गीता अमृत - 10

कर्म तो करना ही है लेकीन .......

गीता सूत्र - 3.25 - 3.26, 3.29
गीता कहता है ------
योगी और भोगी दोनों एक कर्म को करते हैं , बाहर से देखनें पर कोई अंतर नहीं दीखता लेकीन कर्म करनें वाले
को पता रहता है की वह जो कर रहा है उसके पीछे क्या है ? अर्थात वह यह कर्म क्यों कर रहा है ?
भोगी जब शास्त्रानुकूल कर्म कर रहा हो तो योगी को उसकी कमी बता कर उसके मन में भ्रम पैदा नहीं करना
चाहिए अपितु अपनें कर्म के माध्यम से भोगी को अपनें जैसा करनें के लिए आकर्षित करना चाहिए ।

गीता सूत्र - 2.14, 5.22, 18.38, 2.45, 3.27, 3.33, 3.34,
गीता कहता है -----
इन्द्रिय - बिषय के सहयोग से होनें वाले कर्म भोग - कर्म हैं जिसके करनें में सुख दिखता है लेकीन उस सुख में दुःख
छिपा होता है । भोगी इन कर्मों को गुणों से सम्मोहित हो कर करता है और योगी प्रकृति की आवश्यकता को
पूरा करनें के लिए ऐसा कर्म करता है , वह जानता है की वह क्या कर रहा है और क्यों कर रहा है ?

कल की सोच हमसे हमारा आज छीन लेती है और सोच की भाग - दौर , भोग कर्म की पहचान है ।

योगी का कर्म सम - भाव में होता है जिसके होनें या न होनें से उसे सुख - दुःख की अनुभूति नहीं होती ।

======ॐ=====

Comments

Popular posts from this blog

क्या सिद्ध योगी को खोजना पड़ता है ?

पराभक्ति एक माध्यम है

गीतामें स्वर्ग,यज्ञ, कर्म सम्बन्ध