैदा करो - यह होश तुमको परमात्मा की ओर मोड़ देगा और तुम माया को समझ कर माया मुक्त - योगी के रूप में प्रकृति - पुरुष के योग को समझ कर आवागमन से मुक्त हो कर परम गति को प्राप्त करोगे ।
गीता की बात पढ़नें - सुनाने एवं सुननें में सीधी हैं लेकीन जब कोई इन बातों को अपनें जीवन में उतारता है तो भोग तत्वों की छाया उसको ऐसा करनें में अवरोध पैदा करती है ।
साधना यदि इतनी आसान होती तो निराकार ब्रह्म को बार - बार साकार रूपों में इस धरा पर न आना पड़ता ।

======ॐ=====

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