ईशोपनिषद् श्लोक - 02

 


ईशोपनिषद् श्लोक :02

यहाँ गीता के श्लोक - 18.49 , 28.50 कहते हैं कि ,आसक्ति मुक्त  कर्म करनें से  नैष्कर्म्यकी सिद्धि मिलती है जो ज्ञानयोगकी  परा निष्ठा है …इस रहस्यको ठीकसे समझनेकी आवश्यकता है ….कर्म बंधनोंकी गुलामीमें जो कर्म होते हैं उनको वेद प्रवित्ति परक कर्म कहते हैं और कर्म - बंधन मुक्त जो कर्म होते हैं उनको वेद निवृत्ति परक कर्म कहते है (भागवत : 7.15.47)।नैष्कर्म्यकी सिद्धि क्या  है ?यहाँ भागवत : 8.1 में  कहा गया है , जब कर्म ब्रह्मसे एकत्व स्थापित कर दें तब  वह स्थिति नैष्कर्म्य सिद्धिकी होती है । यह वह स्थिति होती है जिसके आगे समाधि की ही होती है ।

श्लोक : 2 का सार 

मनुष्य के जीने का केवल एक मार्ग है -  आसक्ति रहित अंतःकरण के साथ सहज कर्म करते रहो क्योंकि इस  प्रकार जीने से नैष्कर्म्य - सिद्धि मिलती है जो ज्ञानयोग की परानिष्ठा है।

// ॐ // 19 अक्टूबर

Comments

Popular posts from this blog

क्या सिद्ध योगी को खोजना पड़ता है ?

पराभक्ति एक माध्यम है

गीतामें स्वर्ग,यज्ञ, कर्म सम्बन्ध