गीता अमृत - 30

भ्रमित ब्यक्ति क्या चाहता है ?

दो शब्द हैं - संदेह एवं भ्रम । संदेह में पूर्ण रूप से अस्थिरता होती है - कभी हाँ तो कभी ना , कभी आगे तो
कभी पीछे चलना होता है लेकीन भ्रम संदेह से अधिक खतरनाक होता है , भ्रमित ब्यक्ति अपनें को ढक कर
रखनें की कोशिश में रहता है । भ्रमित ब्यक्ति अवलंबन खोजता है , वह उसे तलाशता है जो उसके हाँ में
हाँ मिलानें वाला हो । भ्रमित ब्यक्ति चाहता है की जो उसे मिले उसका कद छोटा हो और यदि लम्बे कद वाला
मिल जाता है तब भ्रमित ब्यक्ति की परेशानी बढ़ जाती है ।
गीता में अर्जुन का कद छोटा है और अर्जुन भ्रमित हैं , अर्जुन का मात्र एक प्रयाश होता है की वे अपनें को कैसे
छिपा कर रक्खें ? आइये अब हम गीता के अर्जुन की भाव दशा को देखते हैं --------
[क] गीता सूत्र - 1.30 , अर्जुन कहते हैं ....मेरा मन भ्रमित हो रहा है ।
[ख] गीता सूत्र - 1.26 - 1.46 , अर्जुन यहाँ जो भी कहते हैं उस से यह स्पष्ट होता है की अर्जुन मोह में हैं ।
देह में कम्पन का होना , गले का सूखना , त्वचा में जलन का होना - यह सब मोह के लक्षण हैं
[ग] गीता सूत्र - 2.7 , अर्जुन कहते हैं - धर्म - बिषयों के कारण उनका मन मोहित हो रहा है ।
[घ] गीता सूत्र - 10,12 - 10.16 , अर्जुन कहते हैं - हे भूतों के ईश्वर , देवों के देव , आप परम अक्षर ब्रह्म हैं ।
[च] गीता सूत्र - 10.17 , अब आप देखिये अर्जुन की अस्थिरता को - एक तरफ श्री कृष्ण को ब्रह्म कह रहे हैं
और साथ में प्रश्न भी पूछ रहे है की आप तो अनेक हैं , मैं आप को किस रूप में स्मरण करूँ ?
[छ ] गीता सूत्र - 11.1 - 11.4 , अर्जुन कहते हैं - आप की बातों को सुननें के बाद मेरा अज्ञान समाप्त हो गया है
लेकीन यदि मैं आप के ऐश्वर्य रूप को देखा लेता तो ........
[ज] गीता सूत्र - 11.31 , अर्जुन कहते हैं - आप सत - असत से परे हैं लेकीन उनकी बुद्धि अभी भी भ्रम में है
क्यों की अभी गीता समाप्त नही हो रहा , आगे भी अर्जुन प्रश्न पूंछते हैं ।
[झ] गीता सूत्र - 11.51 + 12.1 , अर्जुन पहले कहते हैं - अब मैं स्थिर चित्त हूँ और एक प्रश्न में अनेक प्रश्न
पूछते हैं जैसे - ब्रह्म क्या है ? कर्म क्या है ? आदि ।
** गीता का अंत हो रहा है , अर्जुन के मन की स्थिति अभी भी भ्रमित है , श्री कृष्ण का योग दर्शन असफल
होता दीखता है और श्री कृष्ण को कहना पड़ता है -- मुझे जो कुछ भी बताना था , बता दिया है , अब तेरे मन में
जो आये वैसा कर [ गीता - 18।63 ] । परम श्री कृष्ण यह भी कहते हैं [ गीता - 18.62 ] - तूं जा उस परमेश्वर
की शरण में , तेरे को वहीं शांति मिलेगी जब की अभीतक स्वयं को परमेश्वर कहते आये हैं ।
परम श्री कृष्ण जैसा ज्ञान की शिक्षा देनें वाले जब अर्जुन के मोह को समाप्त करनें में असफल हो रहे हैं तो
और कौन मोह की दवा से सकता है ?

======ॐ======

Comments

Popular posts from this blog

क्या सिद्ध योगी को खोजना पड़ता है ?

पराभक्ति एक माध्यम है

गीतामें स्वर्ग,यज्ञ, कर्म सम्बन्ध